सोमवार, 1 अगस्त 2011

आपातकाल में पूरा देश व्यवस्थित सा दिखने लगा था।

किसी ने सही कहा कि आपातकाल में पूरा देश व्यवस्थित सा दिखने लगा था। अधिकारी कर्मचारी सही समय व सही कार्य करने के लिये विवश हो गये थे। मगर कुछ गलतियां तो हुंई वह नीचे स्तर पर आपातकाल लगाने के पीछे की मंशा मेरे हिसाव से ठीक थी । आज जो हालात देखने को मिल रहे हैं उसमें न तो आम आदमी के काम सही ढंग से हो पा रहे हैं न ही खान पान की वस्तुएं शुद्ध हैं। और न ही शुद्ध हवा है न शुद्ध पानी पीने को मिल रहा है दूध भी जो सबसे महत्व पूर्ण वस्तु है वह भी शुद्ध नही है । हम कह सकते है कि जिससे हमारी पीढी को मजबूती मिलेगी वह भी शुद्ध नही है शिक्षा के क्षेत्र में क्या हो रहा है हर तरफ देखिये आपको भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार दिखाई देगा कल तक जिनके पास कुछ भी नही था वह अव करोड़ो अरबों में खेल रहे हैं आखिर कैसे और कहां से आ रही है यह अफरात दौलत। देश का हर नेता आज अरबों खरबों में खेल रहा है। चुनावों में प्रत्याशियों से सम्पत्ति का ब्यौरा तो मांगा जाता है पर चुनाव आयोग प्रत्याशियों से आय के श्रौत के बारे में क्यों नहीं पूछता है।
हमारे हिसाव से देश से भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये पुलिस का राष्ट्रीय करण जरूरी हो गया है एक प्रान्त की पुलिस को दूसरे प्रान्तों मे भेजा जाना चाहिये। इससे भ्रष्टाचार को समाप्त करने कुछ हद तक मदद मिलेगी।

