शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

विभाण्डक ऋषि कुमार श्रृंग ऋषि राम की बड़ी बहन शान्ता के पति थे

अतीत की कहानियाँ कहती संग्रहालय की मूर्तियां 
विभाण्डक ऋषि कुमार श्रृंग ऋषि राम की बड़ी बहन शान्ता के पति थे 

राजकीय संग्रहालय, मथुरा की प्रत्येक मूर्तियां अपनी अतीत की कहानियाँ कहती हैं और उसमें छिपे इतिहास को खोजने और उसे समझने का अवसर भी देती हैं। एक दिन वीथिकाओं का अवलोकन करते-करते अचानक एक मूर्ति पर नजर गयी, यह मूर्ति चार हिस्सों में एक वेदिका स्तम्भ के रूप में बनी हुई है। जिसमें चार चित्र उपर से नीचे तक दिखाये गये हैं उपर के प्रथम भाग में बोधिसत्व के मुकट का पूजा करते हुए दिखाया गया है जब कि बीच के एक हिस्से में एक साधु एक हिरनी को कुछ चारा खिला व पानी किसी पात्र से पिला रहा है, इसके ठीक नीचे के हिस्से में साधु गर्भवती हिरनी के प्रसव के समय उसके बच्चे को अपने दोनों हाथ में लिये हुए दिखाया गया है, इसी वेदिका स्तम्भ के नीचे अन्तिम हिस्से में साधु एक टोकरी से लड्डु बांटता हुआ दिख रहा है। यह मूर्ति गोविन्द नगर, मथुरा क्षेत्र से प्राप्त हुई थी यह मूर्ति प्रथम शती ई. की है लगभग 2100-2200 वर्ष की वेदिका स्तम्भ के रूप में मिली जिसके विवरण को पढ़कर ज्ञात हुआ कि यह श्रृंग ऋषि के जन्म का वर्णन करती है। आपने श्रृंग ऋषि का नाम अवष्य ही सुना होगा। श्रृंग ऋषि विभाण्डक मुनि के पुत्र थे विभाण्डक मुनि के विषय में महाभारत में बड़े विस्तार व रोचकता के साथ लिखा गया है। श्रृंग ऋषि विभाण्डक मुनि के पुत्र थे और मस्तक पर सींग होने के कारण इनका नाम श्रृंग पड़ गया।
कहा जाता है उन दिनों देवता व अप्सरायें पृथ्वी लोक में आते-जाते रहते थे। बस्ती मण्डल में हिमालय क्षेत्र का जंगल दूर-दूर तक फैला हुआ था। जहां ऋषियों व मुनियों के आश्रम हुआ करते थे। आबादी बहुत ही कम थी। आश्रमों के आस-पास सभी हिंसक पशु-पक्षी हिंसक वृत्ति और वैर-भाव भूलकर एक साथ रहते थे। परम पिता ब्रहमा के मानस पुत्र महर्षि कश्यप के पुत्र महर्षि विभाण्डक उच्च कोटि के सिद्ध सन्त थे। पूरे आर्यावर्त में उनको बड़े श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उनके तप से देवतागण भी भयभीत हो गये थे। इन्द्र को अपना सिंहासन डगमगाता हुआ दिखाई देने लगा था। महर्षि विभाण्डक की तपस्या भंग करने के लिए देवताओं ने अपनी प्रिय अप्सरा उर्वशी को महर्षि के आश्रम में भेजा, उर्वषी के प्रेमपाश में पड़कर महर्षि का तप खंडित हुआ और दोनों के संयोग से बालक श्रृंगी का जन्म हुआ। पुराणों में श्रृंग ऋषि को इन दोनों का संतान कहा गया है। चूकि बालक के मस्तक पर एक सींग था अतः उनका नाम श्रृंग या श्रृंगी कहा गया। बालक को जन्म देने के बाद उर्वशी का काम पूरा हो गया और वह स्वर्गलोक वापस लौट गई। इस धोखे से विभाण्डक इतने आहत हुए कि उन्हें नारी जाति से ही घृणा हो गई। वे क्रोधित रहने लगे तथा लोग उनके शाप से बहुत डरने लगे थे। उन्होंने