शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

वृन्दावन और मथुरा के दुर्लभ श्रीषट्भुज महाप्रभु के मंदिर

वृन्दावन (मथुरा)। चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को समय-समय अनेक रूपों के दर्शन कराये थे जिसमें से एक षट्भुज अंग दर्शन भी कराये थे। जिसके दर्शन करने से षट् भुजाओं में श्रीकृष्ण, श्रीराम व स्वयं चैतन्य ने अपने आपको प्रस्तुत कर एक ही रूप में तीनों दर्शन करा दिये थे। इस रूप के दर्शन वृन्दावन तथा मथुरा के मंदिरों में होते हैं। वृन्दावन स्थित मंदिर का निमार्ण वि0सं0 1930 एवं षट्भुज महाप्रभु विग्रह की स्थापना वि0 सं0 1932 में श्रीराधारमण मंदिर के गोस्वामी श्री गल्लूजी “गुण मंजरी दास“ ने किया था। तथा मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान के निकट पोतराकुण्ड के समीप गुरूगोविन्द गौडिय मठ में भी इसी रूप के दर्शन होते हैं, जिसमें श्रीगौरांग महाप्रभु के विग्रह छः भुजाधारी महाप्रभु के वृंदावन तथा मथुरा में अति सुंदर दर्शन मंदिर में होते है। वृन्दावन में जहां उक्त मंदिर की स्थापना गोस्वामी गुल्लू जी द्वारा की गई है। वहीं मथुरा में इस रूप के श्रीविग्रह की स्थापना नवद्वीप पश्चिम बंगाल से आये गुरूगोविन्द दास ब्रह्मचारी बाबा महाराज ने की थी। मथुरा में उन्होंने सन् 1960 में ज्ञानवापी पोतरा कुण्ड के निकट जमीन खरीदी और 1998 में इस षट्भुज महाप्रभु जी के श्रीविग्रह की स्थापना की थी। वर्तमान सेवायत श्री कृष्ण प्रसाद दत्तगुप्त ने बताया कि महाराजश्री को स्वप्न में उक्त मूर्ति की स्थापित करने का आदेश हुआ था। जिसके वाद गुरूगोविन्द दास जी ने 1998 में षटभुज महाप्रभु जी के श्रीविग्रह को यहां स्थापित किया था। तभी से निरन्तर यहां सेवापूजा चलती आ रही है।
यह स्थान पुराणों में वर्णित है कि चैतन्य महाप्रभु यहां पधारे थे तथा यहां स्थित ज्ञानवापी में स्नान आदि के उपरान्त केशव देव के दर्शन किये थे। महाभारत काल का वर्णन भी इस स्थान का मिलता है। बताया जाता है कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने पुरी में श्री सार्वभौम भट्टाचार्य और कृष्णानगर आँध्रप्रदेश के गोदावरी तट पर रायरामानन्द को जो षट्भुज रूप के दर्शन कराये थे, वही विग्रह यहां विराजित है। अर्थात् उठी हुई ऊपर की दो भुजाओं में धनुष, बाण, (राम-स्वरूप दो भुजा मध्य भाग में अधर पर मुरली (कृष्ण स्वरूप) तथा दो भुजा में दण्ड और कमण्डलु के साथ प्रकट षट्भुज महाप्रभु श्रीविग्रह में स्थित है।
वृन्दावन के राधारमण मंदिर के गोस्वामी गल्लू जी ’गुण मंजरी दास’ का जन्म वि0 सं0 1884 सम्वत् जेष्ठमास कृष्णपक्ष अष्टमी को वृंदावन में ही हुआ था। आप राधारमण के गोस्वामी दामोदरदास के वंशज श्री रमणदयालु जी के सुपुत्र थे। अधिकतर समय पिता फर्रूखाबाद निवास करते थे। परम विद्वान भागवती पण्डित, उदारमना थे। उन्होंने भागवत से अच्छा चैतन्य मत का प्रचार प्रसार किया आपकी प्रथम् भागवत लखनऊ के शाह बिहारीलाल जी के यहां पर हुई थी। जिससे उन्हें प्रचुर मात्रा में धन चढ़ावे में मिला था, आपने जो कुछ मिला वह ठाकुरजी की सेवा में लगा दिया। वृन्दावन स्थित शाहबिहारी जी का मंदिर जिसे टेड़े खम्बे का मंदिर भी कहा जाता है उसके निमार्णकर्ता कुन्दनलाल जी और फुन्दनलाल जी आपको गुरू मानते थे। काशी, भरतपुर नरेश के यहाँ शाहजहाँपुर आदि अनेकों स्थानों पर रजवाड़ों में आपकी कथाएं होती थीं, यहां गाजे बाजे के साथ भागवत की इनकी सवारी निकलती थी। उस समय आपकी खूब धूंम रही मगर 1937 से आपने हमेशा-हमेशा के लिए वृन्दावन वास कर लिया था और ब्रजभाषा में ही कथा किया करते थे।
एक वार की घटनाक्रम है कि इनका फर्रुखाबाद से पहला विवाह सखीदेवी के साथ हुआ था और कुछ समय के उपरान्त वह इस दुनिया से चली गयीं। उनके जाने के बाद किसी प्रकार से भी आप दूसरे व्याह को राजी नहीं थे। किन्तु पिता जी का अनेक उपाय, आग्रह करते देख ब्रजधाम वृंदावन से ही ब्याह करने को राजी हो गये। अतः जगन्नाथ मिश्र की पुत्री सूर्यदेवी से दूसरा विवाह हुआ। व्याह के समय आपने अपने पिताजी से कहा कि, “जब पाँव में बेड़ियाँ पहनानी हैं तो लोहे की क्यों ? सोने की बेड़ी पहनाओ’’ अर्थात् वृन्दावन में ही ब्याह कराओ। बाहर की कन्या से नही। यहां गोस्वामी जी का वृन्दावन धाम के प्रति निष्ठा का भाव दिखाई देता है। एक बार जब भागवत करके आ रहे थे। डाकुओं ने धन समझकर ग्रन्थ की पूरी-पूरी पेटी ही लूट ली थी। आपके अनेक अनुरोध पर डांकुओं ने सब धन तो ले लिया, किन्तु ग्रन्थ रूपी धन को डांकुओं से वापस लेने में सफल हो गये थे। एक बार जब ललितकिशोरी जी के यहाँ भागवत वाँचते समय गोस्वामी जी ने कथा प्रसंग में बन्दूक छोड़ने का प्रसंग आया। तब आपने कहा कि, “लौह नलिका में श्याम चूर्ण प्रवेश करिकै अग्नि संस्कार कियौ तो भड़ाम शब्द भयो।’’ ऐसा सुनकर सब आश्चर्य चकित हो गए। आपके विषय में अनेक चर्चाएँ आज भी लोगों के मन मस्तिष्क में हैं। वह साहित्यिक व्यक्ति थे। राधारमण जी में अनन्य आस्था थी। हमेशा ही बोलचाल में भी ब्रजभाषा का ही प्रयोग करते थे। आपके हृदय में ऐसा भाव था कि कथा के द्वारा जो धन प्राप्त होता है वह भगवद् सेवा और साधु-वैष्णवों की सेवा में लगना चाहिए। अपने उपयोग में उतना ही लाना चाहिए जितना शरीर धारण करने के लिए आवश्यक हो। शरीर में अधिक लगाने से चित की वृत्ति चंचल हो जाती है। गल्लू जी ने अपने निवास स्थान पर षट्भुज महाप्रभु के मंदिर की स्थापना की। आपके प्रेममयी सेवा को स्वीकार करने के लिए प्राचीन विग्रह के रूप में महाप्रभु जी स्वयं आ गए। गल्लू जी बड़े प्रेम से सेवा करने लगे। आज भी दर्शन होते हैं।
कहा जाता है कि जब गल्लू जी ने वृंदावन से बाहर जाना बंद कर दिया। केवल राधा रमण जी एवं महाप्रभु जी की सेवा में ही लगे रहते थे। महाप्रभु जी ने लगभग 15 वर्ष की सेवा इस शरीर से स्वीकार की। एक दिन श्री राधारमण जी ने अपनी नित्य लीला में बुला लिया। दाह संस्कार के समय शरीर भस्मीभूत तो हो गया लेकिन उनके गले की कंठी (माला) नहीं जली। लोग माला के दाने ग्रहण करने के लिए टूट पड़े। जिस-जिस को माला के दाने प्राप्त हुए वह अपने आपको भाग्यशाली समझने लगा था। गल्लू जी ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। आज भी विभिन्न उत्सवों मंदिरों में गल्लू जी के पद गाए जाते हैं। आज भी श्रीषट्डभुज महाप्रभु जी का मंदिर राधारमण मंदिर और गोकुलानन्द मंदिर के रास्ते में बांईं ओर पर स्थित है। श्रीविग्रह श्रीषड़भुज महाप्रभु अति प्रचीन विग्रह प्रतिष्ठित मंदिर है। इनकी दो भुजाओं में वंशी है तो दो में धनुष बांण तथा दो में दण्ड और कमण्डलु है, अति दर्शनीय श्रीविग्रह है। कलियुग पावनावतार श्रीकृष्णचैतन्यदेव ने अनेक महान पुरूषों के सामने अपने अनेक अनेक रूप दरसाये हैं। उनमें से षड़भुज रुप का भी प्राकट्य किया है। विशेषतः श्री सार्वभौम भटटाचार्य को श्रीमहाप्रभु ने अपने षड्भुज रुप के दर्शन कराये थे। आत्म-निन्दा करि लैंन प्रभुर शरण। कृपा करिवारे तबे प्रभुर हाल मन।। देखाइलैन आगे तारे चतुर्भुज रूप। पाछेश्याम वंशीमुख स्वकीय स्वरूप।। देखि सार्वभौम पड़े दण्डवत करि। पुन उठि स्तुति करे दुई कर जुड़ि।। श्रीमन्महाप्रभु के श्रीमुख से अभिधेय, सम्बन्ध तथा प्रयोजनादि तत्त्वों की अदभुद व्याख्या सुनकर श्रीसार्वभौम विस्मित हो उठे थे। श्री सार्वभौम के मन में श्री चैतन्य महाप्रभु को लेकर एक धारणा थी कि यह एक युवक सन्यासी है और मैं इसे वेदान्त का अध्ययन कराऊंगा, वह घारणा जाती रही और अपनी निन्दा करते हुए स्वयं ही श्रीमहाप्रभु के चरणों में पड़ गए थे। तब श्रीमहाप्रभु ने कृपा करते हुए उन्हें अपने वास्तव स्वरूप के दर्शन कराये थे। पहले तो शंख चक्रगदा पद्मधारी चतुभुज वह रूप दिखाया जो श्रीवासुदेव के सामने अविर्भूत हुआ था। फिर वंशी बजाते हुए द्विभुज रूप जो ब्रज में लीला परायण था उसके दर्शन कराये। इस प्रकार परब्रहम स्वयं भगवान श्रीब्रजेन्द्रनन्दन रूप में श्रीमहाप्रभु ने श्रीसार्वभौम को अपने स्वरूप का परिचय दिया था। दोनों रूपों को मिलाकर श्रीषड़भुज की भावना की गई है।
इस प्रकार के दर्शन मात्र से मनुष्य का कल्याण हो जाता है जिसमें तीनों रूप एक साथ और षट्भुज महाप्रभु के दर्शन होते हैं। कहीं दो हाथों में ‘‘धनुष बाण’’ (श्रीराम रूप) दो हाथों में ‘‘वंशी बजाते’’ हुए (श्रीकृष्ण) और दो हाथों में ‘‘दंड कमण्डलु’’ (संन्यासी रूप) के चित्र भी देखने को मिलते हैं निधुवन के पास में श्रीगोपाल जी के मंदिर में भी षड़भुज जी के दर्शन हैं। इसी प्रकार से मथुरा में पोतरा कुण्ड के निकट ज्ञानवापी से लगा हुआ गुरू गोविन्द गौडिय मठ में भी षड़भुज महाप्रभु के दर्शन होते हैं यहां का भी एतिहासिक महत्व है। अति प्राचीन ज्ञानवापी है यहां जब ब्रज में चैतन्य महाप्रभु पधारे थे तो उन्होंने यहीं पर प्रथम आकर इसी ज्ञानवापी में स्नान किया फिर केशव देव के दर्शन किये थे। यहां पर भी षड़भुज महाप्रभु के दर्शन मिलते हैं।

बुधवार, 1 सितंबर 2021

श्रील प्रभुपाद असाधारण लेखक, शिक्षक व संत थे, उन्होंने उपदेशों से कृष्ण भावनामृत को पूरी दुनिया में फैलाया

मथुरा। (सुनील शर्मा) आज कृष्णकृपा मूर्ति ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद जी का जन्मोत्सव है। उनका जन्म 1 सितंबर 1896 को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से एक दिन वाद में हुआ था, उनका जन्म कोलकाता में एक कायस्थ बंगाली परिवार में हुआ। माता पिता ने उनका नाम अभय चरण रखा, (जो निडर, व भगवान के चरणों की सदैव कृपा पात्र थे) चूंकि वह नंदोत्सव के दिन पैदा हुये थे इस लिए उन्हें नंदलाल भी कहा जाता था। उनके माता-पिता, श्रीमन गौर मोहन डे और श्रीमती रजनी डे वैष्णव (विष्णु के भक्त) थे। 

अभय चरण डे की शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध स्कॉटिश चर्च कॉलेज में यूरोपीय शैली में हुई थी, जो बंगाल में एक अच्छे कॉलेज के रूप में माना जाता था। जिसके अधिकांश प्रोफेसर यूरोपीय थे, अभय चरण शांत स्वभाव व अनुशासित छात्र के रूप में जाने जाते थे। कॉलेज उत्तरी कलकत्ता में हैरिसन रोड पर उनके घर के पास में ही था। कॉलेज में अभय चरण डे इंग्लिश के साथ-साथ संस्कृत की भी पढ़ाई करते थे, जिसके कारण ही उनकी शिक्षा ने उनके भविष्य की नींव तैयार करने में मदद की। 


