शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

वृन्दावन और मथुरा के दुर्लभ श्रीषट्भुज महाप्रभु के मंदिर

वृन्दावन (मथुरा)। चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को समय-समय अनेक रूपों के दर्शन कराये थे जिसमें से एक षट्भुज अंग दर्शन भी कराये थे। जिसके दर्शन करने से षट् भुजाओं में श्रीकृष्ण, श्रीराम व स्वयं चैतन्य ने अपने आपको प्रस्तुत कर एक ही रूप में तीनों दर्शन करा दिये थे। इस रूप के दर्शन वृन्दावन तथा मथुरा के मंदिरों में होते हैं। वृन्दावन स्थित मंदिर का निमार्ण वि0सं0 1930 एवं षट्भुज महाप्रभु विग्रह की स्थापना वि0 सं0 1932 में श्रीराधारमण मंदिर के गोस्वामी श्री गल्लूजी “गुण मंजरी दास“ ने किया था। तथा मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान के निकट पोतराकुण्ड के समीप गुरूगोविन्द गौडिय मठ में भी इसी रूप के दर्शन होते हैं, जिसमें श्रीगौरांग महाप्रभु के विग्रह छः भुजाधारी महाप्रभु के वृंदावन तथा मथुरा में अति सुंदर दर्शन मंदिर में होते है। वृन्दावन में जहां उक्त मंदिर की स्थापना गोस्वामी गुल्लू जी द्वारा की गई है। वहीं मथुरा में इस रूप के श्रीविग्रह की स्थापना नवद्वीप पश्चिम बंगाल से आये गुरूगोविन्द दास ब्रह्मचारी बाबा महाराज ने की थी। मथुरा में उन्होंने सन् 1960 में ज्ञानवापी पोतरा कुण्ड के निकट जमीन खरीदी और 1998 में इस षट्भुज महाप्रभु जी के श्रीविग्रह की स्थापना की थी। वर्तमान सेवायत श्री कृष्ण प्रसाद दत्तगुप्त ने बताया कि महाराजश्री को स्वप्न में उक्त मूर्ति की स्थापित करने का आदेश हुआ था। जिसके वाद गुरूगोविन्द दास जी ने 1998 में षटभुज महाप्रभु जी के श्रीविग्रह को यहां स्थापित किया था। तभी से निरन्तर यहां सेवापूजा चलती आ रही है।
यह स्थान पुराणों में वर्णित है कि चैतन्य महाप्रभु यहां पधारे थे तथा यहां स्थित ज्ञानवापी में स्नान आदि के उपरान्त केशव देव के दर्शन किये थे। महाभारत काल का वर्णन भी इस स्थान का मिलता है। बताया जाता है कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुरी में श्री सार्वभौम भट्टाचार्य और कृष्णानगर आँध्रप्रदेश के गोदावरी तट पर रायरामानन्द को जो षट्भुज रूप के दर्शन कराये थे, वही विग्रह यहां विराजित है। अर्थात् उठी हुई ऊपर की दो भुजाओं में धनुष, बाण, (राम-स्वरूप दो भुजा मध्य भाग में अधर पर मुरली (कृष्ण स्वरूप) तथा दो भुजा में दण्ड और कमण्डलु के साथ प्रकट षट्भुज महाप्रभु श्रीविग्रह में स्थित है।
वृन्दावन के राधारमण मंदिर के गोस्वामी गल्लू जी ’गुण मंजरी दास’ का जन्म वि0 सं0 1884 सम्वत् जेष्ठमास कृष्णपक्ष अष्टमी को वृंदावन में ही हुआ था। आप राधारमण के गोस्वामी दामोदरदास के वंशज श्री रमणदयालु जी के सुपुत्र थे। अधिकतर समय पिता फर्रूखाबाद निवास करते थे। परम विद्वान भागवती पण्डित, उदारमना थे। उन्होंने भागवत से अच्छा चैतन्य मत का प्रचार प्रसार किया आपकी प्रथम् भागवत लखनऊ के शाह बिहारीलाल जी