अपने पुत्र को मां, बाप तथा गुरू तीनों का प्यार दिया और उसे तीनों की कमी कभी नहीं होने दी। एक अन्य जनश्रुति कथा के अनुसार एक बार महर्षि विभाण्डक इन्द्र की सबसे प्रिय अप्सरा उर्वशी को देखते ही उस पर मोहित हो गये तथा नदी में स्नान करते समय उनका वीर्यपात हुआ। एक शापित देवकन्या मृगी के रूप में वहां विचरण कर रही थी। उसने जल के साथ वीर्य को ग्रहण कर लिया। जिससे एक बालक का जन्म हुआ उसके सिर पर सींग उगे हुए थे। उस विचित्र बालक को जन्म देकर वह मृगी शापमुक्त होकर स्वर्ग लोक को चली गई। किन्तु यहां राजकीय संग्रहालय, मथुरा में स्थित वेदिका स्तम्भ जिसका पंजीयन संख्या 76.40 का जिक्र करना ही पड़ेगा क्यों कि करीव 2200 वर्ष पूर्व यानी कि प्रथम शती ई. पूर्व की इस वेदिका स्तम्भ का मथुरा नगर के बीचों बीच गोविन्द नगर क्षेत्र से प्राप्ति और उसमें अंकित मूर्ति के चित्र इस इतिहास को सच साबित करती हुई दिख रही है, संग्रहालय में संरक्षित मूर्ति के विवरण के अनुसार विभाण्डक मुनि के आश्रम में एक हिरणी रहती थी मुनि को उससे प्रेम हो गया तत्पष्चात मुनि ने इस हिरणी के साथ समागम किया इसके पष्चात श्रृंग का जन्म हुआ और इस वेदिका स्तम्भ के उपरी भाग में बोधिसत्व के मुकुट का पूजन शीर्षभाग में दर्षाया गया है, इसके नीचे एक मुनि अपने आश्रम में एक हिरनी को चारा खिला रहे हैं, इसके नीचे तीसरे भाग में हिरनी से ऋषि पुत्र का जन्म अंकित है और सबसे नीचे ऋषि कुमार के जन्मोत्सव पर मिठाई वितरण का दृष्य अंकित है। आहत हुए विभाण्डक मुनि ने आश्रम में किसी भी नारी का प्रवेश वर्जित कर दिया था। वे पूरे मनोयोग से बालक का पालन पोषण कर रहे थे। बालक अपने पिता के अलावा अन्य किसी को जानता तक नहीं था। नारी जाति को उसने न कभी देखा न उसके विषय में उसे कोई ज्ञान था यह आश्रम मनोरमा जिसे सरस्वती भी कहा जाता था, के तट पर स्थित था और अंग देश से भी लगा हुआ था। देवताओं के छल से आहत महर्षि विभाण्डक तप और क्रोध करने लगे थे। उस आश्रम में कोई तामसी वृत्ति नहीं पायी जाती थी। महर्षि विभाण्डक तथा नव ज्वजल्यमान (चमकता हुआ) बालक श्रृंग के साथ ही आश्रम में रहते थे।
कहा जाता है कि उन दिनों आश्रम के निकट ही अंग देष में भयंकर सूखा पड़ा था। अंग के राजा रोमपाद (चित्ररथ) ने अपने मंत्रियों व पुरोहितों से मंत्रणा की, सभी ने श्रृंग ऋषि को राज्य में बुलाने का सुझाव दिया। क्यों कि श्रृंग ऋषि अपने पिता विभाण्डक से भी अधिक तेजवान एवं प्रतिभावान बन गये थे। उसकी ख्याति दिग-दिगन्तर तक फैल गई थी। राज दरवारियों ने अंगराज को सलाह दी कि किसी तरह से यदि महर्षि श्रृंग को अंग देश में लाया जाये तो राज्य से अकाल और सूखा समाप्त हो जायेगा। मगर पिता के रहते पुत्र को आश्रम से बाहर लाना असम्भव था। इसके लिये अंग राज ने योजना बनाई जब एक बार महर्षि विभाण्डक आश्रम से कहीं बाहर गये हुए थे, अवसर की प्रतीक्षा में अंगराज ने श्रृंग ऋषि को रिझाने के लिए देवदासियों तथा सुन्दिरियों