बुधवार, 1 सितंबर 2021

श्रील प्रभुपाद असाधारण लेखक, शिक्षक व संत थे, उन्होंने उपदेशों से कृष्ण भावनामृत को पूरी दुनिया में फैलाया

मथुरा। (सुनील शर्मा) आज कृष्णकृपा मूर्ति ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद जी का जन्मोत्सव है। उनका जन्म 1 सितंबर 1896 को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से एक दिन वाद में हुआ था, उनका जन्म कोलकाता में एक कायस्थ बंगाली परिवार में हुआ। माता पिता ने उनका नाम अभय चरण रखा, (जो निडर, व भगवान के चरणों की सदैव कृपा पात्र थे) चूंकि वह नंदोत्सव के दिन पैदा हुये थे इस लिए उन्हें नंदलाल भी कहा जाता था। उनके माता-पिता, श्रीमन गौर मोहन डे और श्रीमती रजनी डे वैष्णव (विष्णु के भक्त) थे। 

अभय चरण डे की शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध स्कॉटिश चर्च कॉलेज में यूरोपीय शैली में हुई थी, जो बंगाल में एक अच्छे कॉलेज के रूप में माना जाता था। जिसके अधिकांश प्रोफेसर यूरोपीय थे, अभय चरण शांत स्वभाव व अनुशासित छात्र के रूप में जाने जाते थे। कॉलेज उत्तरी कलकत्ता में हैरिसन रोड पर उनके घर के पास में ही था। कॉलेज में अभय चरण डे इंग्लिश के साथ-साथ संस्कृत की भी पढ़ाई करते थे, जिसके कारण ही उनकी शिक्षा ने उनके भविष्य की नींव तैयार करने में मदद की। 


उन्होंने 1920 में अंग्रेजी, दर्शन और अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। गांधीजी के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी उपाधि को अस्वीकार तक कर दिया था। जब वे 22 वर्ष के थे, तब उन्होंने राधारानी देवी से माता पिता के आदेश  से विवाह किया था। 

कलकत्ता में सन् 1922 में श्रील प्रभुपाद पहली बार अपने आध्यात्मिक गुरु, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी से मिले तब वे अभयचरण के नाम से जाने जाते थे। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने अभय चरण के भीतर विलक्ष्ण प्रतिभा को पहचान लिया था और उनसे कहा कि वे वैदिक ज्ञान की शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित करें, विशेष रूप से अंग्रेजी बोलने वाले दुनिया के लोगों के बीच जाकर भगवान चैतन्य के संदेश का प्रचार प्रसार करने के लिए कहा। हालाँकि अभयचरण ने श्रील भक्तिसिद्धांत को अपने हृदय में उनको अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप मे स्वीकार कर लिया था और सन् 1932 में उनसे दीक्षा भी प्राप्त की।


सन् 1936 में श्रील प्रभुपाद ने अपने आध्यात्मिक गुरु से अनुरोध करते हुए पत्र लिखा कि यदि कोई विशेष सेवा है जिसे वह उन्हें प्रदान कर सकते हैं। श्रील प्रभुपाद को उस पत्र का उत्तर मिला जिसमें वही निर्देश थे जो उन्हें 1922 में दिये थे, ’विश्व के अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के बीच जाकर श्रीकृष्ण भावनामृत का प्रचार प्रसार करें। इसके दो सप्ताह बाद इन अंतिम निर्देश देने के वाद उनके आध्यात्मिक गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत प्रभु चरणों में लीन हो गये। जिसने श्रील प्रभुपाद के हृदय को इतना प्रभावित किया। कि गुरू के निर्देश को श्रील प्रभुपाद ने जीवन का लक्ष्य मान लिया।

श्रील प्रभुपाद ने भगवद्गीता पर टिप्पणी लिखी और अपने कामों से गौड़ीय मठ की सहायता की। सन् 1944 में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब कागज दुर्लभ था और लोगों के पास खर्च करने के लिए बहुत कम पैसे थे, श्रील प्रभुपाद ने “बैक टू गॉडहेड” नामक एक पत्रिका शुरू की। सिर्फ़ प्रभुपाद जी अकेले ही रचना को लिखते, संपादित करते, देख-रेख करते, प्रूफ-रीड करते और स्वयं उसकी प्रतियां बेचते। यह पत्रिका आज भी प्रकाशित हो रही है।

इस प्रकार घर और पारिवारिक जीवन से निवृत्त होकर, अपने अध्ययन में अधिक समय देने के लिए सन् 1950 में श्रील प्रभुपाद ने वानप्रस्थ (ग्रहस्थ जीवन से निवृत्त) जीवन को अपनाया। सन् 1953 में उन्होंने अपने गुरुभाई से भक्तिवेदांत की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने वृंदावन की यात्रा की, जहांपर वे राधा-दामोदर मंदिर में बहुत लम्बे समय तक रहे। उन्होंने यहाँ कई सालों तक रह कर शास्त्रों का अध्ययन और लेखनकार्य किया।


