भगवान श्रीकृष्ण का जीवन हमेशा रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाओं से जुड़ा रहा है। उनके जीवन की प्रत्येक घटना हमें बताती है कि मानवीय जीवन में कितने उतार-चढ़ाव आते है।
कृष्ण को अपने जन्म के कुछ समय बाद ही कंस द्वारा भेजी गई राक्षसी पूतना का वध करना पड़ा। उसके बाद शकटासुर, तृणावर्त आदि कई राक्षसों का वध उन्होंने किया। कुछ समय बाद श्रीकृष्ण को गोकुल छोड़कर नंदगांव आकर वहीं पर बसना पड़ा जहां उन्होंने कई लीलाएं की जिनमें गोचारण लीला, गोवर्धन लीला व रास लीला आदि मुख्य हैं।
श्री कृष्ण के जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब उनको जरासंध से तंग आकर मथुरा को ही छोड़ना पड़ा और द्वारिका में एक नया नगर बसा कर वहीं रहना पड़ा। अनेक द्वारों का शहर होने के कारण इस नगर का नाम द्वारिका पड़ा।
श्री कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का पूरा बचपन श्रीकृष्ण के साहस और वीरता की कहानियां सुनते हुए बीता था। ऐसा कहा जाता है श्रीकृष्ण की रानियों की संख्या सोलह हजार से अधिक थीं। इनमें से ज्यादातर उनके द्वारा किसी न किसी कष्ट से मुक्त कराई गईं रानियां या राजकुमारियां थीं।
अक्रूर जी के आग्रह पर कृष्ण व बलराम मथुरा आए थे, जहां कंस ने कृष्ण के प्राणांत के लिए योजनाएं बना रखी थी। श्रीकृष्ण ने इसी दौरान अपने मामा कंस का वध किया और मथुरा वासियों को उसके आतंक से मुक्त कराया। तत्पश्चात, श्रीकृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया और जेल में बंद अपने माता-पिता को रिहा कराया। कंस वध के बाद उनके पिता वसुदेव ने दोनों भाइयों कृष्ण और बलराम को शिक्षा-दीक्षा के लिए उज्जैन स्थित सांदीपनि मुनि के आश्रम में भेज दिया। आश्रम में ही कृष्ण भगवान की मुलाकात सुदामा से हुई। कृष्ण और सुदामा की दोस्ती के किस्से काफी सुने जाते हैं।
इससे पहले, महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष में थे। इस युद्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने। 18 दिन तक चले युद्ध में जीत अंततः पांडवों की हुई।
भगवान कृष्ण महाभारत युद्ध में सारथी की भूमिका में थे। युद्ध के दौरान कृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद भगवद् गीता नामक एक ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया गया। महाभारत युद्ध के बाद जब हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया कि जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है, ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा।
कहा जाता है कि एक बार श्री कृष्ण के बेटे साम्ब ने चंचलता के प्रभाव में ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया। ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए और उन्होंने यदु वंश को नष्ट करने के लिए सांब को शाप दिया।
द्वारिका में भी लोग शक्तिशाली होने के साथ-साथ पाप और अपराध भी व्याप्त हो गए थे। अपनी प्रसन्न द्वारिका में ऐसा वातावरण देखकर श्रीकृष्ण बहुत दुखी हुए। उन्होंने अपनी प्रजा को प्रभास नदी के तट पर जाने और अपने पापों से छुटकारा पाने की सलाह दी। उसके बाद सभी लोग प्रभास नदी के तट पर चले गए लेकिन ऋषि दुर्वासा के शाप के कारण सभी लोग वहां नशे में धुत हो गए और आपस में बहस करने लगे। विवाद शुरू हुआ उनके विवाद ने एक गृहयुद्ध का रूप ले लिया, आपसी युद्ध के कारण पूरा यदुवंश नष्ट हो गया।
कहा जाता है कि चार प्रमुख व्यक्तियों ने इसमें भाग नहीं लिया, जिससे वे बच गए। ये चारों कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और वभ्रु थे। बलराम दुःखी होकर समुद्र की ओर चले गए और वहां से फिर उनका पता नहीं चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारिका से दूर जंगल की ओर चले गए और दारुक को अर्जुन के पास भेजा और उसे निर्देश दिया गया कि वह यहां से स्त्री बच्चों को हस्तिनापुर ले जाए। उस समय कुछ स्त्रियों ने जलकर प्राण दे दिए। अर्जुन आए और शेष स्त्री- बच्चों को अपने साथ ले गए।
कहा जाता है कि मार्ग में पश्चिम के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुकाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया। शेष को अर्जुन ने शाल्व देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में पहले ही चले गए थे। ऐसे ही एक दिन ’जरा’ नामक एक बहेलिये ने हिरण के भ्रम में तीर मारा। वह बाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया और नारायण के रूप में बैकुंट धाम में विराजमान हो गए।
देह त्यागने के साथ ही भगवान कृष्ण द्वारा निर्मित द्वारका नगरी भी समुद्र में विलीन हो गई और यादव कुल नष्ट हो गया। कृष्ण की मृत्यु के बाद अर्जुन ने उनका अंतिम संस्कार किया। शरीर छोड़ने समय भगवान कृष्ण 125 वर्ष के थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर युग का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ।
कृष्ण, कन्हैया, वासुदेव, मुरारी और लीलाधर के नाम से पुकारे जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण का 5252 वाँ जन्मोत्सव पूरे देशभर में हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। जन्माष्टमी पर मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण के सभी मंदिर रात भर खुले रहते हैं। इस दौरान मंदिरों में कई आयोजन किए जाते है। भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है। शास्त्रों अनुसार भगवान श्रीकृष्ण को 16 कलाओं में निपुण माना गया है। कृष्ण एक निस्वार्थ कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, एक बुद्धिमान व्यक्ति और दिव्य संसाधनों से संपन्न एक महान व्यक्ति थे ।
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