को वहां भेज दिया। उनके लिए गुप्त रूप से आश्रम के पास एक शिविर भी लगवा दिया गया। त्वरित गति से उस आश्रम में सुन्दरियों ने तरह-तरह के हाव-भाव से श्रृंग ऋषि को रिझाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। ऋषि कुमार को तरह-तरह के व्यंजन तथा पकवान उपलब्ध कराये गये। श्रृंग ने कभी भी कोई स्त्री को देखा तक नहीं था इन सुन्दरियों को अपने पास पाकर वह उनके मोहपाष के जाल में फंसने लगा। महर्षि विभाण्डक के आने के पहले ही वह सुन्दरियां वहां से पलायन कर जाती थीं। ऋषि कुमार श्रृंग अब चंचल मन वाले हो गये थे। पिता के कहीं वाहर जाते ही वह छिप-छिप कर उन सुन्दिरियों के शिविर में स्वयं ही पहुच जाते थे। सुन्दरियां योजना के अनुसार श्रृंग को अपने साथ अंग देश ले जाने मे सफल हुईं।
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जहां ऋषि कुमार के विषय में कहा गया हैं कि उन्होंने किसी भी स्त्री कभी देखा नहीं था। तो संग्रहालय के एक अन्य वेदिका स्तम्भ में दृश्य दर्षाया गया है कि कुछ स्त्रियां नाव से गन्तव्य तक पहुंच रही हैं। दूसरे दृश्य में मुनि विभांडक की अनुपस्थिति में गाना वजाना हो रहा है तथा ऋषि कुमार को लुभाने का प्रयत्न किया जा रहा है इसके और अन्त में श्रृंग ऋषि प्रेमपाश में बंधे हुए दिखाये गये हैं। वीथिका में ही सामने के स्तम्भ में एक अन्य मूर्ति में ऋषि कुमार को स्त्री संसर्ग के पश्चात उद्विग्न (खिन्नता के भाव) में स्थित दिखाया गया है। ...................................................................................................................................... 
अंग देष में ऋषि कुमार का बड़े ही हर्ष औेर उल्लास के साथ स्वागत किया गया। श्रृंग ऋषि के पहुचते ही अंग देश में वर्षा होने लगी। देषवासी सभी लोग अति आनन्दित हुए। उघर अपने आश्रम में पुत्र श्रृंग को ना पाकर महर्षि विभाण्डक को क्रोध और आश्चर्य हुआ। उन्होने अपने योग बल से सब जानकारी प्राप्त कर ली और अपने पुत्र को वापस लाने तथा अंग देश के राजा को दण्ड देने के लिए महर्षि विभाण्डक अपने आश्रम से अंग देश के लिए निकल पड़े।
अंगदेश के राजा रोमपाद तथा राजा दशरथ दोनों मित्र थे। महर्षि विभाण्डक के शाप से बचने के लिए रोमपाद ने राजा दशरथ की कन्या शान्ता को अपनी पोश्या पुत्री का दर्जा प्रदान करते हुए जल्दी से श्रृंग ऋषि से उसकी शादी करा दी। महर्षि विभाण्डक को देखकर एक योजना के तहत अंगदेश के वासियों ने जोर-जोर से शोर मचाना शुरू दिया कि ‘’इस देश का राजा महर्षि श्रृंग हैं।’’ अपने पुत्र को पुत्रवधू के साथ देख कर महर्षि विभाण्डक का क्रोध दूर हो गया और उन्होंने अपना विचार बदलते हुए बर वधू के साथ राजा रोमपाद को भी आशीर्वाद दिया और अपने पुत्र व पुत्रवधू को साथ लेकर महर्षि विभाण्डक अपने आश्रम लौट आये और शान्ति पूर्वक रहने लगे। उधर अयोध्या के राजा दशरथ के कोई सन्तान नहीं हो रही थी। उन्होने अपनी चिन्ता महर्षि वशिष्ठ को बताई। महर्षि वशिष्ठ ने श्रृंग ऋषि के द्वारा अश्वमेध तथा पुत्रेष्ठीकामना यज्ञ करवाने का सुझाव दिया। तब राजा दशरथ नंगे पैर श्रृंग ऋषि के आश्रम में गये थे। तरह-तरह से उन्होंने महर्षि श्रृंग ऋषि की बन्दना की। ऋषि को उन पर तरस आ गया। महर्षि वशिष्ठ की सलाह को मानते हुए वह यज्ञ की पुरोहिताई करने को तैयार हो गये। उन्होने एक यज्ञ कुण्ड का निर्माण कराया। इस स्थान को मखौड़ा कहा जाता है। रूद्रायामक अयोध्याकाण्ड 28 में मख स्थान की महिमा को इस प्रकार कहा गया है- 
कुटिला संगमाद्देवि ईशान्ये क्षेत्रमुत्तमम्। 
मखःस्थानं महत्पूर्णा यम पुण्यामनोरमा।। 
स्कन्द पुराण के मनोरमा महात्य में मखक्षेत्र को इस प्रकार महिमा मण्डित किया गया है- 
मखःस्थलमितिख्यातं तीर्थाणामुत्तमोत्तमम्। 
हरिष्चन्ग्रादयो यत्र यज्ञै विविध दक्षिणे।। 

महाभारत के बनपर्व में इस आश्रम को चम्पा नदी के किनारे बताया है। उत्तर प्रदेश के पूवोत्तर क्षेत्र के पर्यटन विभाग की बेवसाइट पर इस आश्रम को फ़ैजाबाद जिले में होना बताया गया है। परन्तु अयोध्या से इस स्थान की निकटता तथा परम्परागत रूप से 84 कोस की परिक्रमा मार्ग में सम्मलित होने के कारण इसकी सत्यता प्रमाणित होती है। ऋषि श्रृंग के यज्ञ के परिणाम स्वरूप राजा दशरथ को राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न नामक चार सन्तानें हुई थी। जिस स्थान पर उन्होंने यह यज्ञ करवाये थे वहां आज भी एक प्राचीन मंदिर बना हुआ है। यहां श्रृंग ऋषि व माता शान्ता का मंदिर बना हुआ है। यहां इनकी समाधियां भी बनी हुई हैं। यह स्थान अयोध्या से पूरब में स्थित है। आषाढ़ माह के अन्तिम मंगलवार को बुढ़वा मंगल का मेला लगता है। माताजी को पूड़ी व हलवा का भोग लगाया जाता है। इसी दिन त्रेतायुग में यज्ञ का समापन हुआ था। यहां पर शान्ता माता ने 45 दिनों तक अराधना की थी। यज्ञ के बाद ऋषि श्रृंग अपनी पत्नी शान्ता को अपने साथ लिवा ले जाना चाहते थे किन्तु वह वहां से नहीं गई और वर्तमान मंदिर में पिण्डी बनकर समां गयीं। पुरातत्वविदों के सर्वेक्षणों में इस स्थान के ऊपरी सतह पर लाल मृदभाण्डों, (मिट्टी के वर्तनों) भवन की संरचना के अवशेष तथा ईंटों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। 

प्रस्तुति- सुनील शर्मा (पत्रकार) मथुरा

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

पौराणिक महत्व का प्रतीक सप्त समुद्री कूप आज उपेक्षित

धार्मिक परम्पराओं को निभाने के साथ-साथ आसपास के क्षेत्रों की जलापूर्ति करता कूप आज सूख गया है 