उन्होंने 1920 में अंग्रेजी, दर्शन और अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। गांधीजी के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी उपाधि को अस्वीकार तक कर दिया था। जब वे 22 वर्ष के थे, तब उन्होंने राधारानी देवी से माता पिता के आदेश  से विवाह किया था। 

कलकत्ता में सन् 1922 में श्रील प्रभुपाद पहली बार अपने आध्यात्मिक गुरु, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी से मिले तब वे अभयचरण के नाम से जाने जाते थे। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने अभय चरण के भीतर विलक्ष्ण प्रतिभा को पहचान लिया था और उनसे कहा कि वे वैदिक ज्ञान की शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित करें, विशेष रूप से अंग्रेजी बोलने वाले दुनिया के लोगों के बीच जाकर भगवान चैतन्य के संदेश का प्रचार प्रसार करने के लिए कहा। हालाँकि अभयचरण ने श्रील भक्तिसिद्धांत को अपने हृदय में उनको अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप मे स्वीकार कर लिया था और सन् 1932 में उनसे दीक्षा भी प्राप्त की।


सन् 1936 में श्रील प्रभुपाद ने अपने आध्यात्मिक गुरु से अनुरोध करते हुए पत्र लिखा कि यदि कोई विशेष सेवा है जिसे वह उन्हें प्रदान कर सकते हैं। श्रील प्रभुपाद को उस पत्र का उत्तर मिला जिसमें वही निर्देश थे जो उन्हें 1922 में दिये थे, ’विश्व के अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के बीच जाकर श्रीकृष्ण भावनामृत का प्रचार प्रसार करें। इसके दो सप्ताह बाद इन अंतिम निर्देश देने के वाद उनके आध्यात्मिक गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत प्रभु चरणों में लीन हो गये। जिसने श्रील प्रभुपाद के हृदय को इतना प्रभावित किया। कि गुरू के निर्देश को श्रील प्रभुपाद ने जीवन का लक्ष्य मान लिया।

श्रील प्रभुपाद ने भगवद्गीता पर टिप्पणी लिखी और अपने कामों से गौड़ीय मठ की सहायता की। सन् 1944 में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब कागज दुर्लभ था और लोगों के पास खर्च करने के लिए बहुत कम पैसे थे, श्रील प्रभुपाद ने “बैक टू गॉडहेड” नामक एक पत्रिका शुरू की। सिर्फ़ प्रभुपाद जी अकेले ही रचना को लिखते, संपादित करते, देख-रेख करते, प्रूफ-रीड करते और स्वयं उसकी प्रतियां बेचते। यह पत्रिका आज भी प्रकाशित हो रही है।

इस प्रकार घर और पारिवारिक जीवन से निवृत्त होकर, अपने अध्ययन में अधिक समय देने के लिए सन् 1950 में श्रील प्रभुपाद ने वानप्रस्थ (ग्रहस्थ जीवन से निवृत्त) जीवन को अपनाया। सन् 1953 में उन्होंने अपने गुरुभाई से भक्तिवेदांत की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने वृंदावन की यात्रा की, जहांपर वे राधा-दामोदर मंदिर में बहुत लम्बे समय तक रहे। उन्होंने यहाँ कई सालों तक रह कर शास्त्रों का अध्ययन और लेखनकार्य किया।


प्रभुपाद जी का मथुरा और वृन्दावन से गहरा सम्बन्ध रहा है वह मथुरा में होलीगेट के वाहर गौड़ीय मठ में रहा करते थे। गौड़ीय मठ के स्वामी नारायण महाराज उनके समकक्ष व गुरू भाई भी थे, जिसके कारण अक्सर यहां आकर रूकते थे और यहां गन्थ लिखने और अध्ययन का कार्य किया करते थे। उन्होंने गौड़ीय पत्रिका का संम्पादन कार्य भी यहीं पर रह कर किया। सितंबर 1959 में अपनी यात्रा के दौरान पहली वार उन्होंने अभय बाबू के रूप में इसी स्थान पर एक सफेद कपड़े पहने इस मठ के दरवाजे में प्रवेश किया था। लेकिन कुछ समय के पश्चात उन्होंने वैष्णव त्यागी (संन्यासी) के रूप में भगवा पोशाक धारण कर लिया। उन्होंने अपने मित्र और धर्मगुरु भक्ति प्रज्ञाना केशव जी से ग्रहस्थ त्याग की शपथ ली और सन्यासी बन गये। 

उन्होंने अकेले ही भागवत पुराण के सत्रह अध्याय का पहला पुस्तक प्रकाशित किया, जिसमें प्रत्येक में चार सौ पृष्ठों के तीन खंड थे, जो एक विस्तृत टिप्पणी से समृद्ध थे। पहले खंड का परिचय चैतन्य महाप्रभु की जीवनी रेखाचित्र के साथ प्रकाशित की। फिर उन्होंने दुनिया भर में चैतन्य महाप्रभु के संदेश को फैलाने के लिए अपने आध्यात्मिक गुरु के निर्देश का पालन करने के उद्देश्य और उसी आशा के साथ, जलादुत नामक सिंधिया लाइन का मालवाहक पर जलमार्ग से होते हुए भारत छोड़ दिया। उस समय उनके पास में एक सूटकेस, एक छाता, सूखे अनाज, तथा लगभग आठ डॉलर मूल्य की भारतीय मुद्रा और किताबों के कई बक्से थे, जिसके साथ वह अमेरिका रवाना हुये थे। 


5 अप्रैल 1998 को अटल बिहारी वाजपेयी जी कहा था कि- 

‘‘यदि आज भगवद गीता लाखों प्रतियों में भारतीय भाषाओं में छपी है और दुनिया के सभी कोनों-कोनों में वितरित की जाती हैं, तो इस महान पवित्र सेवा का श्रेय मुख्यतः इस्कॉन को जाता है।... केवल इसी एक उपलब्धि के लिए भारतीयों को स्वामी प्रभुपाद के अनुयायियों की समर्पित आध्यात्मिक आन्दोलन के प्रति सदा आभारी रहना चाहिए। 1965 में संयुक्त राज्य अमेरिका में भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की यात्रा और बारह वर्षों के बहुत ही कम समय में उनके आंदोलन ने जो शानदार लोकप्रियता हासिल की, उसे सदी की सबसे बड़ी आध्यात्मिक घटनाओं में से एक माना जाना चाहिए’’। -  अटल बिहारी वाजपेयी।

श्रील प्रभुपाद का जन्म अभय चरण डे के रूप में अवश्य हुआ लेकिन, वह एक भारतीय आध्यात्मिक गुरू और अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संस्था के संस्थापक-आचार्य (गुरु) थे। सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन), जिसे आमतौर पर “हरे कृष्ण आंदोलन“ के रूप में जाना जाता है। आज विश्व के लोग इस्कॉन आंदोलन के संस्थापक श्रील भक्तिवेदांत स्वामी को कृष्ण चैतन्य के प्रतिनिधि और दूत के रूप में देखते हैं।

उन्होंने लम्बा समय वृन्दावन में रह कर विताया।


सन् 1959 में उन्होंने संन्यास लेकर सन्यासी जीवन को अपनाया। यह तब की बात थी, जब वे राधा-दामोदर मंदिर में थे, उन्होंने अपनी कृतिः अंग्रेजी में श्रीमद्-भागवताम का अनुवाद और टिप्पणी शुरू की। उन्होंने “अन्य ग्रहों की सुगम यात्रा” भी लिखी। उन्होंने कुछ वर्षों के भीतर ही श्रीमद्-भागवताम के प्रथम स्कन्द का तीन खंडों में अंग्रेजी अनुवाद और तात्पर्य लिखा। एक बार फिर से अकेले ही, उन्होंने ग्रंथो को छापने के लिए, कागज खरीदा और धन इकट्ठा किया। उन्होंने भारत के बड़े शहरों में स्वयं तथा एजेंटों के माध्यम से उन ग्रंथो को बेचा।

जब उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेशों को पूरा करने के लिए अपने को तैयार किया और श्रीकृष्ण भावनामृत के संदेश को लेकर अमेरिका के लिए जाने फैसला किया। यह आश्वस्त किया कि अन्य देश इसके लिए अनुकूल है या नहीं। एक समुद्री मालवाहक जहाज जिसे जलदूत कहा जाता है, पर निःशुल्क जलमार्ग से यात्रा करके अंततः वे 1965 में न्यूयॉर्क पहुंच गये। वे 69 वर्ष के थे और व्यावहारिक रूप से वे धनी नहीं थे। उनके पास श्रीमद्-भागवतम की कुछ प्रतियां और कुछ सौ रुपये थे। उन्हें बहुत मुश्किलो का सामना करना पड़ा था। दो बार दिल के दौरे पड़े थे और एक बार न्यूयॉर्क पहुंचने के बाद उन्हें पता नहीं था कि किस रास्ते पर जांए। मुश्किल से छह महीने के बाद, यहाँ वहाँ प्रचार करते रहे, उनके कुछ अनुयायियों ने मैनहट्टन में एक स्टोरफ्रंट और अपार्टमेंट किराए पर लिया। यहाँ पर वे नियमित रूप से प्रवचन, कीर्तन और प्रसाद वितरित किया करते थे। उस समय हिप्पियों का चलन था वह व वहां जीवन व्यतीत करने वाले वह सभी लोग जो वहां की जीवन पद्धति व जीवन शैली से निराश व हताश लोग जो उस खोए हुए जीवन तत्व की तलाश में इधर खिंचे चले आये और अनेक लोग  ’स्वामीजी को’ अनुसरण करने लगे।


धीरे-धीरे लोग उनके प्रति अधिक गंभीर होते गए, श्रील प्रभुपाद के अनुयायी पार्कों में नियमित रूप से कीर्तनों का आयोजन करने लगे थे। प्रवचन और प्रत्येक रविवार को दावत के लिए वह तेज़ी से प्रसिद्ध हो गए। उस समय वहां के युवा अनुयायियों ने श्रील प्रभुपाद से दीक्षा लेना प्रारम्भ कर दिया, जो वैदिक व वैष्णव सिद्धांतों का पालन करने का वादा करते थे और प्रतिदिन हरे कृष्ण महामंत्र का 16 माला जाप करते थे। 

जुलाई 1966 में, श्रील प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ-इस्कॉन की स्थापना की। उनका उद्देश्य इस संघ के द्वारा दुनिया भर में कृष्ण भावनामृत को बढ़ावा देना था। 1967 में, उन्होंने सैन फ्रांसिस्को का दौरा किया और वहां एक इस्कॉन समाज की शुरुआत की। फिर उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के संदेश को फैलाने के लिए मॉन्ट्रियल, बोस्टन, लंदन, बर्लिन और उत्तरी अमेरिका, भारत और यूरोप के अन्य शहरों में नए केंद्र खोलने के लिए दुनिया भर में अपने शिष्यों को भेजा। भारत में, शुरुआत में तीन भव्य मंदिरों की योजना बनाई गई थी। सर्वप्रथम श्री धाम वृंदावन में कृष्ण बलराम मंदिर जिसमें सभी नियमित पूजा सेवा के साथ-साथ अन्य सुविधाएं भी थीं। बॉम्बे में एक शैक्षणिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में मंदिर और श्रीधाम मायापुर, नवद्वीप, पश्चिम बंगाल में वैदिक तारामंडल के साथ एक विशाल मंदिर की स्थापना की गई।


श्रील प्रभुपाद ने अगले ग्यारह वर्षों के भीतर भारत में लिखित अपनी सभी ग्रंथो को प्रकाशित किया। श्रील प्रभुपाद बहुत कम समय के लिए निद्रा लेते थे और वे सुबह का समय लिखने में बिताते थे। प्रभुपाद जी लगभग 1ः30 और 4ः30 बजे के बीच रोजाना (दैनिक) लिखते थे। उन्होंने बोलकर लिखाना शुरू किया, जिसे उनके शिष्यों ने टाइप और संपादित किया। श्रील प्रभुपाद मूल श्लोकों का संस्कृत या बांगला से शब्दशः अनुवाद करते और टीका करते थे।

उनकी रचनाओं में भगवद्गीता यथारूप, अनेक खंडों में श्रीमद्-भागवताम, अनेक खंडों में चैतन्य-चरितामृत, श्रीउपदेशामृत, कृष्णः भगवान, चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएँ, कपिलदेव की शिक्षाएँ, महारानी कुंती की शिक्षाएँ, श्री इशोपनिषद, श्री उपदेशामृत और अन्य दर्जनों छोटी पुस्तकें शामिल हैं।

उनके लेखन का पचास से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। सन् 1972 में कृष्ण कृपामूर्ति के कार्यों को प्रकाशित करने के लिए “भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट” स्थापित किया गया। आगे चलकर यह ट्रस्ट वैदिक धर्मग्रंथो और दर्शन के क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाशक बन गया।


लेखन के व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद भी श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण भावनमृत के प्रचार कार्यों को लेखन के कार्यों के बीच में कभी आने नहीं दिया। केवल बारह वर्षों में अपनी लंबी आयु के बावजूद भी उन्होंने चौदह बार विश्व की परिक्रमा की, उनकी यह यात्रा प्रवचनों के लिए उनको छह महाद्वीपों तक ले गई।

जब तक कि वे इस दुनिया से चले नहीं गए उनके दिन लेखन के कार्यों, अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन और जनता को सिखाने से और संघ का विस्तार करने से जुड़े कार्यक्रमों में व्यस्त रहते थे। इस संसार से विदा होने से पहले श्रील प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को उनके दिशा निर्देशों पर चलने और दुनिया भर में कृष्ण भक्ति के प्रचार और प्रसार को जारी रखने के लिए कई निर्देश दिए थे।

