बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

देश के पश्चिम बंगाल में दीपावली पर नहीं की जाती है लक्ष्मी पूजा


शरद पूर्णिमा के दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है।
दीपावली के दिन काली की पूजा करने की परंपरा है
दीपावली पर देश भर में लक्ष्मी गणेश की पूजा करने की परंपरा है, किन्तु पश्चिम बंगाल और बंगाली समुदाय इस दिन मां काली की पूजा करता है। दीपावली के दिन यानी अमावस्या की अर्धरात्रि में माँ काली की पूजा की जाती है।

दीपावली पर देश में लक्ष्मी गणेश की पूजा करने की परंपरा हर प्रान्त में निभाई जाती है, परन्तु पश्चिम बंगाल और बंगाली समुदाय इस दिन मां काली की पूजा करता है। यह पूजा दीपावली के दिन यानी अमावस्या की अर्धरात्रि में की जाती है।



एक अमावस्या मां दुर्गा की तो दूसरी अमावस्या को काली मां की पूजा होती है।

एक अमावस्या में मां दुर्गा का आगमन होता है। जिसे हम शारदीय नवरात्र के तौर पर जानते हैं। 15 दिन बाद दूसरी अमावस्या में मां काली की पूजा करने की प्रथा बंगाल में बंगाली समाज द्वारा निभाई जाती है।

विजया दशमी के 6 दिन बाद लक्ष्मी की पूजा की जाती है।

विजया दशमी के 6 दिन बाद बंगाल में लक्ष्मी की पूजा की जाती है। हालांकि, जैसे उत्तर भारत और देश के बाकी हिस्सों में लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा होती है वैसे लक्ष्मी की पूजा नहीं की जाती है। बंगाल में लक्ष्मी पूजा के दिन सिर्फ मां लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित की जाती है और मां लक्ष्मी की ही पूजा की जाती है। पूजा से पहले महिलाएं घर की साफ सफाई करके फिर रंगोली बना कर मां लक्ष्मी को पांच फल, नारियल, नारियल से बने लड्डू, गन्ना, सावुत मूंग, भीगे कच्चे चने, कच्चे चावल, खील, बतासा, खीर आदि का भोग लगाते हैं। 

मध्य रात्रि तक चलने वाली मां काली की पूजा।

काली पूजा के दिन मां काली को विशेष रूप से 108 गुड़हल के फूल, 108 बेलपत्र एवं माला, 108 मिट्टी के दीपक और 108 दुर्वा चढ़ाने की परंपरा है। साथ ही मौसमी फल, मिठाई, खिचड़ी, खीर, तली हुई सब्जी तथा अन्य व्यंजनों का भी भोग मां को चढ़ाया जाता है. तड़के 4 बजे तक चलने वाली इस पूजा की विधि में होम (हवन) व पुष्पांजलि भक्तों के द्वारा की जाती है। इस मौके पर अधिकांश महिला व पुरुष सुबह से उपवास रखकर रात्रि में माता को पुष्पांजलि अर्पित करते हैं।

दीपावली के दिन काली की उपासना का विशेष महत्व माना जाता है-

शक्ति के आधार की प्रमुख देवी हैं मां काली, यह कुल दस महाविद्याओं के स्वरूपों में निहित है। शक्ति का महानतम स्वरुप महाविद्याओं में ही होता है। काली की पूजा-उपासना से भय खत्म होता है। इनकी अर्चना से रोग मुक्त होते हैं। राहु और केतु की शांति के लिए मां काली की उपासना अचूक है। मां अपने भक्तों की रक्षा करके उनके शत्रुओं का नाश करती हैं। इनकी पूजा से तंत्र-मंत्र का असर खत्म हो जाता है। तथा इस दिन अभीष्ट सिद्वि प्राप्त करने का अवसर भी होता है।

काली की पूजा के नियम।
मां काली की पूजा दो विधि से की जाती है, एक सामान्य और दूसरी तांत्रिक पूजा। सामान्य पूजा कोई भी कर सकता है, परन्तु तांत्रिक पूजा बिना विद्वान तंत्र साधक के संरक्षण और निर्देशों के नहीं की जा सकती। काली की उपासना सही समय मध्य रात्रि का होता है। इनकी पूजा में लाल और काली वस्तुओं का विशेष महत्व है। मां काली के मंत्र जाप से ज्यादा इनका ध्यान करना उपयुक्त होता है। मां काली की पूजा शमसान या निर्जन स्थान पर की जाती है।
दुश्मनों से छुटकारा पाने के लिए की जाती है काली की उपासना।
मां काली की उपासना शत्रुओं और विरोधियों को शांत करने के लिए करनी चाहिए किसी की मृत्यु के लिए नहीं। आप विरोधी या किसी शत्रु से परेशान हैं तो उस समस्या से बचने के यह उपाय कर सकते हैं आपके शत्रु अगर आपको परेशान करते हों तो आप लाल कपड़े पहनकर लाल आसन पर बैठें मां काली के समक्ष दीपक और गुग्गल की धूप जलाएं। मां को प्रसाद में पेड़े और लौंग चढ़ाएं। ऐसी मान्यता है कि इस प्रकार पूजा अर्चना करके आप मां काली का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

आस्था, श्रृद्धा, भक्ति के साथ माँ दुर्गा की पूजा

बंगाली समाज की सांस्कृतिक विरासत है दुर्गापूजादुर्गा पूजा देश में ही नही विश्व भर में मनाई जाती है 