सैंकड़ो शिक्षक ले रहे हैं घर बैठे वेतन

मथुरा में सर्व शिक्षा अभियान बना वरदान
सैंकड़ो शिक्षक ले रहे हैं घर बैठे वेतन
’मथुरा, ज्यौ -ज्यौ दवा की त्यौ-त्यौ मर्ज बढता गया’ यह पक्तियां जनपद मैं सरकारी सर्व शिक्षा अभियान पर सटीक साबित हो रही हैं। जहां शिक्षा विभाग और सत्ता धारी नेताओं की मैहरबानी से सैकड़ों शिक्षक घर बैठे वेतन प्राप्त कर रहे है। तो कहीं-कहीं चंद छात्रो पर शिक्षकों की फौज तैनात कर दी गयी है।
’सब पढें सब बढे’ं नारे के साथ चलाया जा रहा सर्व शिक्षा अभियान अरबों की राशि खर्च करने के बाबजूद भी जनपद में कहीं भी गति पकड़ता नजर नहीं आ रहा है। बड़े पैमाने पर शिक्षकों की भर्ती होने एवं उन्है विद्यालयों में तैनात किये जाने के बाबजूद भी ना तो प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों के दर्शन हो रहे है और न ही शिक्षकों की अनुपस्थिति के चलते बच्चे नजर आ रहे है। जानकार सूत्रो का कहना है कि बेसिक शिक्षा विभाग के अफसरों की सांठ-गांठ से दो से पांच हजार प्रतिमाह सुविधा शुल्क लेकर अनुपस्थित शिक्षकों को उपस्थित दर्शाकर घर बैठे वेतन दिला दिया जाता है तो वहीें दूरस्थ विद्यालयों में तैनात शिक्षकों को घर के नजदीक ही 25 से लेकर 50 हजार तक सुविधा शुल्क लेकर तैनात कर दिया जाता हैं। जो कभी विद्यालय आना भी उचित नहीं समझते हैं। जब कि उन्है विद्यालय निर्माण एवं कक्षा-कक्ष निर्माण की जिम्मेदारी तो सौंप दी जाती है। लेकिन जनगणना, पल्स पोलियों, मतदाता सूची पुर्नरीक्षण सहित अन्य सरकारी कामकाज से मुक्त कर दिये जाते हैं। गत दिनों ग्राम प्रधानो द्वारा शिक्षकों एवं शिक्षा विभाग के अफसरों के खिलाफ मोर्चा खोला गया तो जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी राजू राणा ने शख्थी दिखाते हुये कई ब्लाकों के सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारियों पर गाज गिरा दी गई। जिससे शिक्षकों में हड़कम्प मच गया। लेकिन उन्होने विद्यालायों में उपस्थित दर्ज कराने के स्थान पर अपने को बीमार दर्शाकर मैडीकल जमा करा दिये।सूत्रों का कहना है कि सर्वशिक्षा अभियान की सबसे अधिक दुर्दशा जनपद के सबसे दूरस्थ नौहझील ब्लाक की है जहां बमुश्किल 20 प्रतिशत शिक्षक ही विद्यालयों में उपस्थित हो रहे है। जब कि 80 प्रतिशत शिक्षक रिकार्ड में तो उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। लेकिन विद्यालयों में जनता और बच्चों को काफी समय से नजर नहीं आ रहे हैं। इसी तरह छाता ब्लाक के अलवायी प्रा0 विद्यालय की शिक्षका आरती सारस्वत, नगला सिरौली की कीर्ति गुप्ता, रेनू वर्मा मथुरा ब्लाक के नगला काशी मे कार्यरत शिक्षका दीपा तौमर के जुलाई 09 से लगातार अनुपस्थित रहने पर तमाम चेतावनी को नजर अन्दाज करने पर बी एस ए राजू राणा ने निलाम्बित कर दिया है और बर्खास्त करने की चेतावनी दी है। लेकिन इसके बाबजूद भी सर्व शिक्षा अभियान में दूर-दूर तक सुधार नजर नहीं आ रहा है। बताया जाता है कि शिक्षा विभाग द्वारा दूरस्थ स्थानों से शिक्षकों को हटाकर हाइवे स्थित विद्यालयों में चन्द छात्रों पर ही शिक्षकों की फौज तैनात कर दी है। जों अफसरों के दौरे के समय ही नजर आते है। जब कि दूरस्थ विद्यालयों में बड़ी संख्या में बच्चों की उपस्थिति होने के बाबजूद भी शिक्षक दिखाई नहीं दे रहें है। मडुआका के प्रधान कुंवर सिंह एड0 सुरीर के प्रधान रघुनाथ सिंह एड0, बाघर्रा के प्रधान मुकेश भारद्वाज, शुशील शर्मा कहते है कि सर्वशिक्षा अभियान के नाम पर अफसर लूट करने में लगे हुये है। जिनकी सांठ गांठ से शिक्षक विद्यालयों में न आकर घर बैठे वेतन प्राप्त कर रहे है। जिससे प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयांे में शिक्षा की हालत दयनीय बनी हुई है।

यमुना के बिना कैसे होगी मुक्ति

यमुना के बिना कैसे होगी मुक्ति

सुनील शर्मा 
मथुरा। मोक्ष की प्राप्ति और मृत आत्माओं की शान्ति के लिये यमुना किनारे शवों के दाह संस्कार की परम्परा आदि काल से चली आ रही है। लेकिन आज इन मृत आत्माओं के शरीर की दाहक्रिया किये जाने के वाद अवशेषों के लिये यमुना जल भी नसीब नहीं हो रहा है। यमुना नदी में शहर के गंदे नाले तो जाकर मिल सकते है लेकिन मृत आत्माओं के शरीर के अवशेष यमुना में नही जा सकते है। इन आत्माओं की शान्ति के लिए पुनः किसी भागीरथ जैसे के आने की आवश्यकता है जो कि मोक्षधाम के आस-पास इकट्ठा हो रहे मृत शरीर के अवशेषों के लिये यमुना को यहां तक ला सके।