उन्हें एक करिश्माई नेता के रूप में माना जा सकता है जिन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और भारत सहित कई देशों में अनुयायियों को वैष्णव बनाने में सफल हुए। उनका मिशन दुनिया भर में गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय का प्रचार प्रसार करना था, वैष्णव हिंदू धर्म को विश्व के कौने-कौने में पहुंचाने का मार्ग जो उन्हें उनके गुरु भक्तिसिद्धांत सरस्वती ने दिया था। 1977 में उनकी मृत्यु के बाद, उनके द्वारा स्थापित इस्कॉन, जिस संस्था की स्थापना उन्होंने हिंदू कृष्णवाद के रूप पर आधार बना कर की थी, वह भागवत पुराण को केंद्रीय ग्रंथ के रूप में इस्तेमाल कर रहा है, तथा निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। फरवरी 2014 में, इस्कॉन की समाचार एजेंसी ने 1965 से उनकी आधी अरब से अधिक पुस्तकों को वितरित करने के लक्ष्य को पूरा किया है। श्रीमद् भगवद गीता पर उनका अनुवाद और टिप्पणी, जिसका शीर्षक भगवद-गीता जैसा ही है, इस्कॉन के अनुयायियों और कई वैदिक विद्वानों द्वारा माना जाता है कि वैष्णव साहित्यिक कृतियों के बेहतरीन, वास्तविक अनुवाद के रूप में माना जाता है। 


उन्होंने 14 नवंबर 1977 को इस असार संसार को छोड़ दिया था। भक्तिवेदांत स्वामी का 14 नवंबर 1977 को 81 वर्ष की आयु में वृंदावन, मथुरा में निधन हो गया था। उनके पार्थिव शरीर को वृंदावन के श्रीकृष्ण बलराम मंदिर में समाधिष्ठ किया गया है।  उन्होंने थोड़ा समय ही पश्चिम में बिताया। उन्होंने लगातार कृष्ण नाम का प्रचार किया, विश्व में लगभग 108 मंदिरों की स्थापना की, दिव्य ग्रंथो के साठ से अधिक खंड लिखे, पांच हजार शिष्यों को दीक्षित किया, भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना की, एक वैज्ञानिक अकादमी (भक्तिवेदांत इंस्टीट्यूट) शुरू किया और इस्कॉन से संबंधित अन्य ट्रस्ट भी बनाये हैं।

श्रील प्रभुपाद एक असाधारण लेखक, शिक्षक और संत थे। वे अपने लेखन और उपदेशों के माध्यम से कृष्ण भावनामृत को पूरी दुनिया में फैलाने में कामयाब रहे। उनके लेखन कई भागों में शामिल हैं और उनके यह लेखन न केवल उनके शिष्यों के लिए बल्कि आने वाले भावी पीढ़ी के शिष्यों के लिए, गुरु परम्परा से जुड़े सदस्यों के लिए और बड़े पैमाने पर आम जनता के लिए कृष्ण भावनामृत के आधार के रूप में हैं।

उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय मथुरा और वृन्दावन में अन्तिम दिनों तक सन् 1977 तक व्यतीत किया है उनको विनम्र श्रद्धांजलि नमन करते हुए।

-(सुनील शर्मा)


बुधवार, 25 अगस्त 2021

तिल तिल मरती यमुना नदी इसे बचाईये

https://youtu.be/nA-hUl2LaTs

एक नदी जो मरने के कगार पर है, यह यमुना नदी जो कि मथुरा शहर के बीच से होकर बहती यमुना नदी दशा ठीक नहीं है यमुना में गिरने वाले नाले निरन्तर यमुना नदी में जाकर गिर रहे हैं, मसानी नाला निरन्तर यमुना नदी में जाकर गिर रहा है। यमुना नदी अब विलुप्त होने के कगार पर है न कोई जनप्रतिनिधि, न जिलाप्रशासन, न ही स्थानीय नागरिकों का ध्यान इस ओर है, असंख्य लोगों की आस्था आहत हो रही हैं।


https://youtu.be/nA-hUl2LaTs

रविवार, 22 अगस्त 2021

ऐसे भी विधायक हुए जिन्होंने अपने सिद्धान्तों के चलते मंत्री पद ठुकरा दिया था

 ऐसे भी विधायक हुए जिन्होंने अपने सिद्धान्तों के चलते मंत्री पद ठुकरा दिया था

सुनील शर्मा
वृंदावन (मुथुरा)। सत्यनिष्ठा और गांधीवादी चरित्र के लिए जाने जाने वाले शिक्षक बाल शिक्षक संघ के जनक गुरु कन्हैया लाल गुप्त जिन्होंने अपने सिद्धान्तों से कभी समझोता नहीं किया और शिक्षामंत्री के पद तक को भी ठुकरा दिया था। जिन्होंने वृंदावन की एक छोटी सी गली में रहकर अपने जीवन के आखिरी दिन बड़े ही कष्ट में काटे थे। जिन्होंने मथुरा के लिये आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रागांधी के नसबंदी अभियान के खिलाफ गांधीवादी तरीके से विरोध का रास्ता चुनकर आन्दोलन की शुरूआत की थी और आमजन की आवाज बने थे। उस गांधीवादी नेता को आज राजनीतिज्ञ, समाजसेवियों, शिक्षाविदों ने ही भुला दिया।


आज के समय यह मान लिया जाता है कि राजनैतिक पृष्ठभूमि या राजनैतिक परिवार से आने वाला व्यक्ति ही राजनीति में आ सकता है मगर इस मिथक को कन्हैया लाल जी ने तोड़ा और आम जनता के बीच से उठकर आम जनता की आवाज बने थे। अब कोई भी आम जनता की आवाज बन कर कार्य नहीं करना चाहता है आज सिर्फ बड़ी लम्बी चौड़ी उंची गाडी में बैठ कर सफेद कुर्ता पायजामा पहन कर अपने आपको नेता सिद्ध करने में लगे रहते हैं, जिसका परिणाम है कि राजनीति इतनी दूषित व भृष्ट हो चुकी है।
कन्हैया लाल गुप्त जी एक सच्चे ईमानदार इंसान थे। उन्होंने अपना जीवन दूसरों की भलाई व समाजसेवा करते हुए ही निकाला। वह जीवन के आखिरी पड़ाव तक वृद्धावस्था के चलते वृन्दावन की कुंज गलियों में एक छोटे से मकान में समय गुजारते रहे। किसी भी प्रचार प्रसार व सम्मान से दूर रहने वाले कन्हैयालाल गुप्त आपातकाल के हटते ही जनता पार्टी की टिकट पर जनवरी 1977 में हुए 7 वीं विधानसभा चुनावों में 37813 रिकार्ड मतों से विजयी होकर लखनऊ तक पंहुचे लेकिन श्री गुप्त को लखनऊ की राजनीति कभी रास नहीं आई शिक्षामंत्री बनाये जाने का प्रस्ताव भी उन्होंने उस समय ठुकरा दिया था। जब फरवरी 1980 में विधानसभा पुनः भंग हो गई वह मात्र 969 दिनों तक ही विधानसभा के सदस्य रह सके।


आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रागांधी के नसबंदी अभियान के खिलाफ गांधीवादी तरीके से विरोध का रास्ता चुनकर उन्होंने आन्दोलन की शुरूआत की थी। इमरजेंसी के दौरान ही कन्हैयालाल जी को 25 अगस्त 1976 को चम्पा अग्रवाल इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य कक्ष से ही गिरफ्तार कर लिया गया था।
इसके वाद कॉलेज के लगभग तीन दर्जन से अधिक शिक्षकों और सैकड़ों छात्रों ने उनकी गिरफ्तारी के विरोध में जुलूस निकाला और सड़कों पर उतर आये थे, मथुरा की आम जनता का भी उनके प्रति इतना आदर सम्मान था कि हर कोई उस समय गुप्त जी की गिरफ्तारी का विरोध करने को सड़कों पर आन्दोलन करने को मजबूर हो गया था।  
चम्पा अग्रवाल इन्टर कॉलेज में सन् 1967 से लेकर 1977 तक प्रधानाचार्य के पद रहे गुप्त जी की ईमानदारी, निर्भीकता के चर्चे आज तक लोग करते हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल में विद्यालय में अनेक आवारा तथा उपद्रवी छात्रों को ठीक रास्ते पर लाने का प्रयास किया यहां तक कि एक छात्र जिसका गन्डागर्दी में काफी नाम था, उसको कॉलेज से बाहर सड़क पर डाल कर पिटाई तक कर दी थी। उनके रहते कॉलेज में छात्रों में काफी भय रहता था। उनके कार्यकाल में विद्यालय का नाम केबल जनपद भर में ही नहीं था बल्कि पूरे प्रदेश में कॉलेज की अपनी एक पहचान थी। 1980 में एक दिन जब कॉलेज में परीक्षाओं का समय था तब उन्हें पता चला कि छात्र अपने साथ नकल करने की सामग्री लेकर आये हैं तब उन्होंने प्रार्थना के समय छात्रों को इतना भावुक होकर कहा कि सभी छात्र जो नकल सामग्री लेकर आये थे, सभी ने नकल सामग्री को प्रार्थना के समय ही कॉलेज के फर्स पर ही छोड़ दिये थे।
कन्हैयालाल गुप्त जी अपनी लोकप्रियता के चलते लगभग 44 संस्थाओं के महत्वपूर्ण पद पर आसीन थे। लेकिन उन्होंने अपने स्वभाव के कारण राजनीति से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पा ली थी और भगवान श्रीकृष्ण राधा की रास स्थली वृन्दावन को अपने वास करने का हेतु बना लिया था। उन्होंने शरीर त्यागने तक कभी भी वृन्दावन से बाहर नहीं गये। जब तक वह जीवन के आखिरी पड़ाव तक वृद्धावस्था के चलते वृन्दावन की कुंज गलियों में एक छोटे से मकान में समय गुजारते रहे। किसी भी प्रचार प्रसार व सम्मान से दूर रहे और भगवान भजन में ही अपना जीवन व्यतीत किया।  
श्री कन्हैया लाल जी मूलतः कस्वा माँट के रहने वाले थे। गुप्त जी शिक्षक होने के नाते दो बार विधान परिषद में एमएलसी भी रह चुके थे। उन्होंने हमेशा शिक्षा में सुधार लाने के लिए प्रयास किये इसके लिए गठित कोठारी आयोग के सदस्य भी रहे। वृंदावन में स्थित टीबी सेनेटोरियम के संस्थापक के रूप में भी उन्हें आज भी जाना जाता है।
कन्हैया लाल जी ने समाज में जो छाप छोडी है उसके कारण ही लोग आज तक मथुरा के गांधी के रूप में उन्हें जानते हैं। मगर कन्हैया लाल जी इस बात से काफी दुखी होते थे कि उनकी तुलना महान देशभक्त व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से की जाती है। इसके लिए भी उन्होंने हमेशा पूर्व के लेखकों से अपनी वेदना व्यक्त की थी। कन्हैया लाल जी के दो पुत्र हैं जो आज भी बाहर नौकरी करते हैं। उनकी सेवा में बांके बिहारी अग्रवाल ने अन्तिम समय तक उनका साथ दिया। जीवन के अन्तिम समय में कन्हैया लाल जी 90 वर्ष की अवस्था में जब उन्हें चलना फिरना भी मुस्किल हो रहा था और शारीरिक दुर्बलता के चलते अपनी पेंशन की राशि तक बैंक से नहीं निकाल पाते थे क्यों कि चैक पर हस्ताक्षर करते समय उनके हाथ कांपते थे जिससे हस्ताक्षर न मिल पाने के कारण भी बैंक कर्मी उनके चैकों में फर्क बता कर लौटा दिया करते थे। अन्तिम समय में उनका जीवन काफी कष्ट में बीता, आज न किसी शिक्षक संघ को न किसी सामाजिक संस्था को न ही किसी राजनैतिक नेता को उनके द्वारा किये गये कार्यों की याद आती है न ही उन्हें आज के समय में याद किया जाता है।

मंगलवार, 3 अगस्त 2021

एक निराले शिक्षक, सबके प्यारे शिक्षक-निमाई प्रसाद मोइत्रा

 एक निराले शिक्षक, सबके प्यारे शिक्षक-निमाई प्रसाद मोइत्रा

मथुरा। वृंदावन के निमाई प्रसाद मोइत्रा जो जनसंघ की स्थापना के दौर से ही इस संस्था के समर्पित व सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में रहे। उनकी यादें आज भी अधिकांश लोगों के जहन में हैं। मगर जिनके कारण कुछ लोग इस संगठन से जुड़े व वर्तमान राजनीति में हैं उन्होंने इस महान विभूति को भुला दिया। निमाई दादा वृन्दावन के लोगों के बड़े चहेते थे, अब वह इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके आदर्श और ईमानदारी के चरचे आज भी लोग करते हैं। लोगों को निमाई प्रसाद मोइत्रा के जीवन को जानना चाहिए कि किस प्रकार के कष्ट के साथ उन्होंने तमाम छात्रों को शिक्षित किया और हजारों छात्रों का जीवन शिक्षा देकर बनाया। 

 निमाई प्रसाद मोइत्रा को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल बी सत्य नारायण रेड्डी व्हील चेयर प्रदान करते हुए। 

निमाई प्रसाद मोइत्रा का जन्म कुलीन बंगाली ब्राहम्ण परिवार में 2 अगस्त 1937 को वर्तमान बांग्लादेश के रंगपुर जिले के कुरीग्राम में हुआ था। उनके पिता डॉ. वी. पी. मोइत्रा पेशे से डाक्टर थे उन्होंने सन् 1942 में वृन्दावन के रामकृष्ण मिशन अस्पताल में नौकरी शुरू की थी। वृन्दावन में ही नहीं उस समय एक मात्र अच्छा और बड़ा अस्पताल होने के कारण उन्हें यहां खूब यश मिला। वह असहाय और गरीब लोगों के मददगार थे, उनकी उदारता और पीड़ित मानवता की सेवा ने लोगों के मन में उनके प्रति अटूट विश्वास पैदा कर दिया। इसका एक उदाहरण यह भी है कि वृन्दावन स्थित रामकृष्ण मिशन अस्पताल ‘‘कारे बाबू अस्पताल’’ के नाम से लोकप्रिय हो गया। कारे बाबू यानी डॉ. मोइत्रा को लोग कारे बाबू के नाम से पुकारते थे। आज भी लोगों की जुबान पर रामकृष्ण मिशन अस्पताल का नाम कारे बाबू अस्पताल ही है। डॉ. मोइत्रा के गुण उनके पुत्र निमाई में भी आए होंगे। निमाई प्रसाद चार भाइयों में सबसे छोटे थे सबसे बड़े भाई कृष्ण दास जिन्होंने वैराग्य धारण किया और वृन्दावन में ही एक आश्रम में रहते हैं। दूसरे नम्बर के भाई रासबिहारी मोइत्रा जो रेलवे में सिग्नल इन्सपेक्टर के पद पर थे। तीसरे नम्बर के भाई बलराम मोइत्रा भी रेलवे में सर्विस करते थे सहायक इन्जीनियर के पद से सेवा निवृत होकर वृन्दावन के ही पैत्रक निवास में आज भी रहते है।