                                                                                                                                              -सुनील शर्मा


दुर्गा पूजा महोत्सव हिन्दू देवी माता दुर्गा की पूजा पर आधारित होता है जिन्हें उनके चार बच्चों कार्तिक, गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ 10 भुजाओं वाली देवी के रूप में पूजा जाता है। माँ भगवती दुर्गा को 10 भुजाओं के साथ सिंह पर सवार होकर महिसासुर का वध करते हुए दर्शाया जाता है और इसी रूप की पूजा पूरे भारत वर्ष के अलावा विदेशों तक में की जाती है। दुर्गा पूजा परिजनों से मिलने का और बंगाली समाज के लोगों की सांस्कृतिक विरासत को सराहने और उसे समझने का भी समय होता है।
दुर्गा पूजा का उत्सव अश्विन मास में मनाया जाता है। बांगला पंचांग के अनुसार यह सितंबर या अक्टूबर महीने में पड़ता है। दुर्गा पूजा के लिए चुनी गयी तिथियां उस समय पर आधारित होती हैं जब रामजी ने माता दुर्गा का आह्वान किया था, और इसके बाद श्रीराम ने युद्ध में रावण और उसके दुष्ट राक्षसों का अंत किया था।
इतिहास में पहली बार दुर्गा पूजा का विवरण लगभग 16वीं ईसवी के दौरान बंगाल में मिलता है। इसके बाद से यह शारदीय नवरात्र में वार्षिक उत्सव के रूप में सारे विश्व में दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। 1911 में जब दिल्ली को ब्रिटिश शासन ने भारत की नयी राजधानी बनाया था तब हजारों बंगाली अधिकारी काम करने के लिए दिल्ली चले आये थे और इस प्रकार यह उत्सव कलकत्ता से दिल्ली में भी मनाया जाने लगा। इसी प्रकार, यह उत्सव मुम्बई और देश के अन्य शहरों में भी आरम्भ हो गया। जहाँ बंगालियों ने प्रस्थान किया वहां-वहां दुर्गा पूजा की स्थापना होती चली गई। आज विश्व के अन्य देशों में रहने वाले बंगालियों ने भी इस उत्सव को वहां भी मनाना शुरू कर दिया। जैसे अमेरिका, यूरोप, जापान, चीन, कनाडा, हांगकांग आदि देशों में बडे़ धूमधाम से दुर्गा पुजा का उत्सव मनाया जाता है। जहां-जहां बंगाली समाज के लोग एकत्रित होते गये दुर्गा पूजा के पंड़ाल सजते चले गये और दुर्गा की प्रतिमाओं की श्रद्धा भक्ति के साथ पूजा होती चली आ रही है। हालाँकि, आज भी सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण दुर्गा पूजा पश्चिम बंगाल में कलकत्ता की नगरपालिका में आयोजित की जाती है। बताया जाता है कि कलकत्ता में 1610 स्वर्ण राय चौधरी ने शुरू की थी आज भी उनके परिवारी जन इस परम्परा को निभाते चले आ रहे हैं। हालांकि अब यह दुर्गा पूजा बारीसा और बिराटी क्षेत्र में सात के करीव होती हैं जो कि इसी परिवार के लोग करते हैं।
दुर्गा पूजा के उत्सव में भक्त 10 दिनों का उपवास, भोग प्रसाद का आनन्द लेते हैं और माता दुर्गा की विधि विधान से पूजा में शामिल होते है। हालाँकि उत्सव के अंतिम पांच दिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जिन्हें मुख्य रूप से मनाया जाता है। जिसमें ‘षष्ठी‘ के दिन से दशमी तक को माना जाता है। कहा जाता है कि माता दुर्गा अपने चार बच्चों के साथ धरती पर आती हैं। यह केवल तभी होता है जब उनके आगमन को पुजारियों के द्वारा जाग्रत किया जाता है।  नवरात्र की शुरूआत के दिन ही माता की प्रतिमाओं में आँखें बनाई जाती है। षष्ठी के दिन घट स्थापित किया जाता है और दुर्गा पूजा महोत्सव की शुरूआत हो जाती है ‘सप्तमी’ के दिन, माना जाता है कि जटिल अनुष्ठानों के साथ माता को आमंत्रित करने पर माता प्रतिमाओं में प्राण प्रतिष्ठा के उपरान्त प्रवेश करती हैं। वारी-वारी से माँ दुर्गा और उनके साथ आये बच्चे कार्तिक, गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती की प्रतिमाओं में प्राण प्रतिष्ठा अनुष्ठान किया जाता है। गणेश जी के साथ उनकी पत्नी केला को भी स्थापित करने की परम्परा निभाई जाती है। सप्तमी की पूजा के साथ-साथ चण्डी पाठ का भी पाठ निरन्तर किया जाता है। माँ भगवती के सभी रूपों का वर्णन किया जाता है।
‘अष्टमी‘ के दिन, माना जाता है माता दुर्गा ने महिषासुर के दो राक्षसों (चंड और मुंड) का वध इस दिन किया था। माना जाता है जब अष्टमी और नवमी के मध्य का काल के (समय) को अतिमहत्वपूर्ण माना जाता है इसी समय में माता भगवती ने दोनों राक्षसों का वध कर इस संसार को दुष्टों के आतंक से मुक्त किया था। इस समय लगभग 52 मिनट में विशेष पूजा अर्चना और आरती का आयोजन किया जाता है भक्त नर-नारी उपवास रख कर इस पूजा को अवश्य देखते हैं और माँ दुर्गा का आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए पूरे वर्ष भर प्रतीक्षा करते हैं।