प्रभुपाद जी का मथुरा और वृन्दावन से गहरा सम्बन्ध रहा है वह मथुरा में होलीगेट के वाहर गौड़ीय मठ में रहा करते थे। गौड़ीय मठ के स्वामी नारायण महाराज उनके समकक्ष व गुरू भाई भी थे, जिसके कारण अक्सर यहां आकर रूकते थे और यहां गन्थ लिखने और अध्ययन का कार्य किया करते थे। उन्होंने गौड़ीय पत्रिका का संम्पादन कार्य भी यहीं पर रह कर किया। सितंबर 1959 में अपनी यात्रा के दौरान पहली वार उन्होंने अभय बाबू के रूप में इसी स्थान पर एक सफेद कपड़े पहने इस मठ के दरवाजे में प्रवेश किया था। लेकिन कुछ समय के पश्चात उन्होंने वैष्णव त्यागी (संन्यासी) के रूप में भगवा पोशाक धारण कर लिया। उन्होंने अपने मित्र और धर्मगुरु भक्ति प्रज्ञाना केशव जी से ग्रहस्थ त्याग की शपथ ली और सन्यासी बन गये। 

उन्होंने अकेले ही भागवत पुराण के सत्रह अध्याय का पहला पुस्तक प्रकाशित किया, जिसमें प्रत्येक में चार सौ पृष्ठों के तीन खंड थे, जो एक विस्तृत टिप्पणी से समृद्ध थे। पहले खंड का परिचय चैतन्य महाप्रभु की जीवनी रेखाचित्र के साथ प्रकाशित की। फिर उन्होंने दुनिया भर में चैतन्य महाप्रभु के संदेश को फैलाने के लिए अपने आध्यात्मिक गुरु के निर्देश का पालन करने के उद्देश्य और उसी आशा के साथ, जलादुत नामक सिंधिया लाइन का मालवाहक पर जलमार्ग से होते हुए भारत छोड़ दिया। उस समय उनके पास में एक सूटकेस, एक छाता, सूखे अनाज, तथा लगभग आठ डॉलर मूल्य की भारतीय मुद्रा और किताबों के कई बक्से थे, जिसके साथ वह अमेरिका रवाना हुये थे। 


5 अप्रैल 1998 को अटल बिहारी वाजपेयी जी कहा था कि- 

‘‘यदि आज भगवद गीता लाखों प्रतियों में भारतीय भाषाओं में छपी है और दुनिया के सभी कोनों-कोनों में वितरित की जाती हैं, तो इस महान पवित्र सेवा का श्रेय मुख्यतः इस्कॉन को जाता है।... केवल इसी एक उपलब्धि के लिए भारतीयों को स्वामी प्रभुपाद के अनुयायियों की समर्पित आध्यात्मिक आन्दोलन के प्रति सदा आभारी रहना चाहिए। 1965 में संयुक्त राज्य अमेरिका में भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की यात्रा और बारह वर्षों के बहुत ही कम समय में उनके आंदोलन ने जो शानदार लोकप्रियता हासिल की, उसे सदी की सबसे बड़ी आध्यात्मिक घटनाओं में से एक माना जाना चाहिए’’। -  अटल बिहारी वाजपेयी।

श्रील प्रभुपाद का जन्म अभय चरण डे के रूप में अवश्य हुआ लेकिन, वह एक भारतीय आध्यात्मिक गुरू और अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संस्था के संस्थापक-आचार्य (गुरु) थे। सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन), जिसे आमतौर पर “हरे कृष्ण आंदोलन“ के रूप में जाना जाता है। आज विश्व के लोग इस्कॉन आंदोलन के संस्थापक श्रील भक्तिवेदांत स्वामी को कृष्ण चैतन्य के प्रतिनिधि और दूत के रूप में देखते हैं।

उन्होंने लम्बा समय वृन्दावन में रह कर विताया।


सन् 1959 में उन्होंने संन्यास लेकर सन्यासी जीवन को अपनाया। यह तब की बात थी, जब वे राधा-दामोदर मंदिर में थे, उन्होंने अपनी कृतिः अंग्रेजी में श्रीमद्-भागवताम का अनुवाद और टिप्पणी शुरू की। उन्होंने “अन्य ग्रहों की सुगम यात्रा” भी लिखी। उन्होंने कुछ वर्षों के भीतर ही श्रीमद्-भागवताम के प्रथम स्कन्द का तीन खंडों में अंग्रेजी अनुवाद और तात्पर्य लिखा। एक बार फिर से अकेले ही, उन्होंने ग्रंथो को छापने के लिए, कागज खरीदा और धन इकट्ठा किया। उन्होंने भारत के बड़े शहरों में स्वयं तथा एजेंटों के माध्यम से उन ग्रंथो को बेचा।