निमाई शुरू से ही पढाई में बहुत अच्छे थे। आगरा के आर.बी. एस. कॉलेज से एम. एस. सी. की डिग्री लेने के बाद निमाई को मथुरा के किशोरी रमण इंटर कॉलेज में अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिल गयी। निमाई प्रसाद मोइत्रा ने अपने जीवन काल में अपने हंसमुख स्वाभाव के कारण ही सभी को अपना बना लिया, जिसके कारण वृन्दावन में अपने मृदु भाषी और मिलनसार होने के चलते निमाई दादा को 1972 में नगर पालिका परिषद का सदस्य चुना गया। निमाई दादा का सामाजिक संपर्क खूब अच्छा था और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सक्रिय सदस्य होने के चलते तथा जनसंघ के शुरूआती दौर में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। सर्व समाज में अच्छी पकड़ होने और हरेक की मदद करने के कारण भी लोग उनसे काफी प्रभावित थे। उस समय पड़ोसी हो या अनजान, रात का वक्त हो या दिन का निमाई दादा जरूरतमंद के संग हर समय जाने के लिए तैयार रहते थे। रामकृष्ण मिशन अस्पताल में किसी को भर्ती कराना हो या उसके लिए अपने घर से खाना पहुंचाना हो निमाई अक्सर अपनी माँ से रोगी के लिए घर से खाना बनवा कर पहुंचाने भी जाते थे।  


निमाई प्रसाद मोइत्रा मथुरा के किशोरी रमण इन्टर कॉलेज में केमिस्ट्री के शिक्षक थे। वृंदावन से साइकिल पर चल कर 10 किलोमीटर का रास्ता तय कर वह हर रोज मथुरा आते थे। समय के इतने पाबंद थे कि कभी भी एक मिनट देरी से कॉलेज में दाखिल नहीं हुए होंगे। एक दिन वृन्दावन में मकान की छत पर कुछ कार्य करते समय निमाई दादा उपर से नीचे गिर कर घायल हो गये। किसी तरह जान तो बच गई मगर रीड़ की हड्डी चोट लगने के कारण शरीर के नीचे का आधा हिस्सा हमेशा-हमेशा के लिए बेकार हो गया। 1987 में उन्हें उपचार के लिए दिल्ली ले जाया गया था तमाम चिकित्सकों से उपचार कराया गया मगर निमाई दादा कभी स्वयं उठ कर चल फिर न सके। 


कॉलेज के उस समय के अन्य शिक्षकों ने उनकी खूब मदद की लेकिन समस्या थी कि वह कॉलेज कैसे जाएँगे। कॉलेज प्रबन्धन ने भी उनके प्रति काफी सहानुभूति दिखाते हुए एक सुझाव दिया कि हर महीने में एक बार कॉलेज का हस्ताक्षर रजिस्टर चपरासी घर ले कर जाया करेगा ताकि आप रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर दें और आपको वेतन मिल सकेगा। बिस्तर पर लेटे निमाई दादा ने इस सुझाव को मानने से इंकार कर दिया और विनती की कि कॉलेज में ही उन्हें एक कमरा दे दिया जाये, ताकि वह वहां अपना निवास बना लेंगे और व्हील चेयर पर बैठ कर कक्षा में चले जाया करेंगे। और क्लास ले लेंगे, इस अनुरोध को कॉलेज के प्रधानाचार्य ने मानकर इसकी व्यवस्था कर दी। 

निमाई प्रसाद का आधा शरीर बेकार हो चुका था। इसके बावजूद वह सात वर्षों तक मथुरा किशोरी रमण इण्टर कॉलेज में रसायन शास्त्र पढ़ाते रहे। वह स्कूल के ही कमरा नंबर पाँच में रहते थे और व्हील चेयर पर बैठकर ग्यारहवीं व बारहवीं कक्षा में पढ़ाने जाया करते थे।

असहनीय कष्टों में रहते भी निमाई दादा ने सदैव मुस्कराते हुए गुजारा उनका एक हाथ व्हील चेयर के एक पहिए पर रहता था और दूसरे हाथ में चौक का टुकड़ा लेकर ब्लेक बोर्ड पर लिखते तो दूसरे ही क्षण छात्रों की ओर मुड़ कर समझाते भी थे। कॉलेज का घंटा बजने पर निमाई दादा व्हील चेयर लेकर अपने घर यानी कमरा नंबर पांच की तरफ चले जाते थे। 

निमाई दादा के अध्यापकीय जीवन की उनकी जिम्मदारी व ईमानदारी और निष्ठा आज के अध्यापकों में शायद ही मिल पाये। हालांकि उस समय भी तमाम शिक्षक ऐसे थे जो अपनी जिम्मेदारी से शिक्षण कार्य करते हों। तमाम अव्यवस्था में डूबे इस कॉलेज के दिन कभी बदल ही नहीं पाये। उस समय के कई शिक्षक ऐसे थे, जिन्होंने कई सालों तक कोई कक्षा ही नहीं ली और वेतन बरावर लिया करते थे, उस समय भी चर्चा थी कि एक शिक्षक बिना कक्षा में गए वेतन लेते हुए रिटायर हो गए।

निमाई प्रसाद मोइत्रा के परिवार में एक पुत्र, एक पुत्री और पत्नी थे। निमाई दादा का जीवन हमेशा से कष्ट में ही बीता दुःख ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा उनके जीवन में एक बज्राघात और हो गया साधारण से बुखार में उनका 19 वर्षीय बेटा जिसकी असमय मृत्यु हो गई। कॉलेज के कमरा नंबर पांच में उनकी पत्नी उनकी सेवा करती थीं, लेकिन पुत्र की मौत ने पहले से दुःखी पत्नी को और ज्यादा दुःखी कर दिया। निमाई दादा पुरानी सुखद बातों को याद करके भले ही लोगों के बीच अपने दुःख को भुलाने प्रयास करते थे, मगर अपने दुःख को किसी के सामने प्रकट नहीं होने देते थे, इस अपार दुःख ने निमाई दादा को तोड कर रख दिया था। निमाई दादा के सबसे बड़े भाई कृष्णदास मोइत्रा शिक्षा-विभाग में कार्य करते रिटायर हुए थे। वैराग्य धारण कर साधु हो गए, भतीजे की मौत की खबर सुन इलाहाबाद से मथुरा आ गए और अपने छोटे भाई निमाई की पत्नी को वृन्दावन के मकान में समझा-बुझा कर रहने के लिए राजी कर लिया और उन्हें वहां भेज कर स्वयं निमाई के साथ जब तक किशोरी रमण इन्टर कॉलेज में व्हील चेयर पर बैठकर अध्यापन कार्य करते, कृष्णदास मोइत्रा उनके साथ रहे और छोटे भाई की सेवा करते रहे। एक सच्चे साधु की तरह से उन्होंने अपने भाई की सेवा की आज भी वह वृन्दावन में एक आश्रम में रह कर भजन करते हैं। 

मुझे भी निमाई दादा से मिलने का कई वार मौका मिला था मैं कई वार उनसे मिलने किशोरी रमण इन्टर कॉलेज के कमरा न. 5 में गया था। उनसे बातों-बातों में जब पूछा कि आप अपने जीवन की ऐसी घटना बतायें जो आपको याद हो इसके उत्तर में निमाई दादा व्हील चेयर पर बैठे अपने बेजान पैरों को देखते हैं और फिर बोलने लगते कि- एक समय था जब, मैं आगरा राजामंडी स्टेशन पर खड़ा था। मथुरा आने के लिए ट्रेन का इंतजार कर रहा था। मालूम हुआ कि ट्रेन चार घंटे लेट है। सोचा पटरी-पटरी चलूंगा तो पहुँच जाऊँगा। काफी देर इंतजार करने के वाद रेल की पटरी पर चल दिया। रेल की पटरी के दोनों ओर के दृश्यों को देखता-देखता चला आया पता ही नहीं चला कि कब मथुरा आ गया।’’ यह कहकर निमाई दादा जोर से हंस पड़े। 


बातचीत करते निमाई दादा अक्सर अपने अतीत में खो जाते थे और सोचने लगते थे कि एक जमाना वह था जब 50 कि0 मी0 की दूरी मैंने इन्हीं मजबूत पैरों से चलकर नाप दी थी और अब वक्त यह आया है कि मैं व्हील चेयर पर उम्र भर बैठे रहने को मजबूर हो गया हूँ। निमाई दादा बोले-‘‘जीवन में वह सब घटता है जिसकी हम कल्पना नहीं करते।“ 50 कि0 मी0 तक पैदल चलने वाले निमाई दादा ने कभी सोचा नहीं था कि उनके पैर इस प्रकार बेजान हो जाऐंगे और उन्हें दूसरों के सहारे जीना पडे़गा। 

लगातार बिस्तर पर लेटे-लेटे निमाई दादा के शरीर में घाव हो गए थे। खून और मवाद निकलता रहता था। ऐसी हालत में भी निमाई दादा क्लास में पढ़ाने जरूर जाते थे। निमाई मोइत्रा को कभी किसी से कोई शिकायत नहीं थी। जिन लोगों से जुड़े रहे थे उन्होंने भी मुँह मोड़ लिया था कभी किसी ने कोई सुध नहीं ली आज निमाई दादा भलेही न हों लेकिन आज भी उनके चाहने वाले उनके पढ़ाये शिष्य तो जरूर हैं जिन्हें आज भी उनकी यादें आती हैं। मगर साथ चलने वाले तथा भारतीय जनसंघ तथा आर एस एस तक में साथ रहने वाले लोगों ने उन्हें भुला दिया तथा अब वह कोई उनकी चर्चा भी नहीं करते हैं। मगर निमाई दादा ने कभी किसी की टीका टिप्पणी नहीं की।

उनके बड़े भाई बलराम मोइत्रा ने एक मुलाकात में बताया कि वह अक्सर चर्चा करते थे और कहते थे कि ‘‘शिक्षक चाहे तो आज भी छात्रों को अपना बनाकर समाज की दिशा को बदल सकता है’’। अन्तिम दिनों में वह यह कहा करते कि ‘‘अब मेरे मन में ज्यादा जीने की ललक नहीं है क्योंकि मैं अब दूसरों पर भार बन गया हूँ। लेकिन कभी कभी विचार आता है कि शरीर एक अद्भुत मशीन है। एक दुर्घटना में एक पुर्जा खराब हुआ तो क्या हुआ। मन तो नहीं मरा। आखिरी श्वांस तक छात्रों को पढ़ाता रहूं यही मेरी इच्छा है।’’


गजब की इच्छा-शक्ति लिए निमाई दादा रिटायर होने के बाद वृन्दावन में रहे। उनके भाई का परिवार उनकी सेवा करता रहा। बिस्तर पर जीवन जीने वाले निमाई दादा एकदम निश्छल, मनमोहक  मुस्कराहट के साथ वृन्दावन के लोगों के लाड़ले बन गए। उन्होंने 2010 में वृन्दावन में लगने वाले कुम्भ में ले जाने की इच्छा अपने बड़े भाई से की और कुम्भ में बड़े भाई ने स्नान कराया और उसके वाद ही निमाई दादा ने इस संसार से बिदा ले लिया था।

मैं कभी कभी सोचता हूँ कि भगवान क्यों किसी को इतना कष्ट देता है जो लागों की मदद करने को तत्पर रहता हो हजारों छात्रों के जीवन को जिसने बनाया हो उनको एक दिशा प्रदान करने वाले के साथ ऐसा क्यों हुआ कि वह जीवन भर पैरों से लाचार हो गये दूसरों के भरोसे जीने को मजबूर हो गये। धन्य है निमाई दादा! उन्होंने इसके लिए भगवान को कभी जिम्मेदार नहीं ठहराया और न कभी अपने भाग्य को कभी कोसा।

आज दुःख इस बात का है कि मथुरा-वृंदावन में जिस पार्टी व संगठन के लिए जिस व्यक्ति ने जो किया उसे उन्हीं के साथी मित्रों व तथाकथित समाजसेवियों ने उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए भुला दिया। 

शनिवार, 24 जुलाई 2021

आधुनिकता की दौड़ में प्राचीन स्मृतियां और पहचान से दूर होती मथुरा

मथुरा। मथुरा-वृन्दावन में कृष्ण काल के कितने ही चिन्ह स्थान और प्राचीन घाट काल के गाल में समा चुके हैं हमने आधुनिकता की दौड़ में अपनी प्राचीन स्मृतियों और पहचान को नष्ट कर दिया है। बहुत से ऐसे स्थान हैं जिनका अब केवल नाम ही बचा है निशानियां भी नष्ट हो चुकी हैं शायद ही लोग अब बता पायें कि प्राचीन घाट और एतिहासिक स्थान यहां कभी थे। 

मथुरा में कुछ सुप्रसिद्ध और प्राचीन घाट आज भी मौजूद हैं बारह घाट दक्षिण कोटि के और बारह घाट उत्तर कोटि के हैं। मथुरा की परिक्रमा हर एकादशी और अक्षयनवमी को सामुहिक रूप से दी जाती है। देवशयनी और देवोत्थापनी एकादशी को मथुरा-वृंदावन की परिक्रमा एक साथ भी दी जाती है, कोई-कोई तो गरुडगोंविन्द जी को भी शामिल कर लेते हैं। वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को भी रात्रि में परिक्रमा दी जाती है। इसको वन-बिहार की परिक्रमा कहते हैं। परिक्रमा के मार्ग पर गाना-बजाना भी होता था, कहीं-कहीं नाटक या नौटंकी जैसे अभिनय भी किये जाते थे। ऐसी मान्यता है कि दाऊजी ने द्वारका से आकर वसन्त ऋतु के दो मास ब्रज में रहकर जो अपने भक्तजनों को सुख दिया था और वन-बिहार किया था एवं यमुना का पूजन किया था, यह उसी लीला की स्मृति है। परिक्रमा में जो स्थान आते हैं उसमें यहां के चौबीस घाट भी आ जाते हैं।