‘नवमी‘ के दिन महाआरती का आयोजन किया जाता है। माना जाता है कि इस दिन माता दुर्गा ने युद्ध में महिषासुर का वध किया था। लोग अपने नये-नये वस्त्र धारण करके पूजा पंडालों में आते हैं और तीनों दिन प्रसाद ग्रहण करते हैं। दुर्गा माँ को प्रत्येक दिन नियम से भोग प्रसाद चढ़ाया जाता है। माता और बहनें अष्टमी और नवमी के दिन अपनी श्रद्धानुसार फल, फूल, मिठाई, वस्त्र इत्यादि से अपने अपने गौत्र का उच्चारण करके अपने परिवार व अपने लिये विशेष पूजा करके माँ का आर्शीवाद प्राप्त करते हैं। अंत में हवन यज्ञ भी किया जाता है। देश, दुनिया और समाज तथा हर प्राणि के कल्याण के लिए माँ भगवती के समक्ष आहुति दी जाती हैं। तथा प्रार्थना की जाती है कि हे माँ इस जगत में सबका भला करना सबका कल्याण करना और सबको धन-धान्य से पूर्ण कर देना।
इस उत्सव के अंतिम दिन ‘दशमी‘ को दुर्गा माता की प्रतिमाओं की शोभायात्रा निकाली जाती है। चारों तरफ नाच-गाना होता है। प्रतिमाओं को विसर्जित करने के लिए नदियों या अन्य जलीय स्थानों पर ले जाया जाता है और जलाशयों में प्रतिमाओं का विर्सजन किया जाता है। इसके बाद भक्तगण दोस्तों और परिजनों से मिलने जाते हैं, बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं, मिठाइयों और स्वादिष्ट पकवानों का आनंद उठाते हैं, और पारंपरिक परिधान धारण करते हैं।
भारत के प्रत्येक प्रान्त में तथा जनपदों में दुर्गा पूजा से जुड़े समारोहों और गतिविधियों का आयोजन किया जाता है जिसमें अक्सर देशी विदेशी पर्यटक भी हिस्सा लेते हैं, 
यह उत्सव कोलकाता, पश्चिम बंगाल का मुख्य उत्सव है। पश्चिम बंगाल में इस उत्सव के कारण कई दिनों की छुटिटयां घोषित हैं जिसके कारण पूरा पश्चिम बंगाल इस उत्सव में तन, मन, धन से जुट जाता है और हर कोई भरपूर आनन्द उठाता है। यहाँ आपको पूजा पंडालों में नृत्य, नाटक आदि के प्रदर्शन देखने को मिलेंगे, आजकल पूजा पंडालों में मुम्बई, दिल्ली के सिनेमा के कलाकारों को या अन्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकारों को बुलाकर भव्य आयोजनों के माध्यम से सांस्कृतिक छटा विखेरी जाती है।  बंगाली व्यंजन और सड़कों पर जगह-जगह स्टॉल मिलेंगे जहाँ आप बंगाल की सांस्कृतिक चीजें खरीद सकते हैं। या व्यंजनों आनन्द ले सकते हैं। यहाँ माता दुर्गा के हजारों विशाल ‘पंडाल’ जगह-जगह देखने को मिलते हैं। आज दुर्गा पूजा पंडालों में और दुर्गा प्रतिमाओं तथा उनको वर्तमान परिस्थितियों व राजनैतिक परिदुश्यों के साथ- साथ आधुनिकता का समावेश देखने को मिलता है। निकट स्थित उत्तरी कोलकाता के कुमारटुली में, जहाँ दुर्गा माँ की ज्यादातर प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। उनमें से कई का निर्माण मिट्टी से किया जाता है, और दुर्गा पूजा के दौरान यहीं पर माता दुर्गा की प्रतिमाओं पर आँखों को अन्तिम समय में तैयार किया जाता है जो आकर्षण का केन्द्र होता है।
मथुरा में सर्वप्रथम दुर्गा पूजा का आयोजन वृन्दावन के राधावाग स्थित कात्यायनी मंदिर से शुरू होने का प्रमाण मिलता है। केशवानन्द जी महाराज ने सर्वप्रथम मिटटी की मूर्ति बनवा कर इस स्थान पर दुर्गा देवी की पूजा की थी। यह स्थान सिद्ध स्थान कहलाता है तथा पुराणों में वर्णित स्थान है यहां सती भगवती देवी के केश गिरे थे। ऐसा कहा जाता है कि राधारानी और ब्रजांगनाओं ने स्वयं माँ दुर्गा की पूजा की थी। इस स्थान को पुनर्रूद्धार केशवानन्द जी महाराज ने किया था। जब कलकत्ता से अष्टधातु की मूर्ति बन कर वृन्दावन आ गयी और 1 फरवरी 1923 को विधि विधान से प्राण प्रतिष्ठा बंगाल के तथा भारत अन्य जगहों के विद्वान ब्राम्हणों पंडितों के द्वारा कराया गया। इसके वाद कात्यायनी मंदिर से माँ भगवती का आर्शीवाद लेकर वृन्दावन के धनी मानी लोगों ने फौजदार कुंज में मिटटी की प्रतिमा बनाकर पूजा शुरू की गयी। लगभग 1925 के आसपास वृन्दावन में दुर्गा पूजा की शुरूआत की गयी। आज वृन्दावन में छोटे बड़े मिलाकर 18 दुर्गा पूजा पंडाल सजाये जाते हैं।
मथुरा में भी दुर्गा पूजा लगभग 1930 के आसपास शुरू हो गयी थी इसके प्रमाण मिलते है की उस समय मथुरा के तत्कालीन तीन बंगाली प्रसिद्ध डाक्टरों डा0 नगेन्द्र नाथ चौधरी, डा0 हीरालाल गांगुली, और डा0 प्रमथ नाथ गोस्वामी ने दुर्गा पूजा का आयोजन लाल दरवाजा से किया था। आज मथुरा में दो स्थानों पर दुर्गा पूजा का आयोजन निरन्तर किया जा रहा है। एक लाल दरवाजा और दूसरी रेलवे ग्राउन्ड में दुर्गा पूजा विशाल रूप ले चुकीं हैं। अमर नाथ स्कूल के अलावा रिफाइनरी टाउनशिप में भी दुर्गापूजा के आयोजन होते हैं।
दिल्ली के चित्तरंजन पार्क में भी दिल्ली शहर का सबसे पुराना दुर्गा पूजा उत्सव आयोजित किया जाता है, जिसे अक्सर “छोटे कोलकाता” के रूप में जाना जाता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे पूरा बंगाल दिल्ली में आ गया हो।
मुम्बई में, सन् 1950 से बंगाल क्लब शिवाजी पार्क में दुर्गा पूजा आयोजित कर रहा है। इसके अलावा, लोखंडवाला गार्डन में एक अन्य दुर्गा पूजा आयोजित की जाती है जिसमें आमतौर पर बड़ी हस्तियां शामिल होती हैं। इनके अलावा भी सैकड़ों दुर्गा पूजा पंड़ाल बनते हैं।
दुर्गा पूजा के त्योहार के दौरान बंगाली सभ्यता और संस्कृति के बारे में काफी नजदीक से देखा व कुछ-कुछ सीखा भी जा सकता है। यह उत्सव मन में उमंग, रंगारंग और लोगों में उत्साह और श्रृद्धा भक्ति से भरा होता है।

