मंगलवार, 3 अगस्त 2021

एक निराले शिक्षक, सबके प्यारे शिक्षक-निमाई प्रसाद मोइत्रा

 एक निराले शिक्षक, सबके प्यारे शिक्षक-निमाई प्रसाद मोइत्रा

मथुरा। वृंदावन के निमाई प्रसाद मोइत्रा जो जनसंघ की स्थापना के दौर से ही इस संस्था के समर्पित व सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में रहे। उनकी यादें आज भी अधिकांश लोगों के जहन में हैं। मगर जिनके कारण कुछ लोग इस संगठन से जुड़े व वर्तमान राजनीति में हैं उन्होंने इस महान विभूति को भुला दिया। निमाई दादा वृन्दावन के लोगों के बड़े चहेते थे, अब वह इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके आदर्श और ईमानदारी के चरचे आज भी लोग करते हैं। लोगों को निमाई प्रसाद मोइत्रा के जीवन को जानना चाहिए कि किस प्रकार के कष्ट के साथ उन्होंने तमाम छात्रों को शिक्षित किया और हजारों छात्रों का जीवन शिक्षा देकर बनाया। 

 निमाई प्रसाद मोइत्रा को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल बी सत्य नारायण रेड्डी व्हील चेयर प्रदान करते हुए। 

निमाई प्रसाद मोइत्रा का जन्म कुलीन बंगाली ब्राहम्ण परिवार में 2 अगस्त 1937 को वर्तमान बांग्लादेश के रंगपुर जिले के कुरीग्राम में हुआ था। उनके पिता डॉ. वी. पी. मोइत्रा पेशे से डाक्टर थे उन्होंने सन् 1942 में वृन्दावन के रामकृष्ण मिशन अस्पताल में नौकरी शुरू की थी। वृन्दावन में ही नहीं उस समय एक मात्र अच्छा और बड़ा अस्पताल होने के कारण उन्हें यहां खूब यश मिला। वह असहाय और गरीब लोगों के मददगार थे, उनकी उदारता और पीड़ित मानवता की सेवा ने लोगों के मन में उनके प्रति अटूट विश्वास पैदा कर दिया। इसका एक उदाहरण यह भी है कि वृन्दावन स्थित रामकृष्ण मिशन अस्पताल ‘‘कारे बाबू अस्पताल’’ के नाम से लोकप्रिय हो गया। कारे बाबू यानी डॉ. मोइत्रा को लोग कारे बाबू के नाम से पुकारते थे। आज भी लोगों की जुबान पर रामकृष्ण मिशन अस्पताल का नाम कारे बाबू अस्पताल ही है। डॉ. मोइत्रा के गुण उनके पुत्र निमाई में भी आए होंगे। निमाई प्रसाद चार भाइयों में सबसे छोटे थे सबसे बड़े भाई कृष्ण दास जिन्होंने वैराग्य धारण किया और वृन्दावन में ही एक आश्रम में रहते हैं। दूसरे नम्बर के भाई रासबिहारी मोइत्रा जो रेलवे में सिग्नल इन्सपेक्टर के पद पर थे। तीसरे नम्बर के भाई बलराम मोइत्रा भी रेलवे में सर्विस करते थे सहायक इन्जीनियर के पद से सेवा निवृत होकर वृन्दावन के ही पैत्रक निवास में आज भी रहते है।