विश्राम घाट, गतश्रमनारायण मन्दिर, कंसखार, सतीका बुर्ज, चर्चिकादेवी, योगघाट, पिप्पलेश्वर महादेव, योगमार्गवटुक, प्रयागघाट, वेणीमाधव का मंदिर, श्यामाघाट, श्यामजी का मंदिर, दाऊजी, मदनमोहनजी, गोकुलनाथ जी का मंदिर, कनखल तीर्थ, तिन्दुक तीर्थ (यह आजकल नष्ट हो चुके हैं इनका नामोनिशान मौजूद नहीं है)। सूर्यघाट, धु्रवक्षेत्र, ध्रुवघाट यहां पर तीर्थश्राद्ध हुआ करते थे। ध्रुवटीला, सप्तऋर्षि टीला (इसके भीतर से यज्ञ भस्म निकलती है- यहां सप्तर्षियों के दर्शन हैं), कोटितीर्थ, कंस की नगरी में रावणटीला के नाम से भी स्थान था जो आज नष्ट हो चुका है, बुद्धतीर्थ, बलिटीला, यहां भी यज्ञ भस्म निकलने की वात आज भी लोग बताते हैं। यहीं पर बलिराजा और वामन जी के दर्शन मिलते थे। रंगभूमि (कुबलयापीड स्थान, धनुष भङ्ग स्थान आज कहीं खो गये हैं, चाणूरमुष्टिक वध स्थान का भी आज कहीं पता ही नहीं है, जिसे लोग आज भी कंस टीला के नाम से जानते हैं-यह प्राचीन प्रतीत नहीं होता है।

प्राचीन रंगेश्वर महादेव आज भी लोगों के मन में बसते हैं साबन के सोमवार को यहां बड़ी भींड़ उमडती है। सप्तसमुद्रकूप, शिवताल यह राजा पटनीमल का बनवाया हुआ है पहले यह एक साधारण कुण्ड हुआ करता था आज बहुत ही सुन्दर तथा पत्थरों का बना विशाल कुण्ड मौजूद है।, बलभद्र कुण्ड, भूतेश्वर महादेव भी अभी तक पूजे जाते हैं, बड़े ही चमत्कारी महादेव हैं, यहीं पर योगमाया का मंदिर भी मौजूद है यह पाताल देवी के नाम से प्रसिद्ध है। पोतरा कुण्ड जो विशाल कुण्ड के रूप में आज भी मथुरा के प्राचीन इतिहास का साक्षी बना हुआ है इस कुण्ड़ को वर्षों वाद सजाया संवारा गया है आज इस कुण्ड को एल ई डी लाइट की सजावट से सजाया गया है रात्रि में यह तीर्थ यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करता है।, इसी के निकट ज्ञानवापी भी है विशाल जल श्रोत का एक कुंआ मौजूद है विवाद के चलते इस पर मुसलमानों ने कब्जा किया हुआ है। श्रीकृष्ण जन्मस्थान विशाल प्रांगण में अवस्थित है जहां लाखों तीर्थ यात्री भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए आते हैं, इसके निकट ही प्राचीन केशवदेव का मंदिर भी है जिसमें आकर्षक चर्तुभुज प्रतिमा काले पत्थर की स्थापित है, कृष्णकूप, कुब्जा कूप, इनका नाम ही शेष रह गया है आसपास विशाल कॉलोनियों के निर्माण ने इस ऐतिहासिक धरोहरों को या तो नष्ट कर दिया है या यह अपनी पहचान आज के आधुनिक युग के विकास में कहीं खो चुके हैं। महाविद्या का प्राचीन मंदिर आज भी बड़ी उचाई पर स्थित है जिसके नाम से ही महाविद्या कॉलोनी का विकास हुआ है। इन प्राचीन धरोहरों को नष्ट करने में मथुरा वृन्दावन विकास प्राधीकरण का हाथ भी कुछ कम नहीं है। विकास के नाम पर अति प्राचीन व एतिहासिक धरोहरों को नष्ट भष्ट किया जा चुका है कुछ का तो नामो निशान ही आज मिट गया है। सरस्वती नाला, सरस्वती कुण्ड, सरस्वती देवी का प्राचीन मंदिर पर भी आज व्यक्तिगत लोगों का कब्जा हो चुका है। चामुण्डा देवी का प्राचीन मंदिर भी मौजूद है यहां वर्ष भर देवी भक्तों का तांता लगा रहता है। इसके आसपास की जमीनों पर कॉलोनियां विकसित हो चुकी हैं। उत्तरकोटि के तीर्थों में गणेश टीला आज भी मौजूद है, मनमोहक गणेश जी की प्रतिमा है। गणेशजी के नाम से गणेश टीला के नीचे की जमीनों पर कब्जा होता चला गया यमुना के खादरों और डूब क्षेत्र को भूमाफियाओं ने बेच कर अवैध कॉलोनियों का निमार्ण कर दिया, जहां बहुत बड़ी आवादी के बस जाने के कारण प्रतिवर्ष यमुना जल स्तर के बढ जाने की स्थिति में जिला प्रशासन को इन्हें हटाने में बड़ी मेहनत करनी पडती है।, गोकर्णेश्वर महादेव भी अतिप्राचीन महादेव में से एक हैं यहां आदमकद भोलेनाथ की प्रतिमा के दर्शन होते हैं शायद ही भोलेनाथ का यह स्वरूप अन्यत्र कहीं मिले, मगर इस मंदिर के साथ लगी सारी सम्पत्ति भी बेची जा चुकी है सिर्फ मंदिर का भाग ही बचा है बाकी आसपास की भूमि पर कॉलोनियां, मकान आदि का निमार्ण हो चुका है। गौतम ऋर्षि की समाधि का आज नामो निशान मिट चुका है कहां पर स्थित है, कहा नहीं जा सकता है। इसी प्रकार से सेनापति का घाट लुप्त हो चुका है। सरस्वती संगम और दशाश्वमेध घाट, अम्बरीष टीला जाने कहां गुम हो गये आज लोगों के स्मृति पटल से यह स्थान गायब हो चुके हैं। 


चक्रतीर्थ घाट जो प्राचीन घाटों में गिना जाता है। यमुना सौंदर्यीकरण और यमुना शुद्धिकरण के नाम पर यमुना के प्राचीन घाटों को किस प्रकार से नदी की धारा से दूर किया जा रहा है यह जिला प्रशासन से लेकर मथुरा वृन्दावन विकास प्राधीकरण व सिचाई विभाग और मथुरा वृन्दावन नगर निगम सहित पर्यटन विभाग ने भी आँखें मूंद ली हैं। यमुना किनारे के कुछ घाट आज सिर्फ नाम के लिए जिन्दा हैं, उनका अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया है।

मथुरा-वृन्दावन मार्ग पर पड़ने वाला चक्रतीर्थ घाट यमुना सौंदर्यीकरण और शुद्धिकरण की भैंट चढ़ चुका है। कभी इस घाट का बहुत महत्व हुआ करता था यहां शहर से आने वाले शवों को विश्राम कराया जाता था तथा यहां पिण्ड दान की क्रिया सम्पन्न करा कर यमुना के किनारे शवों का दाहसंस्कार किया जाता था। यहां वर्षों पुरानी परम्परा मसानी मोक्षधाम के बनने के वाद समाप्त हो गयी। यहां आज भी वह पत्थर मौजूद है जिसमें शवों को विश्राम हेतु रखा जाता था। इतना प्रचीन घाट अपने अतीत की कहानियां स्वयं वयां कर रहा है। नक्काशी दार पत्थरों पर कारीगरी आज भी घाट पर मौजूद है।


इस घाट के ठीक सामने से यमुना की तरफ एक षडयन्त्र के तहत पक्की सड़क को बनाया गया है कभी इस घाट तक यमुना नदी का जल रहा करता था। घाट के वांये और दायी तरफ यमुना के किनारे अवैध निर्माण कर लिये गये हैं डोरी, निवाड के कारखानों की दीवारे यमुना की तरफ बढ़ाई जा चुकी हैं दायी तरफ के मार्ग भी अतिक्रमण की भैंट चढ़ चुके है। इस ओर नगर निगम का ध्यान भी नहीं है तथा विकास प्राधीकरण भी इस दिशा में अपनी आंखें मूंदे बैठा है।


कृष्ण गंगा घाट बहुत ही आकर्षक घाट है यहां की तीन छतरियां पत्थरों की बनी हैं। यहीं पर महर्षि वेदव्यास जी का स्थान भी है बताया जाता है कि इसी स्थान पर वेदव्यास ने 18 पुराणों की रचना की थी। यह स्थान भी यमुना को घाटों से अलग किये जाने के कारण आज उपेक्षित हो गये हैं। कालिंजर महादेव प्राचीन महादेवों में से एक हैं इस मंदिर के बाहर आकर्षक पत्थरों को काट कर बना नक्काशीदार दरवाजा देखने लायक है। सोमतीर्थ भी अब लुप्त हो चुकी है गौघाट आज अतिक्रमण और यमुना नदी के घाटों से चले जाने के कारण सिसकियां ले रहा है।, कंसटीला का जार्णोद्धार किये जाने के कारण अभी बचा हुआ है।, घण्टाकर्ण, मुक्ति तीर्थ, ब्रह्म घाट, वैकुण्ठ घाट, धारा पतन, इनका कोई पता ही नहीं है कि यह कहां हैं, वसुदेव घाट जो आज स्वामी घाट के नाम से जाना जाता है। असिकुण्डा घाट, वाराह क्षेत्र के वाद सड़क के दायीं ओर द्वारकाधीश का विशाल मंदिर मथुरा के हृदय स्थल में स्थित है यह राजाधिराज द्वारकाधीश पुष्टिमार्गीय बल्लभकुल सम्प्रदाय का प्राचीन मंदिर है यहां प्रतिवर्ष लाखों तीर्थयात्री दर्शन करने आते हैं। मणिकर्णका घाट, महाप्रभुजी की बैठक, विश्राम घाट तीर्थ स्थल है यहां पर यमुना जी में स्नान करने का विशेष महत्व माना जाता है। यह सभी घाट मथुरा की परिक्रमा के स्थान हैं। इनमें से अधिकांश स्थान उत्तर और दक्षिण के परिक्रमा के मार्ग से छूट जाते हैं। 

आज अधिकांश पौराणिक घाट व ऐतिहासिक स्थान ऐसे हैं जो समय के साथ-साथ अपना नाम और निशान को खो चुके हैं। मंदिरों की तमाम जमीनें बेची जा चुकी हैं। साथही यमुना के घाटों के किनारे से यमुना को एक षडयंत्र के तहत हटाया जा रहा है। लगातार हम अपने प्राचीन इतिहास को नष्ट भष्ट कर रहे हैं। वर्षों पुरानी सभ्यता तथा उसके चिन्हों को समाप्त करके हम अपनी पहचान भी खो रहे हैं। जिला प्रशासन सहित मथुरा वृन्दावन विकास प्राधीकरण, मथुरा-वृन्दावन नगर निगम तथा पर्यटन विभाग को इस ओर ध्यान देना चाहिए।


मंगलवार, 6 जुलाई 2021

लम्बे इन्तजार के वाद मथुरा-गोवर्धन मार्ग का निर्माण कार्य शुरू

लम्बे इन्तजार के वाद मथुरा-गोवर्धन मार्ग का निर्माण कार्य शुरू 

मथुरा। चार साल के लम्बे इन्तजार के वाद अब वह समय आ ही गया जब मथुरा भूतेश्वर से लेकर गोवर्धन ड़ीग तक सड़क का निर्माण कार्य होने जा रहा है। लोकनिर्माण विभाग को वन विभाग ने मथुरा-गोवर्धन मार्ग के निर्माण कार्य की सशर्त मंजूरी दे दी है। वन विभाग से हरी झंडी मिलने के बाद गोवर्धन मार्ग का निर्माण कार्य शुरु हो गया है। वहीं लोक निर्माण विभाग के सामने अब तक सड़क निर्माण में 2940 पेड़ अवरोध बने हुए थे जिसे वन विभाग की अनुमति के वाद ऐसे 1800 पेड़ों को चिह्नित किया गया है जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही निर्माण में इनके अवरोध को दूर किया जा सकेगा।


इसके लिए विभाग को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इंतजार है। वर्ष 2017 से गोवर्धन के ड़ीग बॉर्डर से लेकर-मथुरा भूतेश्वर मार्ग के निर्माण के लिए प्रयास में चार साल लग गये। लोकनिर्माण विभाग को वन विभाग ने सशर्त रोड निर्माण को मंजूरी दे दी गई है। वन विभाग द्वारा दी गई मंजूरी में स्पष्ट किया गया है कि पेड़ों के काटे बगैर सड़क का निर्माण किया जाए। इस मंजूरी के साथ ही लोकनिर्माण विभाग ने गोवर्धन मार्ग का निर्माण कार्य शुरु कर दिया है। बताते चलें कि ड़ीग गोवर्धन मार्ग से मथुरा तक के निर्माण में 2940 पेड़ अवरोधक बने हुए थे। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद विभाग ने 1800 ऐसे पेड़ों को चिह्नित किया है जो अब अवरोधक बनेंगे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही मार्ग निर्माण में आ रहे अवरोध को दूर किया जा सकेगा। लोकनिर्माण विभाग के एक्सईएन सनसवीर सिंह ने बताया कि गोवर्धन मार्ग का निर्माण कार्य वन विभाग की मंजूरी के बाद शुरु हो गया है। वन विभाग ने पेड़ न काटने की शर्त पर मार्ग के निर्माण को मंजूरी दी है। इससे 70 प्रतिशत कार्य हो जाएगा। तीस प्रतिशत कार्य के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इंतजार है।