राजा सगर के 60 हजार पुत्रों की मुक्ति के लिये भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर अवतरित किया जिसके कारण उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्थ हो सका, वहीं आज तक यमुना हमारे जीवन और संस्कृति का अंग है। लेकिन जहां मथुरा भी धार्मिक स्थानों में से एक है जहां यदि किसी की मृत्यु हो जाती है और उसे यमुना नदी का जल मिल जाय तो उसकी पूर्ण मुक्ति मानी जाती है। नारद पुराण के अनुसार ‘‘अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, ह्यवन्तिका, पुरी, द्वारावती, चैव सप्तैता मोक्षदायिका’’ भारत की सात मोक्ष दायिनी पुरियों में से मथुरा भी एक पुरी मानी गयी है। जिसका आम जनमानस में बड़ा महत्व हैं। लेकिन शहर के बीचों-बीच बने दो शवदाह गृह ऐसे हैं। जिनमें अब तक लाखों मृत शरीरों को जलाया जा चुका होगा। लेकिन मजबूरी में परिवारी जन अपने इष्ट मित्र परिजनों आत्मीय जनों की दाह क्रिया तो करते है लेकिन दाह क्रिया के बाद क्या उनके शरीर के बचे अवशेष यमुना नदी में प्रवाहित कर पाते हैं। यह कोई न तो सोचता है न ही देखता है।

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मान्यता है कि मृत शरीर की दाह क्रिया के बाद बचे अवशेष को निकट नदी में प्रवाहित किया जाय तभी मृत आत्मा को मुक्ति मिल पाती है। लेकिन आज तक लाखों आत्माएं मुक्ति की बाट जोह रही है शायद इन्हें मुक्ति नहीं मिली हो क्योंकि इनके अवशेषों को यमुना नदी में तो बहाया ही नहीं जाता है।
करोंड़ों रुपया खर्च करने के बाद नगर के धन्नासेठों ने पुण्यलाभ की कामना से मोक्षधाम का निर्माण तो कराया लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया कि मृत शरीर के अवशेष यमुना तक कैसे पहुंचेंगे। न ही यमुना इनके निकट आ सकती है ओर न ही मोक्षधाम यमुना के निकट जा सकता है। मोक्षधाम व यमुना के बीच भी यमुना में सौन्दर्यीकरण के नाम पर लाखों वृक्ष तो लगाये गये हैं लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि इन मृत आत्माओं के शरीर के अवशेष यमुना नदी तक कैसे जायेंगे। मोक्षधाम के पीछे की जमीन किसी की निजी सम्पत्ति बताई जाती है या इस पर भी अतिक्रमण किया गया है, वह अपनी जमीन से किसी प्रकार की नाली को यमुना तक नहीं निकालने देता है। इससे अवशेषों को किसी तरह से भी यमुना में प्रवाहित नहीं किया जा सकता है। 

आज स्थिति यह है कि मोक्षधाम के नीचे से मथुरा की पंचकोसी परिक्रमा का मार्ग भी है या तो परिक्रमा मोक्षधाम के अन्दर से होकर जाती है या मोक्षधाम के नीचे से जाती है। मोक्षधाम में जलने वाले शवों के अवशेष इसी सड़क पर या उससे आगे बनाये गये छोटे से गड्डे में जाकर जमा हो रहे हैं। परिक्रमाथियों को इन्हीं अवशेषों के उपर से होकर गुजरना पड़ता है। मोक्षधाम से एक नाली के जरिये इन अवशेषों को इसी गड्डे में जमा किया जा रहा है। लेकिन मोक्षधाम में जलाई जाने वाली चिताओं की अग्नि शान्त होने पर न तो यमुना का जल ही मिल रहा है न ही यह अवशेषों को यमुना तक ले जाने कोई व्यवस्था की गई है।
हजारों लाखों की संख्या में ब्रज में मरने वाले मुक्ति के लिये भटक रहे है उनके मृत शरीर के अवशेष यमुना में मिलने को तड़फ रहे है तथा परिवारीजनों के मन में हमेशा मलाल ही रहता है, कि उनके परिजनों व आत्मीयजनों को यमुना का जल नहीं मिल पा रहा है। आज यमुना नदी की स्थिति क्या है यह किसी से छुपी नही है। इसमें शहर का गंदा पानी, नालों का पानी, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से गिर सकता है, मिल सकता है, लेकिन शवदाह गृहों में मृत शरीर के अवशेष को यमुना में नहीं बहाया जा सकता है।