निमाई शुरू से ही पढाई में बहुत अच्छे थे। आगरा के आर.बी. एस. कॉलेज से एम. एस. सी. की डिग्री लेने के बाद निमाई को मथुरा के किशोरी रमण इंटर कॉलेज में अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिल गयी। निमाई प्रसाद मोइत्रा ने अपने जीवन काल में अपने हंसमुख स्वाभाव के कारण ही सभी को अपना बना लिया, जिसके कारण वृन्दावन में अपने मृदु भाषी और मिलनसार होने के चलते निमाई दादा को 1972 में नगर पालिका परिषद का सदस्य चुना गया। निमाई दादा का सामाजिक संपर्क खूब अच्छा था और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सक्रिय सदस्य होने के चलते तथा जनसंघ के शुरूआती दौर में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। सर्व समाज में अच्छी पकड़ होने और हरेक की मदद करने के कारण भी लोग उनसे काफी प्रभावित थे। उस समय पड़ोसी हो या अनजान, रात का वक्त हो या दिन का निमाई दादा जरूरतमंद के संग हर समय जाने के लिए तैयार रहते थे। रामकृष्ण मिशन अस्पताल में किसी को भर्ती कराना हो या उसके लिए अपने घर से खाना पहुंचाना हो निमाई अक्सर अपनी माँ से रोगी के लिए घर से खाना बनवा कर पहुंचाने भी जाते थे।  


निमाई प्रसाद मोइत्रा मथुरा के किशोरी रमण इन्टर कॉलेज में केमिस्ट्री के शिक्षक थे। वृंदावन से साइकिल पर चल कर 10 किलोमीटर का रास्ता तय कर वह हर रोज मथुरा आते थे। समय के इतने पाबंद थे कि कभी भी एक मिनट देरी से कॉलेज में दाखिल नहीं हुए होंगे। एक दिन वृन्दावन में मकान की छत पर कुछ कार्य करते समय निमाई दादा उपर से नीचे गिर कर घायल हो गये। किसी तरह जान तो बच गई मगर रीड़ की हड्डी चोट लगने के कारण शरीर के नीचे का आधा हिस्सा हमेशा-हमेशा के लिए बेकार हो गया। 1987 में उन्हें उपचार के लिए दिल्ली ले जाया गया था तमाम चिकित्सकों से उपचार कराया गया मगर निमाई दादा कभी स्वयं उठ कर चल फिर न सके। 


कॉलेज के उस समय के अन्य शिक्षकों ने उनकी खूब मदद की लेकिन समस्या थी कि वह कॉलेज कैसे जाएँगे। कॉलेज प्रबन्धन ने भी उनके प्रति काफी सहानुभूति दिखाते हुए एक सुझाव दिया कि हर महीने में एक बार कॉलेज का हस्ताक्षर रजिस्टर चपरासी घर ले कर जाया करेगा ताकि आप रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर दें और आपको वेतन मिल सकेगा। बिस्तर पर लेटे निमाई दादा ने इस सुझाव को मानने से इंकार कर दिया और विनती की कि कॉलेज में ही उन्हें एक कमरा दे दिया जाये, ताकि वह वहां अपना निवास बना लेंगे और व्हील चेयर पर बैठ कर कक्षा में चले जाया करेंगे। और क्लास ले लेंगे, इस अनुरोध को कॉलेज के प्रधानाचार्य ने मानकर इसकी व्यवस्था कर दी। 

निमाई प्रसाद का आधा शरीर बेकार हो चुका था। इसके बावजूद वह सात वर्षों तक मथुरा किशोरी रमण इण्टर कॉलेज में रसायन शास्त्र पढ़ाते रहे। वह स्कूल के ही कमरा नंबर पाँच में रहते थे और व्हील चेयर पर बैठकर ग्यारहवीं व बारहवीं कक्षा में पढ़ाने जाया करते थे।

असहनीय कष्टों में रहते भी निमाई दादा ने सदैव मुस्कराते हुए गुजारा उनका एक हाथ व्हील चेयर के एक पहिए पर रहता था और दूसरे हाथ में चौक का टुकड़ा लेकर ब्लेक बोर्ड पर लिखते तो दूसरे ही क्षण छात्रों की ओर मुड़ कर समझाते भी थे। कॉलेज का घंटा बजने पर निमाई दादा व्हील चेयर लेकर अपने घर यानी कमरा नंबर पांच की तरफ चले जाते थे। 