के यहां पर हुई थी। जिससे उन्हें प्रचुर मात्रा में धन चढ़ावे में मिला था, आपने जो कुछ मिला वह ठाकुरजी की सेवा में लगा दिया। वृन्दावन स्थित शाहबिहारी जी का मंदिर जिसे टेड़े खम्बे का मंदिर भी कहा जाता है उसके निमार्णकर्ता कुन्दनलाल जी और फुन्दनलाल जी आपको गुरू मानते थे। काशी, भरतपुर नरेश के यहाँ शाहजहाँपुर आदि अनेकों स्थानों पर रजवाड़ों में आपकी कथाएं होती थीं, यहां गाजे बाजे के साथ भागवत की इनकी सवारी निकलती थी। उस समय आपकी खूब धूंम रही मगर 1937 से आपने हमेशा-हमेशा के लिए वृन्दावन वास कर लिया था और ब्रजभाषा में ही कथा किया करते थे।
एक वार की घटनाक्रम है कि इनका फर्रुखाबाद से पहला विवाह सखीदेवी के साथ हुआ था और कुछ समय के उपरान्त वह इस दुनिया से चली गयीं। उनके जाने के बाद किसी प्रकार से भी आप दूसरे व्याह को राजी नहीं थे। किन्तु पिता जी का अनेक उपाय, आग्रह करते देख ब्रजधाम वृंदावन से ही ब्याह करने को राजी हो गये। अतः जगन्नाथ मिश्र की पुत्री सूर्यदेवी से दूसरा विवाह हुआ। व्याह के समय आपने अपने पिताजी से कहा कि, “जब पाँव में बेड़ियाँ पहनानी हैं तो लोहे की क्यों ? सोने की बेड़ी पहनाओ’’ अर्थात् वृन्दावन में ही ब्याह कराओ। बाहर की कन्या से नही। यहां गोस्वामी जी का वृन्दावन धाम के प्रति निष्ठा का भाव दिखाई देता है। एक बार जब भागवत करके आ रहे थे। डाकुओं ने धन समझकर ग्रन्थ की पूरी-पूरी पेटी ही लूट ली थी। आपके अनेक अनुरोध पर डांकुओं ने सब धन तो ले लिया, किन्तु ग्रन्थ रूपी धन को डांकुओं से वापस लेने में सफल हो गये थे। एक बार जब ललितकिशोरी जी के यहाँ भागवत वाँचते समय गोस्वामी जी ने कथा प्रसंग में बन्दूक छोड़ने का प्रसंग आया। तब आपने कहा कि, “लौह नलिका में श्याम चूर्ण प्रवेश करिकै अग्नि संस्कार कियौ तो भड़ाम शब्द भयो।’’ ऐसा सुनकर सब आश्चर्य चकित हो गए। आपके विषय में अनेक चर्चाएँ आज भी लोगों के मन मस्तिष्क में हैं। वह साहित्यिक व्यक्ति थे। राधारमण जी में अनन्य आस्था थी। हमेशा ही बोलचाल में भी ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते थे। आपके हृदय में ऐसा भाव था कि कथा के द्वारा जो धन प्राप्त होता है वह भगवद् सेवा और साधु-वैष्णवों की सेवा में लगना चाहिए। अपने उपयोग में उतना ही लाना चाहिए जितना शरीर धारण करने के लिए आवश्यक हो। शरीर में अधिक लगाने से चित की वृत्ति चंचल हो जाती है। गल्लू जी ने अपने निवास स्थान पर षट्भुज महाप्रभु के मंदिर की स्थापना की। आपके प्रेममयी सेवा को स्वीकार करने के लिए प्राचीन विग्रह के रूप में महाप्रभु जी स्वयं आ गए। गल्लू जी बड़े प्रेम से सेवा करने लगे। आज भी दर्शन होते हैं।