यमुना नदी नहीं है यह मोक्ष दायिनी है ऐसा मन में भाव लिए गांव देहात से लोग यमुना पल्लीपार, यहां तक कि हाथरस जनपद तक से लोग अपने परिजनों को यमुना नदी के जल के किनारे दाहक्रिया करने के लिए मथुरा तक आते हैं। यही कारण है कि पुराने शहर यानी चौक बाजार या उसके आसपास के लोग भी दूसरे शमशान स्थल नये पुल के पास आज भी जाते हैं क्यों कि वहां यमुना का किनारा नजदीक होने के चलते अपने प्रियजनों की दाह क्रिया को करना उचित मानते हैं।

मोक्षधाम स्थल पर ही इस पर चर्चा करते हुए भागवताचार्य विष्णु आचार्य ‘‘विराट’’ ने कहा कि किस प्रकार से इन अवशेषों की दुर्गति हो रही है, इसके लिए कुछ किये जाने की आवश्यकता है।
वहीं कथा वाचक रमाकान्त गोस्वामी ने कहा कि ब्रज में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है यह तो यहीं की रज में मिल जायेंगे। उनका भाव ऐसा था।
दूसरी तरफ हिन्दूवादी नेता गोपेश्वर नाथ चतुर्वेदी ने कहा कि इस प्रकार का दृश्य देखकर कष्ट होता है जल्द इसके लिए सार्थक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। मोक्षधाम से यमुना नदी तक के लिए एक पाइप लाइन डाल कर इन अवशेषों को यमुना तक पहुंचाया जा सकता है।
शमशान घाट पर उपस्थित सभी उपस्थित लोगों का भाव यही था कि मृत आत्माओं की मुक्ति के लिए उनके शरीर के अवशेषों को सद्गति के लिए यमुना जल तो मिलना ही चाहिए।
कैसे होगी ब्रजवासियों की मुक्ति कौन पुनः भागीरथ की तरह आयेगा और इन मृत आत्माओं की मुक्ति के लिये यमुना को यहां तक लायेगा। यमुना के बिना कैसे होगी इन मृत आत्माओं की मुक्ति।

‘‘ब्रज और गोपिन के रखबारे गिरिराज हमारे’’

मथुरा से सुनील शर्मा

यह गोवर्धन पूजा किसने की ?
जिसने इन्द्र लोक को भयशून्य बनाया, सिसने उस पूतना का वध किया, तृणावर्त का मर्दन किया, जोड़वाँ अर्जुन के वक्षों को जड़ से उखाड़ दिया, धेनुकासुर का वध किया, कालियानाग का दमन किया, धेनुकासुर एवं प्रलम्बासुर का विनाश किया और दो बार दावागिं का पान किया उसी ने यह पूजा शुरू की है।