निमाई दादा के अध्यापकीय जीवन की उनकी जिम्मदारी व ईमानदारी और निष्ठा आज के अध्यापकों में शायद ही मिल पाये। हालांकि उस समय भी तमाम शिक्षक ऐसे थे जो अपनी जिम्मेदारी से शिक्षण कार्य करते हों। तमाम अव्यवस्था में डूबे इस कॉलेज के दिन कभी बदल ही नहीं पाये। उस समय के कई शिक्षक ऐसे थे, जिन्होंने कई सालों तक कोई कक्षा ही नहीं ली और वेतन बरावर लिया करते थे, उस समय भी चर्चा थी कि एक शिक्षक बिना कक्षा में गए वेतन लेते हुए रिटायर हो गए।

निमाई प्रसाद मोइत्रा के परिवार में एक पुत्र, एक पुत्री और पत्नी थे। निमाई दादा का जीवन हमेशा से कष्ट में ही बीता दुःख ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा उनके जीवन में एक बज्राघात और हो गया साधारण से बुखार में उनका 19 वर्षीय बेटा जिसकी असमय मृत्यु हो गई। कॉलेज के कमरा नंबर पांच में उनकी पत्नी उनकी सेवा करती थीं, लेकिन पुत्र की मौत ने पहले से दुःखी पत्नी को और ज्यादा दुःखी कर दिया। निमाई दादा पुरानी सुखद बातों को याद करके भले ही लोगों के बीच अपने दुःख को भुलाने प्रयास करते थे, मगर अपने दुःख को किसी के सामने प्रकट नहीं होने देते थे, इस अपार दुःख ने निमाई दादा को तोड कर रख दिया था। निमाई दादा के सबसे बड़े भाई कृष्णदास मोइत्रा शिक्षा-विभाग में कार्य करते रिटायर हुए थे। वैराग्य धारण कर साधु हो गए, भतीजे की मौत की खबर सुन इलाहाबाद से मथुरा आ गए और अपने छोटे भाई निमाई की पत्नी को वृन्दावन के मकान में समझा-बुझा कर रहने के लिए राजी कर लिया और उन्हें वहां भेज कर स्वयं निमाई के साथ जब तक किशोरी रमण इन्टर कॉलेज में व्हील चेयर पर बैठकर अध्यापन कार्य करते, कृष्णदास मोइत्रा उनके साथ रहे और छोटे भाई की सेवा करते रहे। एक सच्चे साधु की तरह से उन्होंने अपने भाई की सेवा की आज भी वह वृन्दावन में एक आश्रम में रह कर भजन करते हैं। 

मुझे भी निमाई दादा से मिलने का कई वार मौका मिला था मैं कई वार उनसे मिलने किशोरी रमण इन्टर कॉलेज के कमरा न. 5 में गया था। उनसे बातों-बातों में जब पूछा कि आप अपने जीवन की ऐसी घटना बतायें जो आपको याद हो इसके उत्तर में निमाई दादा व्हील चेयर पर बैठे अपने बेजान पैरों को देखते हैं और फिर बोलने लगते कि- एक समय था जब, मैं आगरा राजामंडी स्टेशन पर खड़ा था। मथुरा आने के लिए ट्रेन का इंतजार कर रहा था। मालूम हुआ कि ट्रेन चार घंटे लेट है। सोचा पटरी-पटरी चलूंगा तो पहुँच जाऊँगा। काफी देर इंतजार करने के वाद रेल की पटरी पर चल दिया। रेल की पटरी के दोनों ओर के दृश्यों को देखता-देखता चला आया पता ही नहीं चला कि कब मथुरा आ गया।’’ यह कहकर निमाई दादा जोर से हंस पड़े। 