सुनील शर्मा 
डीग हाउस, लाल दरवाजा, मथुरा

मंगलवार, 25 सितंबर 2018

इन राष्ट्र भक्तों की मृत्यु के रहस्यों से पर्दा कब हटेगा।

देश के सर्वमान्य नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु आज तक एक रहस्य है। जिसे आज तक देश बासियों ने स्वाकीर नहीं किया। 23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया गया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार में दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिये 1956 और 1977 में दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी उस ताइवान देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं की। और वहां की सरकार ने ऐसे किसी दुर्घटना होने को सिरे नकार दिया था। जिस मंदिर में अस्थियां रखे होने की वात की जाती है वह भी किसी जापानी नागरिक की हैं।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। 18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।

देश के दूसरे जनता के प्रिय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को एक सोची समझी साजिश के तहत रूस बुलवाया गया था। जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था। हमेशा उनके साथ जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला फुसलाकर इस बात के लिये मनाया गया कि वे शास्त्रीजी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें और वे भी मान गयीं। अपनी इस भूल का श्रीमती ललिता शास्त्री को मृत्युपर्यन्त पछतावा रहा। जब समझौता वार्ता चल रही थी तो शास्त्रीजी की एक ही जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्तें मंजूर हैं परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज़ मंजूर नहीं। काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्रीजी पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करा लिये गये। उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किये थे कि वे हस्ताक्षर जरूर कर रहे हैं पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधानमन्त्री ही लौटायेगा, वे नहीं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि क्या वाकई शास्त्रीजी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? कई लोग उनकी मौत की वजह जहर देने को ही मानते हैं।
राष्ट्रभक्त जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी कलकत्ता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का जन्म हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। डॉ॰ मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया तथा 1921 में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की। 1923 में लॉ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात् वे विदेश चले गये और 1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कर ली थीं। 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। डॉ॰ मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ॰ मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु आज तक एक पहेली बनी रही किसी भी सरकार ने उनकी मृत्यु पर से पर्दा नहीं हटाया।
दीनदयाल उपाध्याय का जयपुर जिले के धानक्या ग्राम में, नाना चुन्नीलाल के यहाँ हुआ था। इनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय नगला चंदभान( फरह, मथुरा) के निवासी थे। माता रामप्यारी धार्मिक वृत्ति की थीं। पिता रेल्वे में जलेसर रोड स्टेशन पर सहायक स्टेशन मास्टर थे। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर ही बीतता था। कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गये थे। अतः कालेज छोड़ने के तुरन्त बाद वे उक्त संस्था के प्रचारक बन गये और एकनिष्ठ भाव से संघ का संगठन कार्य करने लगे। उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे।
सन १९५१ ई० में अखिल भारतीय जनसंघ का निर्माण होने पर वे उसके संगठन मन्त्री बनाये गये। दो वर्ष बाद सन् १९५३ ई० में उपाध्यायजी अखिल भारतीय जनसंघ के महामन्त्री निर्वाचित हुए और लगभग१५ वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसम्बर १९६७) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। ११ फरवरी१९६८ की रात में रेलयात्रा के दौरान मुगलसराय के आसपास उनकी हत्या कर दी गयी।
विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में समतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए सिर्फ ५२ साल की उम्र में अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिए। आकषर्क व्यक्तित्व के स्वामी दीनदयालजी उच्च-कोटि के दार्शनिक थे किसी प्रकार का भौतिक माया-मोह उन्हें छू तक नहीं सका। पं0 दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय स्टेशन के आउटर पर हुई थी। उनकी हत्या दिल्ली सियालदाह गाड़ी से पटना जाते समय ट्रेन से गिरा दिये जाने के कारण हुई थी। जो आज भी एक रहस्यमयी मौत के रूप में जानी जाती है। आज तक सरकारों ने इस रहस्य से पर्दा हटाने की कौशिश तक नहीं की।

बुधवार, 5 सितंबर 2018

एससी-एससी एक्ट को लेकर भागवताचार्य ने केन्द्र सरकार के खिलाफ मौर्चा खोला।

सवर्ण समाज को लेकर जगह जगह रैली कीं।

वृन्दावन में विप्र महाकुंभ के जरिए सरकार पर बरसे।

एससी-एसटी एक्ट और मंदिर अधिग्रहण जैसे सरकार के कदमों से नाराज है विप्र समाज

सर्वसमाज के व्यापक आन्दोलन की चेतावनी।


मथुरा। एससी-एसटी एक्ट संशोधन विधेयक के खिलाफ मुहिम शुरू करने को वृन्दावन के भागवताचार्य को क्यों कूदना पड़ा। इस विधेयक के खिलाफ सभी राजनैतिक दलों के तथा उनके नेताओं रवैए से आज सवर्ण समाज बुरी तरह आहत है और इसी को हथियार बना कर वृन्दावन के सुप्रसिद्ध भागवताचार्य देवकी नन्दन ठाकुर जी ने देश के सवर्ण समाज को एक जुट करने का प्रयास किया है। उन्होंने कल ग्वालियर में सवर्ण समाज स्वाभिमान सम्मेलन और रैली के जरिए केन्द्र सरकार को हिलाने की कौशिश की है। और वृन्दावन में भी विशाल विप्र महाकुंभ को सम्वोधित करते हुए कथावाचक देवकी नन्दन ठाकुर जी ने कहा कि बिना जांच के गिरफ्तार करने का कानून तो पाकिस्तान तक में नहीं है। हम सरकार के खिलाफ नहीं है और न ही नोटा के पक्षधर हैं। लेकिन सामाजिक न्याय के पक्षधर अवश्य हैं। समाज के बीच में रहता हूँ और हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम गलत नीतियों का विरोध करें। इस लिए इस प्रकार के मुहिम को शुरू कर लोगों को जागरूक कर रहे हैं। वृन्दावन में होने वाले विप्र महाकुंभ में लाखों लोगों के जुटाने का अनुमान तहत वृन्दावन में हर वर्ग समाज के लोग इस महाकुंभ में शामिल होंगे तथा समाज के गणमान्य लोग साधु संत भी मंच पर होंगे। आन्दोलन के जरिए केन्द्र सरकार को चेतावनी देंगे कि वह एक्ट को लेकर अपना फैसला बदले नहीं तो सर्व समाज व्यापक आंदोलन करेगा। ठाकुर जी ने कहा कि एससी-एसटी एक्ट के नाम पर समाज को बांटने की कौशिश की जा रही है। देश की 130 करोड़ जनता सरकार बनाती है वही जनता आपको सबक भी सिखायेगी।
धर्मनगरी के विप्रों ने भाजपा शासित केंद्र और प्रदेश सरकार की नीतियों की खिलाफत का बिगुल फूंक दिया है। धर्म नगरी से उठी ये हूंकार प्रदेश भर में जल्द ही बड़े आंदोलन का रूप ले सकती है। छटीकरा वृंदावन रोड पर शांतिधाम आश्रम के सामने आयोजित हुए विप्र महाकुंभ में अनूठी विप्र एकता देखने को मिली। दूसरी ओर जो संत महंत और भागवताचार्य भजापा का गुणगान करते नहीं थकते थे बुधवार को उन्हीं के मुख से भाजपा के लिए कड़वे वचन सुनने को मिले। जानकारों का मानना है कि  राजनीतिक रूप से भी इस आयोजन का आगामी दिनों में व्यापक असर देखने को मिल सकता है।
भागवताचार्य ठाकुर देवकीनंदन महाराज ने कहाकि राजनीतिक दलों का उद्देश्य ब्राह्मण समाज को बांटना है। भाजपा सरकार अनावश्यक रूप से मंदिरों के अधिग्रहण की बात कह कर दखल देना बंद करे। मंदिरों पर सेवापूजा ब्राह्मणों का अधिकार है, सरकार की इस तरह की हरकतों को कतई बर्दास्त नहीं किया जाएगा। हम कानून बनाने वालों को बनाते हैं, हमारी ताकत किसी से कम नहीं है।