‘‘ब्रज और गोपिन के रखबारे गिरिराज हमारे’’
(सुनील शर्मा)
दीपावली के पाँच पर्व जिसमें धनतेरस, नरक चौदस,दीपावली, गोवर्धन पूजा और यम द्वितीया का पर्व तो घर घर में मनाये जाते हैं। लेकिन ब्रजभूमि में गोर्वधन पूजा पर्व का सर्वाधिक महत्व माना जाता है ब्रज में दीपावली से अधिक गोवर्धन पूजा के दिन साज सज्जा की जाती है। जगह-जगह सार्वजनिक स्थानों पर बडे़ बडे़ गोवर्धन बनाये जाते हैं। साथही यह परम्परा हर घर में भी निभाई जाती है। इस लिये दीपावली को जहां दुलहन के रूप में कल्पना की गई है वहीं गिरिराज गोवर्धन को वर के रूप में चित्रित किया गया है।
‘‘गिरिराज बन्यों दूल्है और दुल्हन दिवारी है’’।
गिरिराज गोवर्धन की महत्ता का कारण है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र का दर्प दमन कर गिरिराज गोवर्धन पर्वत को अपनी कन्नी अंगुली पर छत्र की तरह धारण किया था और गिरिराज गोवर्धन की पूजा प्रारम्भ की उसी परम्परा में आज भी दीपावली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा का पर्व श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार पहले ब्रज में इन्द्र की पूजा प्रचलित थी और समस्त ब्रजवासी उसकी पूजा किया करते थे। बाल गोपाल श्री कृष्ण के कहने पर ब्रजवासियों ने इन्द्र की पूजा छोड़कर गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी थी इससे इन्द्र कुपित हो गया और उसने समूचे ब्रजवासियों को अपनी पूजा करने को कहा अन्यथा नाश कर देने की बात कही इन्द्र की इस घोषणा से घबराये ब्रजवासियों से गोपाल ने कहा कि भय और आतंक की पूजा न करके प्रेम की पूजा करो, जिसकी वजह से हमारी फसलें हमारे पशुधन, हमारा सर्वस्व नष्ट हो जाएं तो उसकी पूजा क्यों की जाये।
गोपाल की यह बात ब्रजवासियों को समझ में आ गई और उन्होंने गोपाल के कहने पर गिरिराज गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे सारा ब्रज गिरिराज की गोद में समा गया हो।
इससे इन्द्र का कोप और बढ़ गया आकाश में नगाड़े बजने लगे, उसने गोवर्धन के उपासकों को नष्ट भ्रष्ट करने की ठान ली, प्रलयकारी वज्र कड़कने लगे ब्रज के ऊपर गरजने लगे। घनघोर घटाओं ने दिन को रात में बदल दिया। मेघों की गर्जना से ब्रज में आतंक की आंधी आ गई। बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी होने लगे। गऊएं रक्षा के लिए पुकारने लगीं। बाल-गोपाल, नर-नारी आंखे मंूद कर अपने अंतिम क्षणों की प्रतीक्षा करने लगे। उस समय सभी लोग ‘‘हे-गोपाल, हे गोपाल’’ जपने लगे। माता यशोदा का हृदय भी फटने जैसा होने लगा। सभी लोग उस समय गोपाल की ओर टकटकी लगाए निरीह भाव से देखने लगे।