बातचीत करते निमाई दादा अक्सर अपने अतीत में खो जाते थे और सोचने लगते थे कि एक जमाना वह था जब 50 कि0 मी0 की दूरी मैंने इन्हीं मजबूत पैरों से चलकर नाप दी थी और अब वक्त यह आया है कि मैं व्हील चेयर पर उम्र भर बैठे रहने को मजबूर हो गया हूँ। निमाई दादा बोले-‘‘जीवन में वह सब घटता है जिसकी हम कल्पना नहीं करते।“ 50 कि0 मी0 तक पैदल चलने वाले निमाई दादा ने कभी सोचा नहीं था कि उनके पैर इस प्रकार बेजान हो जाऐंगे और उन्हें दूसरों के सहारे जीना पडे़गा। 

लगातार बिस्तर पर लेटे-लेटे निमाई दादा के शरीर में घाव हो गए थे। खून और मवाद निकलता रहता था। ऐसी हालत में भी निमाई दादा क्लास में पढ़ाने जरूर जाते थे। निमाई मोइत्रा को कभी किसी से कोई शिकायत नहीं थी। जिन लोगों से जुड़े रहे थे उन्होंने भी मुँह मोड़ लिया था कभी किसी ने कोई सुध नहीं ली आज निमाई दादा भलेही न हों लेकिन आज भी उनके चाहने वाले उनके पढ़ाये शिष्य तो जरूर हैं जिन्हें आज भी उनकी यादें आती हैं। मगर साथ चलने वाले तथा भारतीय जनसंघ तथा आर एस एस तक में साथ रहने वाले लोगों ने उन्हें भुला दिया तथा अब वह कोई उनकी चर्चा भी नहीं करते हैं। मगर निमाई दादा ने कभी किसी की टीका टिप्पणी नहीं की।

उनके बड़े भाई बलराम मोइत्रा ने एक मुलाकात में बताया कि वह अक्सर चर्चा करते थे और कहते थे कि ‘‘शिक्षक चाहे तो आज भी छात्रों को अपना बनाकर समाज की दिशा को बदल सकता है’’। अन्तिम दिनों में वह यह कहा करते कि ‘‘अब मेरे मन में ज्यादा जीने की ललक नहीं है क्योंकि मैं अब दूसरों पर भार बन गया हूँ। लेकिन कभी कभी विचार आता है कि शरीर एक अद्भुत मशीन है। एक दुर्घटना में एक पुर्जा खराब हुआ तो क्या हुआ। मन तो नहीं मरा। आखिरी श्वांस तक छात्रों को पढ़ाता रहूं यही मेरी इच्छा है।’’


गजब की इच्छा-शक्ति लिए निमाई दादा रिटायर होने के बाद वृन्दावन में रहे। उनके भाई का परिवार उनकी सेवा करता रहा। बिस्तर पर जीवन जीने वाले निमाई दादा एकदम निश्छल, मनमोहक  मुस्कराहट के साथ वृन्दावन के लोगों के लाड़ले बन गए। उन्होंने 2010 में वृन्दावन में लगने वाले कुम्भ में ले जाने की इच्छा अपने बड़े भाई से की और कुम्भ में बड़े भाई ने स्नान कराया और उसके वाद ही निमाई दादा ने इस संसार से बिदा ले लिया था।

मैं कभी कभी सोचता हूँ कि भगवान क्यों किसी को इतना कष्ट देता है जो लागों की मदद करने को तत्पर रहता हो हजारों छात्रों के जीवन को जिसने बनाया हो उनको एक दिशा प्रदान करने वाले के साथ ऐसा क्यों हुआ कि वह जीवन भर पैरों से लाचार हो गये दूसरों के भरोसे जीने को मजबूर हो गये। धन्य है निमाई दादा! उन्होंने इसके लिए भगवान को कभी जिम्मेदार नहीं ठहराया और न कभी अपने भाग्य को कभी कोसा।

आज दुःख इस बात का है कि मथुरा-वृंदावन में जिस पार्टी व संगठन के लिए जिस व्यक्ति ने जो किया उसे उन्हीं के साथी मित्रों व तथाकथित समाजसेवियों ने उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए भुला दिया।