कहा जाता है कि जब गल्लू जी ने वृंदावन से बाहर जाना बंद कर दिया। केवल राधा रमण जी एवं महाप्रभु जी की सेवा में ही लगे रहते थे। महाप्रभु जी ने लगभग 15 वर्ष की सेवा इस शरीर से स्वीकार की। एक दिन श्री राधारमण जी ने अपनी नित्य लीला में बुला लिया। दाह संस्कार के समय शरीर भस्मीभूत तो हो गया लेकिन उनके गले की कंठी (माला) नहीं जली। लोग माला के दाने ग्रहण करने के लिए टूट पड़े। जिस-जिस को माला के दाने प्राप्त हुए वह अपने आपको भाग्यशाली समझने लगा था। गल्लू जी ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। आज भी विभिन्न उत्सवों मंदिरों में गल्लू जी के पद गाए जाते हैं। आज भी श्रीषट्डभुज महाप्रभु जी का मंदिर राधारमण मंदिर और गोकुलानन्द मंदिर के रास्ते में बांईं ओर पर स्थित है। श्रीविग्रह श्रीषड़भुज महाप्रभु अति प्रचीन विग्रह प्रतिष्ठित मंदिर है। इनकी दो भुजाओं में वंशी है तो दो में धनुष बांण तथा दो में दण्ड और कमण्डलु है, अति दर्शनीय श्रीविग्रह है। कलियुग पावनावतार श्रीकृष्णचैतन्यदेव ने अनेक महान पुरूषों के सामने अपने अनेक अनेक रूप दरसाये हैं। उनमें से षड़भुज रुप का भी प्राकट्य किया है। विशेषतः श्री सार्वभौम भटटाचार्य को श्रीमहाप्रभु ने अपने षड्भुज रुप के दर्शन कराये थे। आत्म-निन्दा करि लैंन प्रभुर शरण। कृपा करिवारे तबे प्रभुर हाल मन।। देखाइलैन आगे तारे चतुर्भुज रूप। पाछेश्याम वंशीमुख स्वकीय स्वरूप।। देखि सार्वभौम पड़े दण्डवत करि। पुन उठि स्तुति करे दुई कर जुड़ि।। श्रीमन्महाप्रभु के श्रीमुख से अभिधेय, सम्बन्ध तथा प्रयोजनादि तत्त्वों की अदभुद व्याख्या सुनकर श्रीसार्वभौम विस्मित हो उठे थे। श्री सार्वभौम के मन में श्री चैतन्य महाप्रभु को लेकर एक धारणा थी कि यह एक युवक सन्यासी है और मैं इसे वेदान्त का अध्ययन कराऊंगा, वह घारणा जाती रही और अपनी निन्दा करते हुए स्वयं ही श्रीमहाप्रभु के चरणों में पड़ गए थे। तब श्रीमहाप्रभु ने कृपा करते हुए उन्हें अपने वास्तव स्वरूप के दर्शन कराये थे। पहले तो शंख चक्रगदा पद्मधारी चतुभुज वह रूप दिखाया जो श्रीवासुदेव के सामने अविर्भूत हुआ था। फिर वंशी बजाते हुए द्विभुज रूप जो ब्रज में लीला परायण था उसके दर्शन कराये। इस प्रकार परब्रहम स्वयं भगवान श्रीब्रजेन्द्रनन्दन रूप में श्रीमहाप्रभु ने श्रीसार्वभौम को अपने स्वरूप का परिचय दिया था। दोनों रूपों को मिलाकर श्रीषड़भुज की भावना की गई है।
इस प्रकार के दर्शन मात्र से मनुष्य का कल्याण हो जाता है जिसमें तीनों रूप एक साथ और षट्भुज महाप्रभु के दर्शन होते हैं। कहीं दो हाथों में ‘‘धनुष बाण’’ (श्रीराम रूप) दो हाथों में ‘‘वंशी बजाते’’ हुए (श्रीकृष्ण) और दो हाथों में ‘‘दंड कमण्डलु’’ (संन्यासी रूप) के चित्र भी देखने को मिलते हैं निधुवन के पास में श्रीगोपाल जी के मंदिर में भी षड़भुज जी के दर्शन हैं। इसी प्रकार से मथुरा में पोतरा कुण्ड के निकट ज्ञानवापी से लगा हुआ गुरू गोविन्द गौडिय मठ में भी षड़भुज महाप्रभु के दर्शन होते हैं यहां का भी एतिहासिक महत्व है। अति प्राचीन ज्ञानवापी है यहां जब ब्रज में चैतन्य महाप्रभु पधारे थे तो उन्होंने यहीं पर प्रथम आकर इसी ज्ञानवापी में स्नान किया फिर केशव देव के दर्शन किये थे। यहां पर भी षड़भुज महाप्रभु के दर्शन मिलते हैं।