पलभर में निहत्था गोपाल उठकर खड़ा हो गया। यकायक धरती कांपने लगी लोग गिरने, पड़ने लगे, पर्वत ऊपर उठने लगा। जैकारा लगा ‘‘गिरिराज धरण की जय’’। कान्हा की नन्हीं सी अंगुली पर गिरिराज पर्वत था। इस घड़ी की तो प्रतीक्षा सभी को थी। युग-युग का संकल्प पूरा हुआ। देवकी गर्म-संभूत यशोदा नंदन ने गिरिराज को छत्र की तरह धारण कर लिया और इन्द्र के कोप से ब्रज-वसुन्धरा को जल प्लावन से बचा लिया।
गोवर्धन पूजा के दिन ब्र्रज के प्रत्येक घर में अन्नकूट का आयोजन किया जाता है। बल्लभकुल सम्प्रदाय के मंदिरों में अन्नकूट को अत्यन्त वृहद और भव्य रूप में मनाने की परम्परा है। इसकी तैयारियां विजया दशमी के दिन से प्रारंभ हो जाती है। 21 दिनों तक लगातार अनेकों स्वादिष्ट व्यंजन बना कर तैयार कर लिये जाते हैं और इस दिन गिरिराज महाराज का छप्पनों व्यंजनों से भोग लगाया जाता है। बाद में इस प्रसाद को भक्तों में वितरित भी किया जाता है।
प्रत्येक पूर्णिमा और गुरूपूर्णिमा पर लाखों भक्त देश विदेश से यहां आकर अपना मनोरथ पुरा करते हैं। सात कोस के इस परिक्रमा मार्ग में कैसे दस पन्द्रह लाख लोग अटते खटते है यह गिरिराज ही जानें नंगे पाँव, दंडौती लगाकर अपनी अपनी सामर्थ के अनुसार परिक्रमा को पूरा करते हैं। हर जगह हर पगडन्ड़ी हर पुल पुलिया, सात कोस की परिक्रमा मार्ग में इंच इंच भूमि गिरिराज मयी हो जाती है। पैर सूज जाते हैं फफोले पड़ जाते हैं परन्तु तीव्र गति लिये लोग अपनी परिक्रमा को पूरा करते हैं। भूख प्यास का भी ख्याल तक नहीं रहता है परिक्रमा पूरी करने पर ही कुछ देखा जायेगा। ऐसा भाव, इतनी आस्था का भाव लिये बस अपनी अपनी परिक्रमा पूरी करने की इच्छा सबको रहती है।
‘‘सवै भूमि गोपाल की आमें अटक कहां
जाके मन में अटक है सोई अटक जाय’’
महाप्रभु बल्लभाचार्य ने गोवर्धन धारी श्रीनाथ जी के विग्रह को अपना आराध्य बनाया चैतन्य महाप्रभु और उनके पार्षद रूप जीव और सनातन गोस्वामियों ने बंगाल से यहां तक का फासला भाव विहवल होकर नाचते गाते पूरा किया था। चंड़ीदास और मैथिल कोकिल विम्वापति को भी इसी भाव ने मोहित किया। जयदेव की बासुरी भी इसी भाव में घुली मिली। इस ब्रज भाव ने रसखान जैसे विजातीय को भी श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त बना दिया। सूरदास सहित अष्ट छाप कवियों ने अपनी अष्टवीणा वादन से भगवान की स्तुति की उसके स्वर विदेशों तक में गूँजे। अहिन्दी भाषी विद्वान आज भी ब्रज साहित्य पर शोध करने के लिए यहां आते हैं। उर्दू
लेखक शायरों ने भी इसी भाव से लहरें ली हैं। अंग्रेज कलक्टर एफ.एस.ग्राउज ने भी समूचा ब्रज खंगाल ड़ाला था।