इस सड़क के निर्माण को लेकर चार वर्ष पूर्व टेंडर किया गया था। आगरा की आर. पी. इंफ्रास्ट्रक्चर को इसके निर्माण का कार्य करने का टेंडर मिला था। सड़क का निर्माण कार्य शुरू होने से पहले ही सड़क 2940 पड़ों के विवाद में फंस गई और 25,473 किलोमीटर सड़क का निर्माण कार्य अटक गया। मथुरा गोवर्धन मार्ग को चार लेन का बनाया जाना प्रस्तावित है। जिसमें ड़ीग बार्डर तक अड़ीग बाईपास होकर 25,743 किलोमीटर लम्बाई की सड़क का अनुमानित लागत 138 करोड़ में बन कर तैयार होना था। जिसमें 17.5 मीटर चार लेन 2.5 मीटर चोड़ा डिबाइडर कुल मिलाकर 20 मीटर चोड़ी सड़क का निर्माण 1.5 मीटर दोनों तरफ कच्ची पटरी के साथ निर्माण किया जाना प्रस्तावित था। इस सड़क में 3.5 किलोमीटर गोवर्धन से सतोहा तक तथा 1.5 किलोमीटर गोवर्धन कस्बा तक आवादी का क्षेत्र भी पड़ता है। साथ ही गोवर्धन चौराहा से भूतेश्वर तिराहे तक भी आवादी का क्षे़त्र होने के कारण भी तमाम अवरोध हैं जिन्हें भी पूरा किया जाना है।


इस सड़क के निर्माण की मंजूरी चार वर्ष पूर्व मिली थी मगर इस सड़क के दोनों तरफ 2940 पेड़ अवरोध बन गये। एनजीटी ने इसके निर्माण पर रोक लगा दी थी नियम के अनुसार कुल पेड़ों का दस गुना यानी करीब 30 हजार पेड़ कहीं अन्य जगह में लगाने का आदेश के वाद ही किसी भी पेड़ को काटा जा सकता था। जिसकी एबज में 30 हजार पेड़ लगाये जाने का आदेश मिला वो भी किसी गैर वन विभाग की जमीन में लगाने होंगे। इसके वाद तत्कालीन जिलाधिकारी सर्वज्ञ राम मिश्र द्वारा 30 हजार पेड़ लगाने के लिए महावन तहसील के (मादोर) में 30 हेक्टेयर भूमि का चयन करके देने का प्रस्ताव भी पास हो चुका था। मगर मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया जहां कोर्ट ने पूछा कि जो पेड़ सड़क के किनारे खडे़ हैं वह कितनी ऑक्सीजन देते हैं तथा अब तक कितनी ऑक्सीजन दे चुके होंगे तथा कितनी ऑक्सीजन आगे देंगे। क्या अन्य जगह पेड़ लगाये जाने पर यहां की ऑक्सीजन की पूर्ती हो पायेगी। इसकी जांच का जिम्मा भी वन विभाग को सौंपा गया। वन विभाग ने इसकी जांच किये जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। जब इस कार्य के लिए देहरादून स्थित एक फर्म से विभाग ने सम्पर्क किया तो फर्म ने 18 माह का समय मांगा था। इस कार्य में 40 लाख 10 हजार का खर्चा भी आ रहा था। इस सड़क के निर्माण में 20 से अधिक प्रजातियों के पेड़ अवरोध बने हुए है जिनमें अमरूद, ऑवला, अमलताश, अरिस्ट्रीनियां, अर्जुन, अशोक, बबूल, बकाईन, बर्गद, बैन्जामिन, वैरी, छौकर, डूंगर पीलू, ईमली, गुलमोहर, गूलर, जंगल जलेबी, जामुन, जुलीफोरा, कद्दम, करौंदा, कन्जी, कैशिया, लिसौड़ा, नीम, पाकड, पापड़ी, पसन्दू, पीलू, पीपल, रेमजा, सहजन, सहतूत, सिरस, सुवाफूल, शीशम, सिहोरा, यूकल्पटस, आरू, तमाल आदि पेड़ बताये जाते हैं।


इस सड़क के निर्माण की आवश्यकता गोवर्धन में लगने वाले मुड़िया पूर्णिमा मेले को देख कर निर्णय लिया गया। मुड़िया पूर्णिमा मेले में लाखों परिक्रमार्थी मथुरा से गोवर्धन जाते हैं। अच्छी चौड़ी सड़क के निर्माण से क्षेत्र का विकास भी होगा और आर्थिक दृष्टि से भी लाभ की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।


बुधवार, 16 जून 2021

पुत्री-जमाई की लम्बी आयु की कामना का पर्व जमाई षष्ठी

जमाई षष्ठी का पर्व कल था यानी 16 जून 2021 को यह ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को यह बंगाल का एक परम्परागत हर घर में मनाया जाने वाला बड़ा ही आत्मिक पर्व है, यह पुत्री जमाई की लम्बी उम्र की कामना के लिए होता है, घर की पुत्री की शादी हो चुकी हो, उसके पति को आज के दिन बुला कर अच्छे अच्छे पकवान बना कर जमाई और बेटी को आसन देकर पहले पूजा की जाती है फिर भोजन कराया जाता है यह कार्य सिर्फ बेटी की माँ यानी जमाई की सास ही करती है बड़े भी आर्शीवाद देते हैं वह वाद में करते हैं। इस प्रकार से बंगाल में यह एक दिन जमाई की अच्छे से खातिर दारी का दिन होता है, उसका मान सम्मान करने का दिन होता है, जमाई भी अपनी सामर्थ्य अनुसार मिठाई फल इत्यादी लेकर ससुराल जाते हैं, वहां हर घर में इस दिन जमाई आते हैं खूब आनन्द करते है हंसी मजाक के साथ पूरा दिन ससुराल में गुजारते हैं। यह शायद सामाजिक समरसता को बढाने का एक पारम्परिक पारिवारिक उत्सव के रूप मे मनाया जाता है। 


भारत की संस्कृति में और भारत के हर समाज में ही जमाई को ज़्यादा महत्व दिया जाता है, बंगाल इसी को दर्शाता है। जिसमें बंगाल में इस पर्व को बड़े ही हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस पर्व पर यहां के जनमानस का आचरण बंगाल की संस्कृति का अविभाजित अंग है।

कहते हैं की एक बार एक लालची बूढी औरत थी। वह हमेशा सारा खाना खा जाती थी और दोष बिल्ली पर डाल देती थी। बिल्ली माँ षष्ठी का वाहन है और उसने जाकर माँ षष्ठी से बूढी औरत की शिकायत की। माँ षष्ठी ने उस औरत को सबक सिखाने के लिये उसकी बेटी और दामाद को ले जाति है। तभी अपनी गलती मानते हुए बूढी औरत माँ की पूजा अर्चना करती है और माँ उसे उसकी बेटी और दामाद को लौटा देती है। इसी से प्रेरणा ले कर आज तक हजारों माँ और सासु माँ इस त्योहार को निरन्तर मनाती चली आ रहे हैं।


जामाई षष्ठी बंगाल का पारिवारिक पर्व है जो अपने जमाई के लिये मनाया जाता है। यह पर्व गर्मी के मौसम में ही आता है (बंगाल मे जैष्ट मास में पडता है)। बंगाल की उपजाऊ धरती पर इस महिने में आम, लीची, कृष्ण बदररी, पके कटहैल आदि फल होते है। इस शुभ दिन के अवसर पर बंगाल के परिवारों मे जमाई के लिये जशन का माहौल होता है पूरा परिवार ही इस दिन जश्न मनाता है।

बंगाल में इस पर्व को बडे ही अनोखे तरीके से मनाया जाता है। सास अपने जमाई और बेटी को घर पर बुलाती है और सास इस समय अनेक रसम रिवाज को पूरा करती है। सुबह जल्दी स्नान आदि करके, व्रत रखते हुए एक कूलो (सूप)  में धान, दुर्बा (घास) दही, मिठाई के साथ पांच तरह के फल को कूलो (सूप) में सजा कर एक हाथ का पंखा भी रख कर चन्दन आदि के साथ और षष्ठी देवी की पूजा करती हैं। षष्ठी पूजा के बाद पवित्र जल को बेटी दामाद पर धीरे धीरे छिडका जाता है और सास अपने बेटी और जमाई की लम्बी आयु की कामना षष्ठी देवी से करती है। पूजा के बाद सास जमाई को खूब सारे उपहार देती है और उनके सिर पर हाथ रख कर उनकी लम्बी आयु की कामना करती है। इस दिन जमाई भीं अपने ससुराल जाते समय खूब मिठाई, फल इत्यादि लेकर जाते हैं और अपनी अपनी सासु माँ के लिए भी उपहार लेकर जाते हैं।


ऐसा कहा जाता है कि आदमी के दिल तक का रास्ता उसके पेट से हो कर गुजरता है। भारत में भोजन से बढ़ कर कुछ नहीं है, भोजन इस पर्व का एक महत्वपूर्ण भाग है। लूची (पूडी) और आलू की तरकारी, मोयदा (मैदा) की लूची या दाल पूड़ी कचौड़ी और हींग दही आलू की तरकारी आदि सुबह का नाश्ता दोपहर में चावल, बैंगुन भाजा, मूँग दाल, प्याज के पकोडे, मच्छली करी, या अन्ड़ा करी या मटन चिकिन, पापड़, खट्टे आम की चटनी आदि दोपहर का भोजन। इसके वाद मिठाई में रसगुल्ला, गुलाबजामुन, पांतुआ, आम दोइ, मिष्टि दोई, आदि बनता है। जमाई लोग खूब मजे से खाते पीते हैं मौज मस्ती करते हैं खूब हंसी मजाक हाय हल्ला करते हैं यह एक दिन सुसराल में जमाई की जमकर खातिरदारी होती है।



सोमवार, 31 मई 2021

आई सी सी आर के माध्यम से औडिशी नृत्य की सुन्दर प्रस्तुति

वृन्दावन, मथुरा। नृत्य एक ऐसा सुन्दर माध्यम है या एक साधन है जिससे हम भगवान के साथ सीधा अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद, लखनऊ के माध्यम से होराइजन सीरीज के अर्न्तगत ऑनलाइन कार्यक्रम के द्वारा एक सुन्दर प्रस्तुति दी गई, इस सीरीज के अन्तर्गत वृन्दावन की प्रख्यात ओड़िसी नृत्यांगना श्रीमती कुंजलता मिश्रा ने अपनी अद्भुद प्रस्तुति से सोशल मीडिया पर खूब सुर्खियां बटोरीं।


ओड़िसी नृत्य एक ऐसी नृत्य विद्या है जो पुरातन समय में जगन्नाथ मंदिर में देवदासियों द्वारा किया जाता था। वहीं आज यह नृत्य अलग-अलग गुरूओं के द्वारा इसका विश्व भर में प्रचार प्रसार सम्भव हुआ है।

कुंजलता मिश्रा भी इसी श्रेणी की श्रेष्ठ कलाकार हैं। श्रीमती कुंजलता मिश्रा ओड़िसा के जाजपुर में पली बढ़ीं उन्होंने नृत्य की शिक्षा श्रीगुरू दुर्गाचरण रनवीर एवं श्री पीताम्बर विश्वास से प्राप्त की, उत्कल संगीत महाविद्यालय से एम ए, गंधर्व महाविद्यालय से नृत्यअलंकार प्राप्त करने के बाद एम फिल की डिग्री आगरा विश्वविद्यालय, के ललित कला संस्थान आगरा से प्राप्त की। मिनिस्ट्री ऑफ कल्चर द्वारा फेलोशिप भी प्राप्त हो चुकी है।

एक समय की बात है जब यह अपने गुरू के साथ वृन्दावन आंयीं और वृन्दावन का भव्य, सुन्दर वातावरण देख कर इतनी प्रभावित हो गयीं कि उन्होंने अपना हृदय यहां पर भगवान को और भगवान की दिव्य लीलाभूमि को समर्पित कर दिया। इसके वाद वृन्दावन में ही रच बस गयीं और यहीं की होकर रह गयीं। इनका विवाह गुरू श्री प्रताप नारायण जी के साथ हुआ। वृन्दावन में रह कर लगभग 30 वर्षों से ओड़िसी नृत्य का निरन्तर प्रचार प्रसार कर रही हैं एवं इस विद्या से अनेकों छात्र छात्राओं को शिक्षित करने का प्रयास भी जारी है।


श्रीमती कुंजलता जी को अनगिनत सम्मान प्राप्त हुए हैं जिसमें मीराबाई सम्मान, जयदेव सम्मान, कला रत्न सम्मान, मेघश्याम सम्मान, श्रंगार मणि सम्मान, कलारत्न सम्मान, ब्रजरत्न समान, ब्रज विभूति सम्मान, ब्रज गौरव सम्मान प्रभुख हैं, इसके साथ-साथ नेशनल एच आर डी स्कॉलरशिप भी इन्हें मिला, आई सी सी आर की इंपेनल आर्टिस्ट भी होने के साथ दूरदर्शन की रिलेशन आर्टिस्ट भी हैं। यह विश्व भर में प्रख्यात एक बहुत ही सुन्दर ओड़िसी नृत्यांगना हैं। जिन्हें सैफई महोत्सव, पुरी बीच फैस्टेबिल, ताज महोत्सव, झांसी महोत्सव, ओडिसी बिस्वा  महोत्सव, श्री चैतन्य महाप्रभु अबिरभाब महोत्सव जैसे अनेक प्रचलित और फेमस कार्यक्रमों में अपने नृत्य की प्रस्तुति देने का अवसर मिल चुका हैं। वर्तमान में मेवाड़ यूनिर्वसिटी में नृत्य के प्रवक्ता के रूप में कार्यरत हैं।