युवा विप्रों ने निकाली बाइक रैली
मुख्य कार्यक्रम से पहले युवा विप्रों ने बाइक रैली निकाली। रैली में बड़ी संख्या में विप्र युवा शामिल रहे।

खुल कर नहीं बोल पाये कई बड़े नेता
हालांकि महाकुंभ में सरकार से नजदीकी के चलते कई बड़े विप्र नेता खुल कर नहीं बोल सके। मंच से दबे स्वर में विप्रों ने यहां तक कहा कि सरकार इसके बाद झूंठे केसों में फंसाने का प्रयास भी कर सकती है।

ये हैं विप्रों की मुख्य मांगें
-एसी एसटी एक्ट को सुप्रीम कोर्ट के आधार अनुसार ही लागू किया जाये
-सवर्ण आयोग का गठन किया जाये
-कश्मीरी ब्राहमणों को पुनःस्थापित किया जाये
-श्रीगीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कर, पाठ्यक्रम में शामिल किया जाये
-सनातन धर्म के ग्रंथ एवं देवी देवताओं की प्रतिमाओं को अपमानित करने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने एवं सख्त दण्ड का विधान हो, इस पर ईशनिंदा जैसा कड़ा कानून बने
-संपूर्ण भारत वर्ष के तीर्थ स्थलों मंदिरों में पंडा पुजारियों एवं तीर्थ पुरोहितों का संरक्षण किया जाये
-भगवान श्री परशुराम जी की जयंती पर राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाये
-संपूर्ण ब्रज चौरासी कोसा यात्रा को तीर्थ स्थल घोषित किया जाये

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता आचार्य बद्रीशजी, महेश पाठक, राजाबाबा, बिहारी लाल वशिष्ठ, नागेंद्र दत्त गौड़, आचार्य अचुत्यकृष्ण, आचार्य रामविलाश चतुर्वेदी, पन्नालाल गौतम, विपिन बाबू, अशोक शास्त्री, जगदीश प्रसाद सौपानियां, अतुल कृष्ण शास्त्री, तुलसी स्वामी, सौरभ गौड़, अनुरुद्ध शर्मा, सत्यमित्रानंद स्वामी, श्याम सुंदर ब्रजवासी, अभिषेक कृष्ण इंद्रेश शास्त्री, शशि शुक्ला, डा.रश्मि शर्मा, हरिवंश मिश्रा, अशोक व्यास, राजेदं्र बिदुआ, गजेंद्र शर्मा, उदयन शर्मा आदि विप्र मुख्यरूप से मंच पर मौजूद रहे। बड़ी संख्या में विप्रों ने उपस्थित होकर दिखाई अपनी शक्ति।

रविवार, 2 सितंबर 2018

भगवान श्री कृष्ण को छप्पन भोग क्यों प्यारा है।

भगवान श्री कृष्ण को छप्पन भोग क्यों प्यारा है।
-सुनील शर्मा
ब्रजभूमि में एक लाकोक्ति बहुत प्रसिद्ध है--
हलुआ में हरि बसत हैं, घेबर में घनश्याम।
मक्खन में मोहन बसैं, रबड़ी में श्री राम।।


तीन लोक से न्यारी ब्रजभूमि प्राचीन सोलह महाजनपदों में जिस शूरसेन प्रदेश का उल्लेख मिलता है, उसी में से मथुरा भी एक रही है। पूर्णावतार आनन्द कंद भगवान श्री कृष्ण ने पावन भूमि में जन्म लेकर अपनी प्रारंभिक अठखेलियां और लीलाएं जहां की, वहां का कण-कण आज तक रससिक्त और रससिद्ध है और रहेगा। ब्रजभूमि की लता-पताएं ही नहीं, जीव-अजीव भी दिव्य हैं। जो भगवान श्रीकृष्ण के लिए आज भी अधीर हो उठता है। जिस भूमि में ऐसे रसीले, सजीले मोहक ठाकुर ने जन्म लिया हो, तो वहां के रहने वाले ब्रजवासियों का साक्षात् जीवन भी क्यों न वैसा ही रसीला, सजीला और मोहक होगा। यही कारण है कि संपूर्ण भारत भर के सभी मनीषियों, ज्ञानियों, बौद्धिकों यहां तक कि घर-बार छोड़ने वाले बाबा-बैरागियों तक को इस भूमि ने कान्हा के नाच में नचा दिया। ज्यादा क्या कहैं, मुस्लिम फकीर भी अपना तंबूरा-इकतारा लेकर यहां गा उठे-

‘‘मानषु हौं तो वही रसखानि, बसों ब्रजगोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि कौ, जो धर्यौ हरि छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करौं, नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।।’’

ब्रजभूमि की संस्कृति, मंदिर संस्कृति है। मेरे जैसे मूढ़ अज्ञानी अपनी मोटी बुद्धि से संस्कृति की परिभाषा, लोकलाज, रहन-सहन, खान-पान, काम-संबंध (विवाह-उत्तराधिकर) तथा उपासना परंपराओं में करते हैं। इस दृष्टि से भी ब्रजभूमि की संस्कृति में मंदिर संस्कृति की पूरी छाप है। ज्ञानी ध्यानी लोगों ने शेष बातों पर मोटे-मोटे ग्रंथ रचे हैं। पर जैसा भोजन भट्ट ब्राह्मण तो खाने-पीने की बात करेगा, सो मैं यहां ब्रजभूमि की छप्पन भोग संस्कृति की चर्चा कर रहा हूँ।
भगवान श्री कृष्ण जब ग्वाल बालों के साथ वन में गाय चराने जाते थे उस समय ग्वाल बाल अपने-अपने घरों से नाना प्रकार के व्यंजन लेकर आते थे और कृष्ण कन्हैया को, अपने बाल सखा को पहले चखाते थे। अलग-अलग वन में तरह-तरह के व्यंजनों का स्वाद चखते चखाते यह परम्परा आज भी उसी भाव से निभाई जा रही है। जो कुछ भी हमें प्रिय है वह हम अपने लाला कन्हैया, गोपाल या कृष्णा को भोग के रूप में लगाते हैं।