मथुरा। (सुनील शर्मा) सनातन धर्म का पालन करने बाले सभी अपने यहां किसी भी मांगलिक कार्य में सभी देवताओं का आवाहान करते हैं इसके लिए देवताओं को आमंत्रण करने के उपरान्त उनकी प्राण प्रतिष्ठा का विशेष महत्व माना जाता है। जब भी कोई शुभ कार्य किया जाता है, जैसे गृह प्रवेश, बच्चे का नामकरण, विवाह संस्कार मांगलिक कार्य आदि में सभी देवताओं को आमंत्रित कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा पुराहितों के द्वारा कराई जाती है। जब देवता के आगमन और उनकी प्राण प्रतिष्ठा किसी न किसी मनोरथ की पूर्ति के लिए की जाती है जिससे भगवान हम पर प्रसन्न हों और हमारा मनोरथ पूर्ण हो, जिसके लिए हवन-यज्ञ भी किये जाने का विधान है। आज के दौर में लोग मनोरथ तो करते हैं पर उसमें धार्मिक प्रक्रियाओं का पालन पूरी तरह नहीं करते हैं जिसके कारण मनोरथ के श्रेष्ठ फल की प्राप्ति नहीं हो पाती है। प्राण प्रतिष्ठा के लिए सप्त समुद्रों के जल, सप्त नदियों का जल, सप्त तीर्थों की मिट्टी आदि की आवश्यकता पड़ती है। जो कि न उपलब्ध हो पाने की स्थिति में किये गये मनोरथ का पूर्ण होना भी संभव नहीं होता है। ब्रजवासियों के मनोरथ की पूर्ति हेतु समुद्रदेव ने भी वनखंडी क्षेत्र में एक कुएं में यह शक्ति प्रदान कर दी थी। ऐसा एक सप्त समुद्र कूप (कुआं) वनखंडी क्षेत्र स्थित डैम्पीयर नगर में पड़ने वाले राजकीय संग्रहालय स्थित है। यहां लोग कभी अपने-अपने धार्मिक परम्पराओं को निभाने थे, अब राजकीय संग्रहालय ने सुरक्षा की दृष्टि से इसे ढ़कवा दिया हैं।
यह एक सदियों से चली आ रही परंपरा का एक हिस्सा हैं, आज के आधुनिक युग में मनुष्य इन सभी प्राचीन परम्पराओं से दूर होता चला जा रहा है और हर कार्य शीघ्रता में और कम समय में होने लगे हैं। इन प्राचीन परम्पराओं के प्रति आस्था भी घटती चली गयी और लोग इन स्थानों को भी भूलते चले गये नतीजा यह कि प्राचीन धरोहर भी हमसे दूर हो गये या हमें मालुम ही नहीं कि कहां क्या छुपा हुआ है धीरे-धीरे एतिहासिकता भी कोसों दूर होती चली जायेगी। आज घर, मंदिर, आश्रम सहित अन्य प्रतिष्ठानों पर देवताओं को बैठा तो दिया जाता है पूजा भी की जाती है मगर इन देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा के लिए अनुष्ठान में कई तरह की सामग्रियों का उपयोग नहीं हो पाता है और हर कार्य शोर्टकट से किया जाता है। इन आयोजनों में सात समुद्र, सात नदियां, सात मेवा, सात फल, सात पेड़ों के पत्ते, सात कुओं का पानी आदि की आवष्यकता के अनुसार व्यवस्था होती है। ऋषियों मुनियों ने लोगों के सात समुद्र के जल को न ला पाने की दुविधा को दूर करते हुए भारतवर्ष के सात स्थानों पर ऐसे कुपों की स्थापना की जिनके जल का स्त्रोत समुद्रों के जल से मिला हो और इनका जल कभी सूखे नहीं, गर्ग संहिता, पदम पुराण, वराहपुराण आदि में इस तरह के कूपों का उल्लेख मिलता है, उन्हीं में से एक कूप मथुरा के क्षेत्र में होना माना गया है, कई ग्रंथों में इसे मथुरा के वनखंडी क्षेत्र में होना बताया जाता है। यह वही क्षेत्र है जहां आज राजकीय संग्रहालय बना हुआ है। ब्रज मंडल में यही एकमात्र ऐसा स्त्रोत है जो समुद्रों से जुड़ा है, इसका पानी पहले बहुत ही अच्छा था तथा आसपास के पूरे क्षेत्र की जलापूर्ति इससे होती थी आज इसका स्त्रोत सूख गया है तथा इसके सूख जाने के कारण यह बन्द पड़ा है और सुरक्षा की दृष्टि से इसे पाट दिया गया है।