आई सी सी आर की ओर से आयोजित कार्यक्रम में प्रथम प्रस्तुति  मंगलाचरण के साथ किया गया। मंगलाचरण किसी भी नृत्य की प्रस्तुति से पूर्व भगवान को स्मरण करते हुए उनका आर्शीवाद प्राप्त करने से होता है। आदिशंकराचार्य द्वारा रचित ‘‘श्रीभजे व्रजेकमण्डलं’’ के उपर आधारित इस सुन्दर नृत्य कम्पोजीशन गुरू श्री दुर्गाचरण रनवीर जी ने किया।

इसके उपरान्त अगली प्रस्तुति किरवानी पल्लवि से हुई, पल्लवि का अर्थ विकसित होने से है, पल्लवित होना जिस प्रकार से कोई कली पुष्प में परिवर्तित होती है उसी प्रकार इस नृत्य में नृत्यांगना शुरू से लेकर अन्त तक अपने अलग-अलग रूपों के माध्यम नृत्य मुद्राओं, भंगिमाओं के माध्यम से नृत्य को विकसित करती हैं, राग किरवानी में होने के कारण इसे किरवानी पल्लवि कहा गया है। इसी के साथ श्रीमती कुंजलता मिश्रा ने अपनी अगली प्रस्तुति अभिनय के द्वारा नवरस के रूप में दी, नवरस यानी नौ रसों के साथ नृत्य की मुद्राओं में प्रस्तुत किया। इस नृत्य में नौ रसों में श्रंगार रस, वीर रस, करूण रस, अद्भुद रस, हांस्य रस, भय, वीभत्स, रौद्र एवं शान्त रस इन नौ रसों को दर्शाते हुए श्रीमती कुंजलता मिश्रा ने सुन्दर नृत्य की प्रस्तुति दी। 


इस कार्यक्रम के उपरान्त श्रीराम की लीलाओं की प्रस्तुति की गयी, जिसमें किस प्रकार से श्रीराम दण्डकाण्डय में माता सीता के साथ श्रंगार रस की लीलाएं कीं उसके पश्चात किस प्रकार से उन्होंने शिव के धनुष का भंजन किया, किस प्रकार से सेतु बंधन किया, किस प्रकार से जटायु के शरीर त्यागने पर उन्हें दुःख हुआ। इस प्रकार से अलग-अलग लीलाओं के माध्यम से नौ रसों की भावपूर्ण प्रस्तुति दी गई। 


कार्यक्रम के अन्त में मोक्ष की प्रस्तुति दी गयी, जीवन का हर कार्यक्रम का अन्त होता है उसमें मोक्ष के साथ अर्थात भगवान में लीन हो जाना ही मोक्ष माना जाता है। क्यों कि ओड़िसी नृत्य भगवान श्री जगन्नाथ देव की प्रसन्नता के लिए किया जाता है, इस लिए यहां मोक्ष का अर्थ भी भक्ति का ही माध्यम है। भगवान जगन्नाथ को समर्पित प्रस्तुति नृत्य मोक्ष के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ। इस कार्यक्रम के ऑनलाइन आयोजन की सुन्दर प्रस्तुति भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद, लखनऊ के माध्यम से की गई, इस कार्यक्रम को ऑनलाइन के माध्यम से  जन-जन तक पहुंचाने का कार्य पी. के. गुप्ता के द्वारा पी. के. स्टुडियो की टीम व सुनील शर्मा पत्रकार के निर्देशन में किया गया। इस कार्यक्रम का संचालन चन्द्रमुखी मुरलर ने किया।


सोमवार, 10 मई 2021

भाव से पूजा और भाव से ही गोपाल के साक्षात दर्शन

    एक ब्राहम्ण था जो भगवान को भोग लगाये बिना खुद कभी भी भोजन नहीं करता था। हर दिन पहले गोपाल जी के लिए खुद प्रसाद बनाता था और भोग लगा कर फिर स्वयं व उसकी पत्नी व एक छोटा बेटा था यह तीनों ही गोपाल जी का प्रसाद पाते थे। बेटा पिताजी को हर रोज ठाकुर जी की सेवा और उनको भोग आदि लगाने की पूरी क्रिया को बड़े ही मनोयोग से देखता था। और पिता जी को यह भी देखता था कि वह किस प्रकार से गोपाल जी को निवेदन करते हैं कि लाला प्रसाद पाओ और पर्दा लगा कर बाहर आ जाते हैं।


एक दिन ब्राहम्ण को किसी काम से शहर की तरफ पत्नी के साथ जाना था सो उसने अपने बेटे से कहा कि आज तुम ठाकुर जी का ख्याल रखना और जैसे भी हो ठाकुर जी को कुछ बना कर खिला देना। बेटा बोला कि ठीक है पिता जी मैं जैसा आप कह रहे हैं वेसा ही करूंगा। माता पिता शहर की तरफ चले गये। बेटे ने कभी कुछ न बनाया न उसे कुछ बनाना आता है। उसने जल्दी-जल्दी से स्नान आदि करके दाल और चाबल मिला कर कुछ कच्ची सब्जी उसमें डाल कर अंगीठी पर बिठा दिया और ठाकुर जी को स्नान करा कर पौशाक आदि बदल कर आरती करके फिर बर्तन से गरम-गरम खिचडी निकाली और ठाकुर जी के सामने एक थाली में सजा कर परोस दी और पर्दा लगा दिया। 

अब वह कुछ देर वाद-वाद जाकर पर्दा हटा कर देखता कि गोपाल जी खा रहे हैं या नहीं मगर वह देखता है कि गोपाल जी ने तो उसकी बनाई हुई खीचड़ी को छुआ तक नहीं, प्रसाद को काफी देर देखने के वाद छोटे से बच्चे को बहुत गुस्सा आया और वह गोपाल जी से वोला कि पिताजी खिलाते हैं सो खा लेते हो क्यों कि वह स्वादिष्ट व्यंजन जो बनाते हैं। आज मैंने बनाया है मुझे खाना बनाना आता नहीं है और मैंने बेकार सा भोजन बनाया है इस लिये नहीं खा रहे हो, बालक ने गोपाल जी से काफी बिनती की कि आज जैसा भी बना है खा लो मुझे भी भूख लगी है तुम खा लो तो मैं भी प्रसाद पांऊगा। मगर गोपाल जी तो उसकी सुन ही नहीं रहे थे। जब उस बच्चे का धैर्य जबाव दे गया और उससे रहा नहीं गया तो वह बाहर से एक बड़ा सा सोटा लेकर आ गया और जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि खाते हो या अभी इस सोटे से लगा दूं दो चार। 

यह कह कर वह फिर पर्दा लगा कर बाहर जाकर बैठ जाता है कि शायद इस वार गोपाल जी खा लेंगे, अबकी वार वह फिर झांक कर देखता है कि उसके द्वारा परोसी गई सारी खीचड़ी तो गोपाल जी खा गये है। मगर अब एक समस्या यह हो गयी कि अब सारी खीचड़ी तो गोपाल जी खा गये अब वह क्या खायेगा व माता पिता को क्या खाने को देगा ऐसा मन में विचार लिए वह थाली में जो थोडी बहुत खीचडी लगी थी। उसी को किसी तरह से चाट कर खा गया और फिर वहीं पर सो गया। जब शाम को माता पिता हारे थके घर बापस आये तो उन्होंने बच्चे को उठाया कि बेटा आज क्या बनाया था गोपाल जी के लिए। बेटा बोला पिता जी मैंने वैसे ही किया जैसे आप हर रोज पूजा सेवा करते हैं मगर आज गोपाल ने मेरी बनाई सारी की सारी खिचड़ी खा ली मैं भी भूखा रह गया। 

पिता को अपने बेटे की बात पर विश्वास नहीं हुआ। फिर पिता ने बेटे से कहा कि हमें बड़ी जोर से भूख लगी है गोपाल जी का भोग प्रसाद हमें भी तो दो हम भी कुछ खा लें सुबह से कुछ खाया भी नहीं है। ऐसा सुन कर बच्चा रोने लगा कि पिता जी आज गोपाल ने मेरे लिए भी कुछ नहीं छोड़ा, मैं भी भूखा रह गया कुछ भी नहीं खा पाया जो थाली में लगा रह गया था वही खाया और मुझे नींद आ गयी और मैं सो गया। ब्राहम्ण ने और उनकी पत्नी ने पहले तो सोचा कि शायद यह कुछ बना ही नहीं पाया होगा फिर जब उन्होंने थाली की तरफ देखा तो लगा कि कुछ बनाया तो है मगर शायद खुद ही खा कर सो गया होगा और हमसे झूठ वोल रहा है।

जब वार-वार ब्राहम्ण ने पूछा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं इतने वर्षों से रोजाना ना ना प्रकार के व्यंजन बना कर गोपाल जी के सामने रखता हूँ गोपाल जी ने कभी भी मेरी थाली से एक तिनका भी नहीं खाया आज पुत्र के हाथ से गोपाल ने खा लिया। ब्राहम्ण को विश्वास नहीं हुआ ब्राहम्ण ने देखने के लिए पर्दा हटाया तो देखा कि गोपाल के मुख में वह खिचड़ी लगी हुई है तब जब पुत्र से पूरी घटना सुनी तो ब्राहम्ण खुशी से पागल हो गया कि मैं न सही मैरे पुत्र ने तो साक्षात गोपाल को पा लिया है।

आशय यह है कि हमारी जो पूजा सेवा है भोग राग है यह सब भाव की है मन में जो भाव रखता है उसे भगवान निश्चय ही किसी न किसी रूप में मिल ही जाते हैं। 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।


शनिवार, 1 मई 2021

चमत्कारी सन्त पागल बाबा

 मथुरा। (सुनील शर्मा ) वृन्दावन में तमाम सन्त है जिनके चमत्कार के किस्से हमेशा चर्चा में रहते हैं एक से एक चमत्कारी सन्त ब्रज में हुए हैं जिन्होंने समय-समय पर ब्रजवासियों को अपना चमत्कार दिखाया है। आज भी अनेक सन्त हैं जिनके आश्चर्यजनक चमत्कार को यहां आने वाले श्रद्धालु भक्त अक्सर देखते रहते हैं। जैसा कि भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि लीला भूमि अपने आपमें एक चमत्कार से कम नहीं है हर जगह आपको कुछ न कुछ आश्चर्य से भरा हुआ दिखाई देगा। कहा जाता है यहाँ कण-कण में भगवान श्रीकृष्ण का वास है और यह लीला भूमि हर पल आनन्दित करती रहती है, यहां हजारों मंदिर स्थापित हैं फिर भी यहां प्रतिवर्ष कोई न कोई नया मंदिर बन कर तैयार हो ही जाता है। जिसमें वृन्दावन में स्थित एक मंदिर हर तरह से चमत्कारी मंदिर है। जो पागल बाबा के मंदिर के नाम से ख्याति प्राप्त है।


हर एक मंदिर कृष्ण कन्हैया और राधारानी से जुड़ी यादों से बना है जिसमें उनकी लीलाओं का वर्णन अलग-अलग रूपों में देखने को मिलता है।  यहां के प्रत्येक मंदिर में पूरे साल भक्तों का तांता लगा रहता है। लोग यहाँ भगवान की लीला भूमि को करीब से देखने उसके आश्चर्य को स्पर्श करने और स्वयं उस चमत्कार का अहसास करने के लिए यहां आते रहते हैं।

आज भी सभी लोग मानते हैं कि जब-जब धरती पर पाप बड़ा है, तब-तब भगवान ने विश्व के कल्याण के लिए अवतार लिए हैं और जब भी भक्तों ने अपने अन्तर मन से भगवान को पुकारा है तो वे स्वयं उसकी मदद करने के लिए आ ही जाते हैं। लेकिन शायद ही आपने कभी सुना होगा कि स्वयं  भगवान अपने किसी भक्त के लिए कोर्ट में भी पेश हुए हों। इस वात में सचाई है कि वृन्दावन में एक ऐसा भी मंदिर है जहां की एक कहानी आपको आश्चर्य चकित कर सकती है। इस मंदिर के निमार्ता और उनकी कहानी दोनों ही बेहद दिलचस्प है। 


तो इस दिलचस्प मंदिर के विषय में जानते हैं कि इस भव्य मंदिर के बारे में जो श्रीपागल बाबाजी महाराज से जुड़ा चम्तकारी मंदिर पागल बाबा के नाम से प्रसिद्ध है, जो उनके एक भक्त को समर्पित है। आपको बता दें कि पागल बाबा मंदिर मथुरा वृन्दावन मार्ग पर स्थित है। इसके बारे में एक कथा जनमानस में आज भी प्रचलित है, जिसके अनुसार एक गरीब ब्राह्मण जो कि श्रीकृष्ण का बहुत बड़ा भक्त था। वह पूरा दिन ठाकुर जी का नाम जपता रहता था। उसके पास जो कुछ भी था या यूं कहें कि जितना भी रूखा-सूखा उसे मांग कर खाने को मिलता है वे उसे भगवान की मर्जी समझकर भगवान को अर्पित करके स्वयं खुशी-खुशी ग्रहण करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर रहा था।  


एक समय उसे कुछ पैसों की जरूरत पड़ी तो वो किसी साहुकार से पैसे लेने के लिए गया। साहुकार ने उसे पैसे देते हुए कहा कि उसे जल्द ही पैसे लौटाने होंगे। उसकी बात मानकर वे पैसे लेकर घर आ गए। वह ब्राह्मण हर महीने नियम से किश्त का हिसाब करके साहुकार के पैसे लौटाने जाते थे। आखिरी किश्त के थोड़े दिन पहले ही साहुकार ने पैसे न लौटाने का एक पत्र उसके घर भिजवा दिया। यह देखकर ब्राह्मण बहुत परेशान हुआ और साहुकार से विनती करने लगा लेकिन साहुकार नहीं माना। मामला बड़ते बड़ते कोर्ट में पहुंच गया। एक दिन ब्राह्मण ने जज से अनुरोध करते हुए कहा कि एक किश्त के अलावा मैंने साहुकार का सारा कर्जा अदा कर दिया है। यह साहुकार झुठ बोल रहा है, इतना सुनकर साहुकर क्रोधित होकर जज साहब के सामने ही ब्राह्मण से कहने लगा कि कोई गलत व्यवहार नहीं किया है जिसके सामने आपने मुझे धन लौटा हो उसको सामने लाओ। इतना सुनकर ब्राह्मण सोच में डूब गया और सोचने लगा कि यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं कि मैंने साहुकार को जब जब धन लौटाए उसके और मेरे अलावा तो किसी ने मुझे पैसे देते हुए देखा ही नहीं।