आज भले ही ‘‘छप्पन भोग’’ शब्द और छप्पन भोग की परिकल्पना देश-विदेश तक व्याप्त हो गई हो, पर संभवतः लोगों को पता नहीं, कि इस रसपूर्ण खान-पान का संबंध न केवल कान्हा की ब्रजभूमि से है। बल्कि इसका प्रणयन भी इसी मांटी से है। अज्ञानी तो अज्ञानी, निरे ज्ञानियों को भी यह नहीं मालूम, कि षटरस व्यंजनों की जिह्वा स्वाद वाले छप्पन भोग का मतलव छप्पन प्रकार के व्यंजनों से नहीं है। न ही, छप्पन प्रकार के ‘पकवानों’ से इसका कोई लेना देना है। आज दुनिया भर के सभी मंदिरों में ‘‘छप्पन भोग’’ लगाया जाता है, और 56 डिशों में इसका पारायण कर गद्गद हो जाते हैं, सो उनकी भावपरायणता पर कोई टिप्पणी नहीं है। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। परन्तु अपनी राय में तो यहां हम यह बताने बैठें हैं, कि इस छप्पन भोग का दैहिक, दैविक और भौतिक इतिहास- भूगोल क्या है, और इसका ब्रजसंस्कृति से कैसे लेना- देना है ?

ब्रजभूमि में कान्हा की पूजा पंरपरा सदियों से चलती आ रही है। द्वारकागमन के पश्चात् भले ही ब्रज के राजा, बडे़ भईया दाऊजी, बल्देव बने, परन्तु पारंपरिक श्रुति है कि श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने उनका एक मंदिर यहां बनवाया था। सदियों की पूजा परंपरा के बाद, विदेशी आक्रांताओं द्वारा मात्र मंदिर ही नहीं, संस्कृति तक को ध्वस्त कुलसित किया गया । इतिहास विमर्श को छोड़, हम सीधे 15 वीं सदी में जाते हैं, जब दो महामनीषियों ने पुनः इस पावन भूमि के दिव्यदर्शन किए और लोगों को कराए। ये दो दिव्य अबतारी पुरूष थे- बंग प्रांतीय श्रीमद् चैतन्यमहाप्रभु और महाराष्ट्र प्रान्तीय श्रीमद् बल्लभाचार्य जी। चैतन्य ने यमुना तीरे दिव्य वृन्दावन को खोजा, तो बल्लभाचार्य ने गोवर्धन पर्वत की तलहटी से गोवर्धन धारी श्रीनाथजी का प्राकट्य किया। श्रीनाथ जी, गोवर्धन की तलहटी में जतीपुरा में विराजमान् हुए तो चैतन्य के शिष्य सनातन गोस्वामी ने जयपुर नरेश राजा मानसिंह के सहयोग से वृन्दावन में श्रीकृष्ण का विशालतम गोविन्ददेव मंदिर बनवाया था। इस तरह ब्रजभूमि में कान्हा की संस्कृति की पुनः प्राण प्रतिष्ठा हुई।
ब्रज के छैल छबीले, नटखट और रसिक कन्हैया के भोग राग के लिए तत्कालीन युग में तीन संस्कृतियों के मिश्रण से जिस मौजूदा ‘‘छप्पन भोग’’ का प्रणयन हुआ, उसकी कथा बड़ी रोचक है।

बंग संस्कृति में अन्नकूट की बड़ी महिमा है। श्रीमद्भागवत के अनुसार, श्रीकृष्ण ने इंद्र पूजा के निमित्त बनवाए गए नाना प्रकार के व्यंजन-पकवानों का स्वयं गोवर्धन के रूप में भक्षण और आरोगन किया, वह बिलक्षण कथा है। स्वयं द्वारा स्वयं की पूजा गोवर्धन पर्वत की पूजन परंपरा में, इस तरह, ब्रजकी लोक परंपरा प्रारम्भ से ही निहित थी, सो जब तैलंग महाप्रभु बल्लभाचार्य ने इस परम्परा की पुष्टि की और उसे ‘श्रीनाथजी’ को अरोगा, (अर्थात प्रस्तुत किया) तो यह मंदिर -परंपरा बनी। प्रारम्भ में यह दीपावली के दूसरे दिन (प्रथमा) से शुरू हुई जो अद्यातन है। बंग प्रान्तीय सनातन गोस्वामी के शिष्यों ने इसे ‘अन्नकूट’ का नाम दिया, जिसमें पकाए हुए चावलों का ढेर और कुछ गीली, सूखी, तरकारियों के साथ-साथ लोक मिष्ठान्न खीर (पायस) को भी परोसा गया। उद्देश्य स्पष्ट था- अपने आराध्य को षट्रस व्यंजनों का आस्वादन देना- खट्टा, मीठा, चरपरा, नमकीन, कसैला और कड़वा। बंग भूमि में करेले के अलावा कड़बे नीम की पत्तियों से भी अधतन भाजी बनाने का रिवाज आज भी आम चलन में है।
इसी मध्य ब्रजभूमि की पारंपरिक भौगोलिक सीमा की चौरासी कोसीय परिधि की परिक्रमा की भी पुनः प्रतिष्ठा हुई।
इस चौरासी कोस की परिक्रमा परिधि में वे सभी वन, उपवन, कुड़, पोखर, वृक्षावलियां और स्थान सम्मिलित थे, जिनका संबंध श्रीकृष्ण की बाल्य कालीन लीलाओं से था, जिन में गौचारण से लेकर कंदुक क्रीड़ा, रासलीलाएं और असुरादि वधों के भागवत प्रसंग थे।
इस प्ररिक्रमा में धीरे-धीरे सहस्त्रों लोगों ने संकीर्तन आदि के साथ भाग लेना प्रारम्भ किया। इनमें दोनों आचार्यों, चैतन्य एवं बल्लभाचार्य- के अनुयायियों ने भाग लेना प्रारम्भ किया। ब्रज में चैतन्य के प्रथम शीर्ष अनुयायी थे श्रील सनातन गोस्वामी। एवं बल्लभाचार्य जी के अनुयायी बने उन्हीं के यशस्वी पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ जी।
लगभग 40 दिनों में संपूर्ण होने वाली यह परिक्रमा की परम्परा जिन जिन पड़ावों पर रात्रि विश्राम करती थी, उन-उन सभी पड़ाव स्थलों पर, लीलास्थल की घटना और लोक परंपरा के अनुसार, वहीं कान्हा की चल प्रतिमा (साथ लेकर चलने वाली पूज्य प्रतिमा) को भोग लगाया जाता है। यह परंपरा आज भी जारी निभाई जा रही है।