जब उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेशों को पूरा करने के लिए अपने को तैयार किया और श्रीकृष्ण भावनामृत के संदेश को लेकर अमेरिका के लिए जाने फैसला किया। यह आश्वस्त किया कि अन्य देश इसके लिए अनुकूल है या नहीं। एक समुद्री मालवाहक जहाज जिसे जलदूत कहा जाता है, पर निःशुल्क जलमार्ग से यात्रा करके अंततः वे 1965 में न्यूयॉर्क पहुंच गये। वे 69 वर्ष के थे और व्यावहारिक रूप से वे धनी नहीं थे। उनके पास श्रीमद्-भागवतम की कुछ प्रतियां और कुछ सौ रुपये थे। उन्हें बहुत मुश्किलो का सामना करना पड़ा था। दो बार दिल के दौरे पड़े थे और एक बार न्यूयॉर्क पहुंचने के बाद उन्हें पता नहीं था कि किस रास्ते पर जांए। मुश्किल से छह महीने के बाद, यहाँ वहाँ प्रचार करते रहे, उनके कुछ अनुयायियों ने मैनहट्टन में एक स्टोरफ्रंट और अपार्टमेंट किराए पर लिया। यहाँ पर वे नियमित रूप से प्रवचन, कीर्तन और प्रसाद वितरित किया करते थे। उस समय हिप्पियों का चलन था वह व वहां जीवन व्यतीत करने वाले वह सभी लोग जो वहां की जीवन पद्धति व जीवन शैली से निराश व हताश लोग जो उस खोए हुए जीवन तत्व की तलाश में इधर खिंचे चले आये और अनेक लोग  ’स्वामीजी को’ अनुसरण करने लगे।


धीरे-धीरे लोग उनके प्रति अधिक गंभीर होते गए, श्रील प्रभुपाद के अनुयायी पार्कों में नियमित रूप से कीर्तनों का आयोजन करने लगे थे। प्रवचन और प्रत्येक रविवार को दावत के लिए वह तेज़ी से प्रसिद्ध हो गए। उस समय वहां के युवा अनुयायियों ने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा लेना प्रारम्भ कर दिया, जो वैदिक व वैष्णव सिद्धांतों का पालन करने का वादा करते थे और प्रतिदिन हरे कृष्ण महामंत्र का 16 माला जाप करते थे। 

जुलाई 1966 में, श्रील प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ-इस्कॉन की स्थापना की। उनका उद्देश्य इस संघ के द्वारा दुनिया भर में कृष्ण भावनामृत को बढ़ावा देना था। 1967 में, उन्होंने सैन फ्रांसिस्को का दौरा किया और वहां एक इस्कॉन समाज की शुरुआत की। फिर उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के संदेश को फैलाने के लिए मॉन्ट्रियल, बोस्टन, लंदन, बर्लिन और उत्तरी अमेरिका, भारत और यूरोप के अन्य शहरों में नए केंद्र खोलने के लिए दुनिया भर में अपने शिष्यों को भेजा। भारत में, शुरुआत में तीन भव्य मंदिरों की योजना बनाई गई थी। सर्वप्रथम श्री धाम वृंदावन में कृष्ण बलराम मंदिर जिसमें सभी नियमित पूजा सेवा के साथ-साथ अन्य सुविधाएं भी थीं। बॉम्बे में एक शैक्षणिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में मंदिर और श्रीधाम मायापुर, नवद्वीप, पश्चिम बंगाल में वैदिक तारामंडल के साथ एक विशाल मंदिर की स्थापना की गई।


श्रील प्रभुपाद ने अगले ग्यारह वर्षों के भीतर भारत में लिखित अपनी सभी ग्रंथो को प्रकाशित किया। श्रील प्रभुपाद बहुत कम समय के लिए निद्रा लेते थे और वे सुबह का समय लिखने में बिताते थे। प्रभुपाद जी लगभग 1ः30 और 4ः30 बजे के बीच रोजाना (दैनिक) लिखते थे। उन्होंने बोलकर लिखाना शुरू किया, जिसे उनके शिष्यों ने टाइप और संपादित किया। श्रील प्रभुपाद मूल श्लोकों का संस्कृत या बांगला से शब्दशः अनुवाद करते और टीका करते थे।