ताज महल सात लाख रुपयों में नीलाम हुआ था मथुरा के सेठ ने खरीदा था

मथुरा (सुनील शर्मा) विश्व प्रसिद्ध व शाहजांह व मुमताज के प्रेम की निशानी ताज महल की नीलामी सात लाख रुपयों में की गई थी। मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन ने इसे खरीदा था। तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने अपने शासन काल में आगरा के अनेक ऐतिहासिक स्मारकों को बेचा था। मुगल सम्राट शाहजांह ने अपनी बेगम की याद में जिस नायाब इमारत को ताजमहल के रूप में बनवाया था। वह मुगल सलतनत के कमजोर पड़ते ही अंग्रेज हुकुमत के हाथों नीलाम भी हुआ।
मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन ने खरीदा था
इतिहास गवाह है कि सन् 1803 से ईस्ट इण्डिया कंपनी ने आगरा पर अपना अधिकार जमा लिया था। पूरे देश में अंग्रेज कंपनी का शासन जम चुका था। अनेक राज घराने सेठ साहूकार अंग्रेजों के कृपा पात्र बन चुके थे। उसी समय मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन जो बड़े प्रतापी, प्रभावशाली, उदार, धार्मिक और व्यवसाय में निपुण थे। उस समय अनेक छोटे बड़े अंग्रेज अफसर सेठ जी का सम्मान करते थे। मथुरा नगर और आस-पास में सेठ लक्ष्मी चंद जैन का एक छत्र शासन था। इसके कारण अंग्रेज सरकार सेठ जी पर विश्वास करती थी। अंग्रेज सरकार ने इनके परिवार को अनेक उपाधियों से विभूषित किया था। स्वयं वायस राय लार्ड कर्जन ने एक बार मथुरा पधारकर इनका आतिथ्य स्वीकार किया था। सन् 1815 में गर्वनर जनरल लार्ड एलगिन आगरा आए, उनके दरबार में पधारने वाले राजाओं के अलावा मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन भी मौजूद थे।
अंग्रेजों ने अनेक स्मारक किये थे नीलाम
अंग्रेज सरकार ने अपने शासन काल में आगरा के अनेक ऐतिहासिक स्मारकों को बेचना शुरू कर दिया था। उस समय सिकंदरा रोड़ के उत्तर में खंदारी बाग के पीछे एक स्मारक था। वह भारतीय रंग में रंगे फारसी कवि अबुलफजल फैजी अकबर के काल को चित्रित करने वाले इतिहासकार और शिक्षा शास्त्री के पिता शेख मुबारक का स्मारक था। उसको मथुरा के सेठ लक्ष्मी चंद जैन को बेचा गया। इसी प्रकार मिर्जा गालिब की हवेली जो काला महल के रूप में जानी जाती थी। जहां मिर्जा गालिब का जन्म हुआ था। पीपल मण्डी में स्थित वह हवेली भी अंग्रेजों ने सेठ लक्ष्मीचंद जैन को बेच दी थी। अंग्रेजों ने यमुना नदी के किनारे बनी दारा की हवेली तथा औरंगजेब की हवेली समेत तमाम स्मारकों को उस समय नीलाम किया था। आगरा किले के निकट मच्छी भवन के आस-पास के संगमरमर के पत्थर भारी मात्रा में नीलाम करके बेचे गये थे। उन दिनों ज्योति प्रसाद जी ने भी आगरा की कई इमारतों को अंग्रेजों से खरीदा था। इसी दौरान ताज महल की नीलामी भी की गई। ताज महल की नीलामी के लिये उस समय अंग्रेज शासन की राजधानी रही कलकत्ता से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक जानबुल में 26 जुलाई 1831 के अंक में ताजमहल को बेचने की एक विज्ञप्ति प्रकाशित की गई थी। ताज महल की नीलामी के लिये बोली लगाई गई थी। उस नीलामी को सात लाख रुपयों में मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन ने खरीद लिया था। जिसके बाद ताजमहल का स्वामित्व सेठ लक्ष्मीचद जैन का हो गया था। लेकिन कुछ समय बाद एक अंग्रेज अफसर ने उस नीलामी को निरस्त कर दिया था। इस प्रकार ताज महल के पुराने मान चित्र तथा नक्काशीदार पत्थरों को लार्ड विलियम बैन्टिंग ने नीलाम करके बेच दिये थे। कुछ पत्थरों को लार्ड हैस्टिंग ने इंग्लैण्ड भी भेजा था।
लक्ष्मीचन्द जैन के वंसज मथुरा में रहते हैं