कालांतर में, गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के जीवन काल में ही, इन पड़ाव स्थलों की संख्या, घटने-बढ़ते, अतंतः 56 स्थलों में परिगणित हो गई। इन 56 पड़ाव स्थानों पर, लीलाभूमि की कथा, स्थानीय भोग लगाने की पंरपरा, तथा कुछ निजी भाव भूमि ने ऐसा रंग भरा, कि कहीं ठाकुर का माखन-मिश्री से, तो कहीं कढ़ी चावल से, कहीं खीर से, तो कहीं न्यूनाधिक व्यंजनों से भोग लगाया जाने लगा, । (बल्लभ संप्रदाय में भोग लगाने को भोग अरोगना कहने की पंरपरा है) धीरे-धीरे प्रत्येक पड़ाव स्थल पर 56 पड़ाव स्थलों के समस्त प्रकार के भोगों के प्रकारों की संख्या 300 से भी ज्यादा हो गई। इनमें माखन मिश्री से लेकर सŸा तक, फलों के शरबत से लेकर नानविध व्यंजन तक, तभी षट्रस शामिल थे।
ब्रजभूमि में तत्कालीन पंरपरा रही थी कि चौरासी कोस की परिक्रमा का प्रारम्भ उस तिथि से किया जाए ताकि उसका समापन दीपावली के दूसरे दिन हो। समान्यः इसमें वैरागी, साधु और गृहभार से मुक्त गृहस्थी भाग लेते हैं। और अंततः भक्तों के मनोरथ की ध्यान में रखकर यह पंरपरा बन गई कि 56 पड़ाव स्थलों की समस्त प्रकार के भोगों को एक ही दिन, एक ही स्थान पर प्रदर्शित किया जाए, भगवान को अर्पित किया जाए और भक्तों को प्रसाद रूप में बांटा भी जाए, ताकि वे 84 कोस की यात्रा का भी पुण्य सभी प्रसाद प्राप्त कर सकें। कुल मिलाकर 56 भोग की यही कथा है। यह ब्रज चौरासी कोस परिक्रमा के 56 पड़ाव स्थलों पर नाना रूपों में अरोगे गए भोगों का, एक ही स्थान पर एक साथ आरोगन है। इन भोगों की संख्या 300 प्रकार से भी ऊपर होती है, न कि सिर्फ 56। हां यह भक्तों का भाव है कि वे इसे अपनी क्षमता या जिह्वा आस्वादन के अनुसार 56 व्यंजनों तक सीमित रखें।
तथ्यान्वेषण से पता चला है कि ब्रजभूमि में ऐसा प्रथम महाआयोजन, 15 वीं सदी में ही, बल्देव जी के मंदिर में गोस्वामी बिट्ठलनाथ जी ने संपन्न  कराया था। मौजूदा श्री नाथ जी मंदिर, नाथद्वारा में, प्रत्येक वर्ष दीपावली के दूसरे दिन अन्नकूट और छप्पन भोग का महाकार्यक्रम होता है।

छप्पन भोग, जो सिद्धांत रूप से भगवान को अर्पित किया जाने वाला (और बाद में स्वयं द्वारा प्रसाद रूप में खाया जाने वाला) खाद्य प्रसाद है। इसमें, फल, सब्जी से लेकर समस्त प्रकार के शाकाहारी व्यंजन, दाल, रोटी, परांठा, पूरी, कचौड़ी, मिष्ठान्न, खीर, नमकीन, शर्बत, रस, अचार, चटनी, मुरब्बे तक शामिल हो सकते हैं। बल्लभ कुलीन अब इसे ‘‘छप्पन भोग’’ की रस सिद्धि के अलावा क्या कहें कि अब छप्पन भोग, देश में ही नहीं, विदेशों तक फैल गया है। और इसे हिंदू संस्कृति के महान पांथिक सम्भाव के अलावा और क्या कहें कि अब हनुमान मंदिरों में, शनि मंदिरों में, यहां तक कि काली मां के मंदिरों में भी छप्पन भोग के आयोजन होने लगे हैं। एक ब्रजवासी होने के नाते मुझे इसका बेहद गर्व है और आपको भी होना चाहिए। और अंत में ‘‘सूरसागर’’ में महाकवि सूरदास ने छप्पन भोग लीला का जो मनोरम वर्णन किया है, वह पठनीय है। उसकी चर्चा फिर कभी।
सुनील शर्मा ‘पत्रकार’
मथुरा