उनकी रचनाओं में भगवद्गीता यथारूप, अनेक खंडों में श्रीमद्-भागवताम, अनेक खंडों में चैतन्य-चरितामृत, श्रीउपदेशामृत, कृष्णः भगवान, चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएँ, कपिलदेव की शिक्षाएँ, महारानी कुंती की शिक्षाएँ, श्री इशोपनिषद, श्री उपदेशामृत और अन्य दर्जनों छोटी पुस्तकें शामिल हैं।

उनके लेखन का पचास से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। सन् 1972 में कृष्ण कृपामूर्ति के कार्यों को प्रकाशित करने के लिए “भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट” स्थापित किया गया। आगे चलकर यह ट्रस्ट वैदिक धर्मग्रंथो और दर्शन के क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाशक बन गया।


लेखन के व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद भी श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण भावनमृत के प्रचार कार्यों को लेखन के कार्यों के बीच में कभी आने नहीं दिया। केवल बारह वर्षों में अपनी लंबी आयु के बावजूद भी उन्होंने चौदह बार विश्व की परिक्रमा की, उनकी यह यात्रा प्रवचनों के लिए उनको छह महाद्वीपों तक ले गई।

जब तक कि वे इस दुनिया से चले नहीं गए उनके दिन लेखन के कार्यों, अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन और जनता को सिखाने से और संघ का विस्तार करने से जुड़े कार्यक्रमों में व्यस्त रहते थे। इस संसार से विदा होने से पहले श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को उनके दिशा निर्देशों पर चलने और दुनिया भर में कृष्ण भक्ति के प्रचार और प्रसार को जारी रखने के लिए कई निर्देश दिए थे।

उन्हें एक करिश्माई नेता के रूप में माना जा सकता है जिन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और भारत सहित कई देशों में अनुयायियों को वैष्णव बनाने में सफल हुए। उनका मिशन दुनिया भर में गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय का प्रचार प्रसार करना था, वैष्णव हिंदू धर्म को विश्व के कौने-कौने में पहुंचाने का मार्ग जो उन्हें उनके गुरु भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने दिया था। 1977 में उनकी मृत्यु के बाद, उनके द्वारा स्थापित इस्कॉन, जिस संस्था की स्थापना उन्होंने हिंदू कृष्णवाद के रूप पर आधार बना कर की थी, वह भागवत पुराण को केंद्रीय ग्रंथ के रूप में इस्तेमाल कर रहा है, तथा निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। फरवरी 2014 में, इस्कॉन की समाचार एजेंसी ने 1965 से उनकी आधी अरब से अधिक पुस्तकों को वितरित करने के लक्ष्य को पूरा किया है। श्रीमद् भगवद गीता पर उनका अनुवाद और टिप्पणी, जिसका शीर्षक भगवद-गीता जैसा ही है, इस्कॉन के अनुयायियों और कई वैदिक विद्वानों द्वारा माना जाता है कि वैष्णव साहित्यिक कृतियों के बेहतरीन, वास्तविक अनुवाद के रूप में माना जाता है। 


उन्होंने 14 नवंबर 1977 को इस असार संसार को छोड़ दिया था। भक्तिवेदांत स्वामी का 14 नवंबर 1977 को 81 वर्ष की आयु में वृंदावन, मथुरा में निधन हो गया था। उनके पार्थिव शरीर को वृंदावन के श्रीकृष्ण बलराम मंदिर में समाधिष्ठ किया गया है।  उन्होंने थोड़ा समय ही पश्चिम में बिताया। उन्होंने लगातार कृष्ण नाम का प्रचार किया, विश्व में लगभग 108 मंदिरों की स्थापना की, दिव्य ग्रंथो के साठ से अधिक खंड लिखे, पांच हजार शिष्यों को दीक्षित किया, भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना की, एक वैज्ञानिक अकादमी (भक्तिवेदांत इंस्टीट्यूट) शुरू किया और इस्कॉन से संबंधित अन्य ट्रस्ट भी बनाये हैं।

श्रील प्रभुपाद एक असाधारण लेखक, शिक्षक और संत थे। वे अपने लेखन और उपदेशों के माध्यम से कृष्ण भावनामृत को पूरी दुनिया में फैलाने में कामयाब रहे। उनके लेखन कई भागों में शामिल हैं और उनके यह लेखन न केवल उनके शिष्यों के लिए बल्कि आने वाले भावी पीढ़ी के शिष्यों के लिए, गुरु परम्परा से जुड़े सदस्यों के लिए और बड़े पैमाने पर आम जनता के लिए कृष्ण भावनामृत के आधार के रूप में हैं।

उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय मथुरा और वृन्दावन में अन्तिम दिनों तक सन् 1977 तक व्यतीत किया है उनको विनम्र श्रद्धांजलि नमन करते हुए।

-(सुनील शर्मा)