आज भी सेठ लक्ष्मीचंद जैन के वंसज मथुरा में रहते हैं। सेठ लक्ष्मी चंद जैन ने मथुरा में स्थित चौरासी में जम्बूस्वामी का जैन मंदिर का निर्माण कराया तथा चौरासी के जैन मंदिर में भगवान अजित नाथ की विशाल प्रतिमा को ग्वालियर से लाकर मंदिर में प्रतिष्ठा कराई थी। जैन होते हुए भी सेठ लक्ष्मी चंद जैन ने अनेक धर्मों के मंदिरों मस्जिदों व चर्चो को बनवाने में सहयोग किया था। द्वारकाधीश का सुप्रसिद्ध मंदिर एवं वृंदावन स्थित रंगजी के विशाल मंदिर का निर्माण भी उन्हीं के द्वारा कराया गया था। मथुरा में स्थित ईदगाह के निर्माण जीर्णोद्धार व मथुरा में ही स्थित एक चर्च के निर्माण में सहयोग के लिये सेठ लक्ष्मीचंद जैन को आज भी याद किया जाता है। आज उन्हीं के वंशज सेठ विजय कुमार जैन जम्बूस्वामी सिद्ध क्षेत्र चौरासी के अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। तथा मथुरा में रहकर समाज सेवा के कार्य में लगे है।
हिन्दू सेठ के कारण ताजमहल अपने स्थान पर शान से खड़ा है
बता दें कि ताज महल की नीलामी अंग्रेजों ने दो बार सन 1831 में की थी, इन नीलामियों की शर्त थी की ताजमहल के सुन्दर पत्थरों को निकाल कर अंग्रेजी सरकार के हवाले खरीदने वाले को करना होगा। उस दौरान सेठ लख्मीचंद, जो की मथुरा जिले से थे ने सबसे बड़ी बोली लगाई थी और ताजमहल को खरीद लिया था इसलिए ही ताजमहल अपने देश में आज भी शान से खड़ा है तो एक हिन्दू सेठ के कारण अन्यथा ताजमहल किस दुर्दशा में होता उसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं। बंगाल के तत्कालीन गवर्नर लार्ड बेंटिक की नजर में ताज महल को लेकर कई प्रकार के विचार लगतार चल रहें थे, अंततः उन्होंने सोचा की क्यों न ताज महल की नीलामी करा दी जाए और इसके सुंदर पत्थरो को निकलवा लिया जाए, बाद में इन पत्थरों को बेच कर रानी विक्टोरिया का खजाना भरा जाए। इस विचार को लेकर उस गवर्नर ने अपनी योजना बनाई और नीलामी की घोषणा कर दी।
सेठ लक्ष्मी चन्द को हिन्दू और मुसलमानों का विरोध झेलना पड़ा था
नीलामी में मथुरा के सेठ लख्मीचंद ने सबसे ज्यादा बोली लगा कर ताज महल को सशर्त 1.5 लाख रूपए में खरीद लिया था। परन्तु जब सेठ जी ताजमहल पर अपना कब्जा लेने के लिए पहुंचे तो जनता में उनके लिए विरोध शुरू हो गया, हिन्दू और मुस्लिम एक हो गए थे। इन लोगों का कहना था की ताजमहल को बनाने वाले लोगों के लिए शाहजहां ने कई कटरो का निर्माण किया था, हम लोग अपने ताजमहल के पत्थरों को अंग्रजो को नहीं देने देंगे। सेठ जी ने लोगों की इन बातो को ध्यान से सुना और इन सभी बातो पर विचार किया तथा अंत में लोगों की भावनाओं की कद्र करते हुए उन्होंने ताजमहल को खरीदने का विचार त्याग दिया था।
दो दिन चली नीलामी में पुःन लक्ष्मी चन्द ने खरीद लिया था
इस घटना से लार्ड विलियम बैन्टिक बहुत नाराज हो गया था उसने फिर कोलकाता के एक अंग्रेजी अखबार में 26 जुलाई 1931 को ताज महल को बेचे का विज्ञापन छपवाया। यह नीलामी लगातार दो दिन तक चली और इस नीलामी में राजस्थान के शाही परिवार और मथुरा के सेठ ने भी भाग लिया, इस नीलामी के दूसरे दिन अंग्रजों ने भी भाग लिया परंतु फिर भी यह नीलामी मथुरा के सेठ लख्मीचंद के नाम ही रही। उन्होंने इस बार ताजमहल को 7 लाख रूपए में खरीद लिया था। इसके बाद परेशानी फिर से वही सामने आई, ताजमहल के पत्थरो को जहाज में डालकर लंदन ले जाने में खर्च बहुत ज्यादा आ रहा था और लोगों का विरोध भी लगातार तेज होता जा रहा था। कहा जाता है की अंग्रजो की आर्मी के एक अफसर ने ब्रिटिश संसद के एक सदस्य को गुप्त रूप से लार्ड बेंटिक को सारी कहानी बता दी थी, जिसके बाद में ब्रिटिश संसद में यह मामला उठाया गया और ताजमहल को ख़त्म करने का विचार गवर्नर लार्ड विलियम बैन्टिक को छोड़ना पड़ा था।
मथुरा से सुनील शर्मा