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

आजकल फेसबुक डाटा लीक मामला खूब सुर्खियों में है।


आजकल फेसबुक डाटा लीक मामला खूब सुर्खियों में है।
सुनील शर्मा
ऐसा हो भी क्यों न आपकी हमारी सभी की निजी जानकारियों से जुडा मामला जो ठहरा, फेसबुक पर हम अपनी फोटो, अपने परिवार के हर सदस्य की फोटो बडे़ ही शौक से फेसबुक पर शेयर करते हैं। अपने आप को गर्व महसूस करते हैं कि पत्नी के साथ या परिवार के साथ कहां कहां घूमने गये। फोटो ली और डाल दी फेसबुक पर यह सबको पता चल जाता है कि आपकी पत्नी कौन है, आपके पति कौन है, आपकी बेटी कौन है तथा बेटा कौन है, कहां कहां पढ़ते हैं। आप कहां पढे़ हैं, कहां तक पढे़ हैं। आपके कौन-कौन मित्र हैं। आप कहां रहते हैं तथा आपकी रूचि क्या है। आप किस-किस को पसन्द करते हैं। यहां तक कि आप किस पार्टी या नेता को चाहते हैं दिन भर अपने चहेते नेताओं को कौसने का काम या उनकी प्रशन्सा करते हैं। यह सब जानकारियां फेसबुक के पास है और हमेशा रहेंगी। फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने तो अपनी गलती मान ली है और आगे ऐसा नहीं होगा यह भी कह दिया है। शायद ऐसा होगा भी। शायद आपको पता नहीं है कि आपकी जानकारी आपके आस पास ही मोबाइल की दुकान का मालिक भी आपकी जानकारी व आपके मोबाइल नम्बर की जानकारी किसी और को बेच रहा है।
यह काम हर गली मौहल्ले में हर कस्बे में खुली दुकानों से होता है और यही नही मोबाइल का सारा का सारा डाटा किसी न किसी को बेचा जाता है। जब आप अपने मोबाइल को रिचार्ज कराने के लिए जाते हैं तो वह एक बडे़ से रजिस्टर में आपके नम्बर को लिखता है या आपको नम्बर लिखने को कह देता है। और हम सब सहज भाव में दुकानदार के रजिस्टर या कापी में अपने नम्बर को दर्ज कर देते हैं। एक कापी या रजिस्टर के भरने से दूसरा रख दिया जाता है लेकिन किसी को नही पता होता है कि यह रजिस्टर भी कम्पनियां खरीद कर ले जाती है। यह भी बड़ी-बड़ी कम्पनियों के विज्ञापन प्लानिंग का एक हिस्सा होते है।


आपने कभी सोचा है कि आपके पास इन्श्योरेन्स कम्पनी या अन्य तरह-तरह के उत्पाद बेचे जाने के लिये अक्सर अन चाहे कॉल आते है। ‘‘आपको ऑफर दिया जा रहा है’’, ‘‘आपकी लाटरी निकली है’’, बैक की तरफ से फोन किया गया है कि ‘‘आप अपने एमाउन्ट या अन्य जानकारियां दें’’, टटलुओं के फोन भी आते हैं कि ‘‘सौने की ईंट मिली है हमें बेचनी है’’ आदि-आदि हम आसानी से इनके झांसे में आकर और इनके हाथों ठगी का शिकार हो जाते है। महिलाओं को इस प्रकार कॉल अधिक आते हैं। क्यों कि महिलाओं को आसानी से जाल में फंसाया जा सकता है।
इसके साथ ही यदि आपके घर पर पत्नी या बच्ची है और उसे अपना मोबाइल रीचार्ज कराना हो तो वह पडौस की दुकान से रीचार्ज कराने चली जाती है और उसी रजिस्टर में वह भी अपना नम्बर अंकित कर आती है। तो गली मौहल्ले के आस पडौस के असामाजिक तत्व लडकियों को वेबजह फोन करके परेशान करने की घटनाएं भी होती हैं। क्यों कि उनको लडकियों के नम्बर उस रजिस्टर से आसानी से मिल जाते है।
आपने कभी सोचा है कि चुनाव आते ही कुछ रिकार्ड की गई कॉल भी आती है जिसमें कहा जाता है कि ‘‘मैं अमुक विधायक या सांसद का प्रत्याशी बोल रहा हूँ’’, या ‘‘आपके शहर का जनप्रिय प्रत्याशी या आपका जाना पहचाना आपका अपना बोल रहा हूँ आप मुझे वोट करें या मुझे एक मौका अवश्य दें’’। या पार्टी का ही कॉल आ जाता है कि अबकी वार ....। सबको देखा बार बार अबकी बार.....। यह सब कॉल कैसे और कहां से आती हैं। असल में कुछ सर्वे का काम करने वाली कम्पनियां साम दाम दण्ड भेद या किसी भी जुगाड से इस प्रकार के डाटा को आपके पास की दुकान से हांसिल करती हैं और यह एक चैन के रूप इस प्रकार के डाटा की कीमत देकर खरीदा जाता है। फिर कम्पनी इस प्रकार के डाटा को चुनावों में प्रत्याशी को बता कर कि हमारे पास आपके शहर के इतने लाख लोगों के मोबाइल नम्बर हैं इसी के आधार पर प्रत्याशी या कम्पनियां समय-समय पर आपको मोबाइल पर तरह-तरह के उत्पाद या बीमा बेचने से लेकर तरह-तरह के ऑफर बता कर आपको परेशान करते हैं।
चुनावों में नेताओं के विज्ञापन भी आपको सुनने पडते हैं तथा समय-समय पर जैसे नववर्ष, होली, दीपावली, जन्माष्टमी की शुभकामनाएं, आपको न चाहते हुए भी सुननी पडती है। जैसे ‘‘मैं .....बोल रहा हूँ आपको नववर्ष मंगलमय हो’’ ऐसा एक वर्ष या पांच वर्ष इस लिये सुनाया जाता है कि आप नेता जी को कभी भूलें नहीं और चुनाव आने पर आपकी स्मृति में नेता जी की छवि और उनके मीठे बोल जो उन्होंने पूरे पांच वर्ष सुनाये हैं वह आपको याद आ जावें।
इसके लिये तमाम नेताओं ने अपने यहां कम्प्युटर भी लगा रखे है तथा स्टाफ भी लगा रखे हैं जो इस काम को करते हैं इसके लिए एक डौंगल भी खरीद कर अपने कम्प्युटर से अटैच कर रखे जाते हैं जिसमें शहर भर के लागों के मोबाइल फोन का डाटा खरीद कर उसमें डाल दिया है। दिन भर डाले गये डाटा के हिसाब से हर एक मोबाइल पर नेता जी का मैसेज पहुंचता रहता है। ‘‘मैं बोल रहा हूँ आपका अपना जनप्रिय आपको शुभकामनाएं’’। आपको न चाहते हुए भी उस मैसेज को सुनना ही पडेगा चाहें आप कितने भी व्यस्त हों या आप अपनी गाडी चला कर या बाइक पर जा रहे हों आपको नेता जी का मैसेज या किसी कम्पनी का मैसेज सुनना ही पडता है।
हर मोबाइल कम्पनी के पास अपने-अपने उपभेक्ताओं की पूरी जानकारी होती है वह उपभेक्ताओं की जानकारियों को भी बेचा या किसी को दिया जा सकता है। यह काम राजनैतिक पार्टियां और बड़ी-बड़ी कम्पनियां भी अपने-अपने लाभ के लिये करती हैं।
क्या इस प्रकार के डाटा की चोरी या खरीद फरोक्त को रोका जायेगा।
सुनील शर्मा मथुरा