इस बारे में बहुत सोचते हुए ब्राह्मण को अंत में अपने भगवान को याद करते हुए उसने कृष्ण कन्हैया का नाम लिया। यह सुनकर पहले तो जज साहब कुछ हैरान हुए लेकिन बाद में ब्राह्मण से उनका पता मांगा। ब्राह्मण के कहने पर एक नोटिस बांके बिहारी के मंदिर में भेजा गया। पेशी की अगली तारीख पर एक बूढ़ा आदमी कोर्ट में पेश हुआ और ब्राह्मण की तरफ से गबाही देते हुए बोला कि जब ब्राह्मण साहुकार के पैसे लौटाता था तब मैं उसके साथ ही होता था। बूढ़े आदमी ने रकम वापिस करने की हर तारीख को कोर्ट में मुंह जबानी बताया जैसे उसे सब कुछ एक एक तारीख के हिसाब से याद हो और साहुकार के खाते में भी बूढ़े आदमी द्वारा बताई गई रकम की तारीख भी सही लिखी निकली। साहुकार ने राशि तो दर्ज की थी लेकिन नाम फर्जी लिखे थे। जज साहब ने ब्राह्मण को निर्दोष करार दे दिया।


लेकिन जज साहब अब तक हैरान थे कि इतना बूढ़ा आदमी इतनी तारीख कैसे याद रख सकता है। जज साहब ने उसके बारे में उस ब्राह्मण से पूछा कि यह बूढ़ा आदमी कौन है, ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि वह सब जगह रहता है लोग उन्हें श्याम, कान्हा, कृष्ण आदि नामों से जानते हैं। इसके बाद जज साहब ने फिर से उसको पूछा कि वह बूढ़ा आदमी कौन था फिर ब्राह्मण ने कहा सच में उन्हें पता नहीं था कि वह कौन थे।


जज साहब को इस बात से बड़ी हैरानी हुई, उसके मन में सवाल पर सवाल आ रहे थे कि आखिर वह आदमी कौन था, इसी पहेली को सुलझाने को जज साहब स्वयं अगले दिन बांके बिहारी के मंदिर में पहुंच गये। वह जानना चाहते थे कि आखिर कल जो कोर्ट में आदमी आया था, वह कौन था। मंदिर के पुजारी से जब जज साहब ने पूछा और सारे घटना क्रम की जानकारी करते हुए बात की तो पुजारी ने उन्हें बताया कि जो भी चिट्ठी-पत्री यहां आती है उसे भगवान के चरणों रख दिया जाता है। जज साहब ने उस बूढ़े आदमी के बारे में भी पूछा लेकिन पूजारी ने कहा ऐसा कोई भी आदमी यहां नहीं रहता है। यह सब बातें सुनने के बाद जज साहब समझ गए कि वह साक्षात श्रीकृष्ण ही मेरी कोर्ट में पेश हुए थे।  इस घटना के बाद जज साहब इतना हक्का-बक्का रह गये और अपने आपको धन्य मानते हुए अपने पद से ही इस्तीफा दे दिया और यहां तक कि उन्होंने अपना घर परिवार भी छोड़ दिया और एक फकीर बन गये।  लोगों की मान्यता के अनुसार बहुत सालों बाद वह जज साहब पागल बाबा के नाम से वृन्दावन में वापिस आ गये और उन्होंने पागल बाबा के मंदिर का निर्माण करवाया तब से ये मंदिर पागल बाबा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। 


इस मंदिर के निमार्ण के वारे में एक और मान्यता यह भी है कि जब जज साहब को पता लगा कि उनके सामने साक्षात श्रीकृष्ण ही कोर्ट में पेश हुए थे। तब से वह कृष्ण कन्हैया को ढूंढने के लिए इतने अधीर हो गये कि अपनी सुध बुध खो बैठे थे इस घटना ने उन्हें पागल सा कर दिया था। इसके बाद वह जिस किसी भंडारे में जाते थे वहां से पत्तलों की जूठन उठाते थे और उसमें से आधा जूठन ठाकुर जी को अर्पित करते थे और आधा खुद खाते थे उन्हें ऐसा करते देख लोग उनके खिलाफ हो गए और लोगों ने उन्हें मारना पीटना भी शुरू कर दिया लेकिन वो अपना सुध बुध खो बैठे थे और प्रत्येक दिन भण्डारों का जूठन खुद खाते और भगवान को भी खिलाते रहते थे हार कर लोगों ने उन्हें एक पागल के रूप में मान लिया था धीरे धीरे उनका नाम ही पागल बाबा पड़ गया। 


उनसे परेशान होकर लोगों ने एक बार उनके खिलाफ एक योजना बनाई।  जिसके अनुसार लोगों ने भण्डारे में अपनी पत्तलों में कुछ न छोड़ा ताकि ये पागल ठाकुर जी को जूठन न खिला सके। उन्होंने फिर भी सभी पालों को पांछ कर एक निवाला इकट्ठा कर ही लिया और अपने मुंह में डाल लिया, पर आज वो ठाकुरजी को खिलाना तो भूल ही गये। लेकिन जैसे ही उसे इस बात का आभास हुआ कि आज बिना ठाकुरजी को भोग लगाए ही वह निवाला मुंह में रख गये है, तब उन्होंने अपना निवाला मुंह के अंदर न किया कि अगर पहले मैं पहले खा लूंगा तो ठाकुरजी का अपमान हो जाएगा और अगर थूका तो अन्न का अपमान हो जायेगा। अब वो निवाला मुंह में लेकर ठाकुर जी के चरणों का ध्यान करने लगे। तभी अचानक से बाल-गोपाल एक सुंदर से लड़के के रूप में पागल बाबा जज साहब के पास आया और बोला क्यों आज मेरो भोजन खाय गये। ये सुनकर जज साहब की आंखें आसुओं से भर आई और वो मन ही मन बोल रही थी कि ठाकुरजी बड़ी भूल हो गयी है, मुझे माफ कर दो। ठाकुरजी ने भी मुस्कराते हुए बोले आज तक तेनें मुझे लोगों का जूठा खिलाया है किंतु आज अपना ही जूठा खिला दे। जज साहब की आँखों से अश्रु रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। उसके बाद ही बाबा ने प्रण किया और विशाल मंदिर का निमार्ण कराया फिर विशाल भण्डारा भी किया जिसमें मथुरा जनपद के सभी लोगों को आमंत्रित किया गया था। अपार जन समूह उमड़ा था उस समय बाबा का भण्डार खाली होने का नाम ही नहीं ले रहा था बाबा ने मंदिर में विशाल रसोई का निमार्ण कराया था तथा मंदिर के नीचे विशाल भण्डार घर का निमार्ण भी कराया था। उसी समय इन्कम टेक्स डिपार्टमेन्ट ने बाबा के यहां छापा मार दिया कि इतना अनाज और भण्डारे का सामान कहां से आ रहा है, बाबा का चमत्कार तब भी हुआ था पूरी टीम जब भण्डार घर में घुसी तो उसे वहां कुछ भी नजर नहीं आया वह आश्चर्य चकित हो गये कि जब यहां कोई सामान है ही नहीं तो इतना विशाल भण्डारा कैसे चल रहा है। हैरान परेशान आयकर के अधिकारी वहां से चले गये।


बाबा के देश भर में भक्त विशेष कर आसाम बंगाल व औडीशा के औद्योगिक घरानों व मारवाड़ी परिवारों से आते हैं क्यों कि बाबा मूलरूप से सापटग्राम असम से हैं वहां भी बाबा का विशाल मंदिर है।

पागल बाबा अपने पास एक लाल रंग का बड़ा सा रूमाल रखते थे और हर किसी के सिर पर उसे रखकर आर्शीवाद देते थे। साथही व्यापारियों को समय समय पर समाज में जरूरत की बस्तुओं के विषय में तेजी मंदी के विषय में भी बताते थे, जिससे व्यापारियों को बड़ा लाभ होता था। बड़ी संख्या में मारवाड़ी और देश के बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के लोग बाबा के अनन्य शिष्य थे और आज तक उनके परिवार भी बाबा के भक्त हैं और बाबा की शक्तियों को आज भी महसूस करते हैं। बाबा की आकर्षक छवि लिये श्याम वर्ण के बाबा में हर किसी को अपनी ओर संमोहित करने की शक्ति थी चमत्कारी बाबा को आज भी लोग भूल नहीं पाये हैं।

बाबा के असंख्य धनाण्डय परिवार भक्त के रूप में आज भी बाबा की सेवा पूजा व बाबा महाराज के बताये गये मार्ग पर चल कर पीडित मानवता की सेवा करें तो वह परिवार आज भी तीसरी पीढ़ी के वाद भी इस पुनीत कार्य में लगी हुई है।


बाबा देवी पूजक भी थे इसी बाबा ने मंदिर में घुसते ही दांये हाथ पर भगवती दुर्गा का विशाल मंदिर बनवाया था। नो मंजिला मंदिर में हर देवी देवता का मंदिर बनवाया गया।

   आज भी उस पागल बाबा को समर्पित विशाल मंदिर वृन्दावन में स्थित है। कहा जाता है कि यहां से कोई भी भक्त खाली हाथ नहीं जाता है। यहां भक्तों की हर मनोकामना बाबा और उनके कान्हा जरूर सुनते हैं।  पागल बाबा का ये आश्रम बहुत ही धार्मिकता लिए हुए है यहाँ आने वाले भक्तों को सकारात्मकता का अनुभव होता है। बाबा का यह मंदिर अपने आपमें भी किसी चमत्कार से कम नहीं है मंदिर को किसी भी सड़क से देखा जाये तो यह मंदिर बहुत ही करीब दिखाई देता है मगर ज्यों ज्यों मंदिर की ओर जाते हैं मंदिर गायब हो जाता है। मथुरा वृन्दावन मार्ग के दोनों ओर से तथा सौ सैय्या अस्पताल ऐक्सप्रेस वे की तरफ से आने वाले मार्ग देखने पर यह बहुत करीब दिखाई देता है व कुछ समय वाद यह गायब भी हो जाता है।


हॉस्पिटल की परिकल्पना 70 के दशक में की जब किसी ने सोचा नहीं था कि हॉस्पिटल की इतनी जरूरत होगी, बाबा ने 1977 में एक धमार्थ ट्रस्ट की स्थापना की थी, बाबा के आदेश पर बने अस्पताल में बिना सरकारी मदद के जनरल ओपीडी, आंखो का अस्पताल, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक, विभाग पागल बाबा महाराज के भक्त परिवारों के सहयोग से चल रहे हैं। हाल में कोरोना जैसी महामारी से परेशान लोगों के लिए ऑक्सीजन प्लांट लगाने व ऑक्सीजन सिलेंडर की निर्भरता खत्म करने कार्य किये जा रहे हैं। पागल बाबा का लक्ष्य था कि पीडित मानवता की सेवा की जाये। आज भी सबसे ऊंचा मंदिर पागल बाबा द्वारा स्थापित किया गया है जो कि ३० वर्ष पूर्व बनाया गया था।


पागल बाबा मंदिरः इस मंदिर का निर्माण स्वर्गीय पागल बाबा के अनुयायियों ने कराया। बाबा को मानने वालों का कहना है कि उन्हें पूरे मंदिर में सकारात्मकता की अनुभूति होती है जो इसके संस्थापक की याद दिलाती है। यह दस मंजिली इमारत का अपने आपमें एक अनूठा मंदिर है और वृंदावन की एक सशक्त पहचान भी है। यह मंदिर सबसे निचली मंजिल पर लगने वाली कठपुतलियों की प्रदर्शनी के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां कठपुतली के खेल के जरिये महाभारत और रामायण रूपी दो महाकाव्यों को दर्शकों के सामने लाने का प्रयास करता है।


मंदिर के बाहर फूल, अगरबत्तियों और भगवान की पोशाकों को बेचने वालों की दुकानें हैं। होली और जन्माष्टमी के अवसर पर मंदिर को भक्तों द्वारा भव्यता के साथ सजाया जाता है। सन् 1969 में बाबा श्री को एसी प्रेरणा हुई की आगरा का ताजमहल देखने के लिए देश विदेश से लाखों करोड़ों पर्यटक आगरा आता हैं, मगर श्रीकृष्ण की प्रेममयी लीलास्थली होने के उपरांत भी तथा आगरा के निकट होते हुए भी वृंदावन आने की प्रेरणा लोगों को नहीं हो पाती है। देश विदेश के पर्यटकों का ध्यान वृंदावन की ओर आकर्षित करने के लिए एक भव्य मंदिर बनाने की परियोजना बनाई गई। वृंदावन मथुरा मार्ग पर एक विशाल भू-खंड लेकर अल्पावधि में ही, जहाँ केवल सूखा खेत था, वहाँ एक विशाल संगमरमर के नौ मंज़िला मंदिर लीलाधाम की स्थापना की गई।


चारों तरफ शस्य श्यामला हरित भूमिपर श्वेत प्रस्तर जडित अतुलनीय मंदिर भारतवर्ष में अपने ढंग का प्रथम मंदिर है। इसकी चौड़ाई करीब 150 फीट (क्षेत्रफल 1800 वर्गफुट) तथा उँचाई 221 फीट है। इसके हर मंज़िल पर विभिन्न देव मंदिर है। इस आश्रम का नाम लीलाधाम रखा गया। यह अनूठा मंदिर भारतवासियों को तो आकर्षित करता ही है, विदेशी पर्यटकों को भी मंत्रमुग्ध करता है और भक्ति प्रधान देश की महत्ता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिद्ध भी करता है। मंदिर में सुबह आठ से रात आठ बजे तक इलेक्ट्रॉनिक पद्धति से कृष्णलीला, रामलीला और पागल बाबा लीला व अखण्ड भजन कीर्तन अनवरत चलता रहता है। (सुनील शर्मा )