सप्तसमुद्र कूप अन्य जगह पर भी हैं पौराणिक महत्व के प्रतीक सप्त समुद्रीय कूप भारत में ही मौजूद हैं। इनमें काषी, प्रयाग, पाटलीपुत्र में ऐसे सप्त समुद्री कूप हैं, जिनके स्त्रोत कभी सूखते नहीं। इनका स्त्रोत समुद्र तल के साथ मिला हुआ माना जाता है। इस कूप से भगवान की मूर्तियां भी मिलीं सन् 1930 में जब कर्जन आर्कोलॉजिकल म्युजियम जो वाद में राजकीय संग्रहालय मथुरा का निर्माण हुआ तो परिसर में मौजूद इस सप्त समुद्रिक कूप की साफ सफाई कराई गई थी। कूप में से भगवान विष्णु, शिव आदि की मूर्तियां निकलीं थीं। इस आधार पर भी ये कूप पुरातत्व महत्व माना जाता है। आज से करीब 30 साल पहले ये कूप सूख गया तो इसकी सफाई नहीं कराई गई। बाद में इसको पाट दिया गया। 20 वर्ष पहले टोरंटो के एक प्रोफेसर भी इस कूप पर रिसर्च करने आए थे। उन्होंने अन्य सप्तसमुद्रीय कूप का अवलोकन किया था। वीथिका सहायक हरि बाबू ने बताया कि यह कूप सप्तसमुद्रीय कूपों में एक माना जाता है। पहले इसका स्त्रोत बहुत गहरा था। संग्रहालय प्रशासन ने बताया कि कूप को सुरक्षा की दृष्टि से बंद करा दिया गया था। लगभग 2000 वर्ष पुराना है यह कूप राजकीय संग्रहालय, मथुरा स्थित यह कूप गुप्तकाल का है और लगभग 2000 वर्ष पुराना यह कूप यहाँ के स्थानीय लोगों के सामाजिक धार्मिक आस्था का केन्द्र था और सभी के लिए यह बहुत पूजनीय था। माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों के परिवार में नव विवाहित दम्पत्ति को इस कूप की पूजा करने के लिए यहां लाते थे। शादी होने पर बहू को यहीं पूजन के लिए लाते थे। पुराने लोग तो आज भी कुआं पूजन के लिए आते हैं। सन् 1917 ई. के लगभग मथुरा में उत्तर प्रदेश की पहली आधुनिक कॉलोनी डैम्पियर पार्क के नाम से बनी जिसका गेट आज भी अपनी प्राचीनता को वयां कर रहा है जिसके दोनों ओर एक शिलालेख आज भी मौजूद है जिसमें एक तरफ उर्दू और एक तरफ अंग्रेजी में इस ग्रेट के निर्माण का प्रमाण मिलता है। 1930 ई. में कर्जन आर्कोलॉजिकल म्युजियम का निमार्ण शुरू हुआ जिसके परिसर में यह मथुरा का ऐतिहासिक सप्त समुद्री कूप आज भी मौजूद है। इस कूप से मथुरा कला की कई महत्वपूर्ण एवं दुर्लभ मुर्तियां बरामद हुई हैं, जो आज राजकीय संग्रहालय, मथुरा में संरक्षित व सुरक्षित हैं। परन्तु आज यह सप्त समुद्री कूप सूख चुका है और आम जनमानस के जहन से भी विस्मृत हो चुका है। संग्रहालय प्रशासन ने इसे सुरक्षा की दृष्टि से इसका पटाव कराकर ढ़क कर बन्द करा दिया है।
चतुर्वेदी समाज के लोगों की राय गोपाल चतुर्वेदी ने बताया कि धार्मिक कार्यों में सात समुद्र, सात नदियां, सात घुड़साल की मिट्टी आदि का विशेष महत्व है। देव स्थान, प्राण प्रतिष्ठा, विग्रह स्थापित, हवन, यज्ञ आदि में इस कूप से पानी लिया जाता था। संग्रहालय स्थित इस कुएं का चतुर्वेदी समाज में विशेष महत्व है। जब भी कोई बेटी शादी के बाद पहली बार मायके आती थी तो भाई के साथ यहां पूजन करने यहां आती थी। 
प्रस्तुति- सुनील शर्मा, मथुरा