शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

सनातन, वैष्णव धर्म को विश्व के कौने-कौने में पहुंचाने का श्रेय श्रील ए. सी. भक्ति वेदान्त स्वामी प्रभुपाद जी को जाता है।

सनातन धर्म और वैष्णव धर्म के प्रचार प्रसार को विश्व के कौने-कौने में पहुंचाने का श्रेय एक मात्र श्रील ए. सी. भक्ति वेदान्त स्वामी प्रभुपाद जी को जाता है। आज 01 सितम्बर 1896 ई0 प्रतिपदा के दिन आपका जन्म पश्चिम बंगाल प्रान्त के “कलकत्ता“ शहर में हुआ था। आपने 81 वर्ष आयु तक सन् 1977 ई. को मिती मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी को वृन्दावन में रमणरेती की रज प्राप्ति की। आपके गुरू श्रील विमलानन्द (भक्ति सिद्धान्त सरस्वती) ने उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में दीक्षा दी थी। तत्पश्चात् 11 वर्ष अखण्ड गौड़ीय ग्रन्थों को पढ़ने के बाद ही दीक्षा ले ली थी। आपका पहले का नाम ’अभय चरन डे’ था। श्री गुरु महाराज ने आपका नाम अभय का ’ए’ तथा ’चरन’ का सी., अँग्रेजी के पहले अक्षर को मिलाकर अपनी तरफ से सन्यास का नाम ’भक्ति वेदान्त’ को जोड़कर “ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी“ बना दिया। श्रील से तात्पर्य जो धन धान्य लक्ष्मी से परिपूर्ण हो। तात्पर्य-श्रीः लास्यति इति श्रीलः।
संगम-प्रयागराज तीर्थ में दीक्षा लेते ही धर्म प्रचार कार्य में जुट गए। गुरु जी ने वैदिक ज्ञान के प्रचार हेतु अंग्रेजी भाषा में करने को कहा क्योंकि अंग्रेजी भाषा में आप कुशल दक्षता प्राप्त थे। अतः गौड़ीय मठों को सहयोग देते हुए सन् 1933 ई. में गीता पर एक टीका लिखी। कितने वर्षों तक आप भारत में ही धर्म प्रचार करते रहे। सन् 1944 ई. में आपने बिना किसी के सहयोग लिए अंग्रेजी में एक ’पाक्षिक पत्रिका’ निकाली जो कभी भी बन्द न होकर बल्कि अब तक तीस भाषाओं में छप रही है। सन् 1959 ई. में आपने ‘वानप्रस्थ’ सन्यास लेकर कितने ही वर्षों तक वृन्दावन ’राधादामोदर’ मन्दिर में रहकर यहां से धर्मग्रन्थों का अनुवाद किया, विषेष कर श्रीमद्भगवत गीता का अनुवाद अंग्रेजी में करके विष्व में जन-जन तक पहुंचाने का पुनीत कार्य किया। सन् 1965 ई. में श्री गुरुदेव द्वारा चलाया हुआ धर्मानुष्ठान अभियान पूरा करने के लिए सितम्बर मास में ‘‘संयुक्तराज्य अमेरिका’ गए। वहाँ पहुँचकर प्रथम् “न्यूयार्क“ नगर से अपना अभियान प्रारम्भ किया। फिर सन् 1966 ई. में ‘‘आंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ“ की स्थापना की। आपके प्रचार, प्रसार, विस्तार विषय में जितना कुछ कहा जाय वह कम है। जीवन का एक-एक दिन अमूल्य घटनाओं से भरा पड़ा है।
आपने अपनी वृद्धावस्था की भी परवाह न करते हुए ग्यारह वर्षों के अन्तराल में विश्व के छहों महाद्वीपों की चौदह बार परिक्रमा की। आप की उर्वरा शक्ति सम्पन्न लेखनी अविरत चलती ही रहती थी। सौ से अधिक ग्रन्थों को पच्चास भाषाओं में छापकर करोड़ से अधिक संख्या में वितरित किया। एक बार “हरे कृष्ण“ आन्दोलन के उपर शुरूआती समय में ’रूस जैसे कम्युनिज्म देश में प्रतिबंध लगा दिया गया था। फिर भी न मानने से ’हरेकृष्ण’ भक्तों को पागलों के साथ जेल में ठूंस दिया गया। जेल में भी जमकर कीर्तन होता रहा। नाम के प्रताप से कितने ही पागल तो ठीक भी हो गए। ऐसा चमत्कार देखकर वहाँ की सरकार को हार मान कर ढाई वर्षों बाद इन्हें छोड़ना पड़ा था। रूसी भाषा में लाखों गीता भागवत छपवा कर वितरित की गई, जो परम्परा अभी भी चली आ रही है। परिणामतः कितने ही रूसी भक्त वर्तमान में पश्चिम बंगाल के मायापुर एवं मथुरा के वृन्दावन धाम की यात्रा पर निरन्तर आते हैं।
गुरू षिष्य परम्परा का निर्वहन करते हुए प्रभु प्रेरित दैवी शक्ति सम्पन्न गुरु, कृपा से धराधाम पर गौड़ीयमठ के माध्यम से प्रचारकों के रूप में आए। केवल विदेशों में “अन्तर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ“ प्रचार केन्द्रों की संख्या आज लगभग 200 से अधिक मंदिरों के साथ शाखाएं हो गई हैं। जहाँ मन्दिरों में ’राधाकृष्ण’ चैतन्य-नित्यानन्द श्रीविग्रह के साथ विशुद्ध वैष्णव पद्धति से सेवा पूजा होती है। भक्त सदाचार का समुचित पालन करते हैं। श्री गौराङ्ग, नित्यानन्द, राधाकृष्ण नाम संकीर्तन के माध्यम से मात्र 11 वर्षों में भारतीय धर्म संस्कृति का प्रचार प्रसार विश्व क्षितिज पर जिस प्रकार उनकी कृपा से छा गया है इस प्रकार की सफलता विश्व के इतिहास में एक मात्र बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार काल में सम्राट ’अशोक’ ही एक बार कर पाया था । ’हरे कृष्ण’ आन्दोलन सफलता पूर्वक समस्त विश्व में छा गया है। नास्तिकों के हृदय रूपी मरुभूमि में भी आस्तिकता की निष्ठा जाग गई है। यह पूरा श्रेय श्रील ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद जी को ही जाता है जिन्होंने सनातन धर्म वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार पूरे विष्व में किया है। श्रीचैतन्य देव ने जो एक बार कहा था उन्हीं के शब्दों में “पृथ्वी पर्यन्त यत आछे देश ग्राम, सर्वत्र प्रचार होइवेक मोर नाम“।। (चै० चरि० 2/4/26)

सोमवार, 28 अगस्त 2023

लंकाधिपति रावण शिवजी का परम भक्त था।

लंकाधिपति रावण शिवजी का परम भक्त था। रावण की शिवभक्ति के किस्से हम सुनते ही रहते हैं, उसकी शिवभक्ति के अनेक रोचक किस्से प्रचिलित हैं। इसी कथानक को प्रमाणित करती राजकीय संग्रहालय, मथुरा की मूर्ति रावणानुग्रह
कहा जाता है कि एक बार रावण जब अपने पुष्पक विमान से यात्रा कर रहा था तो रास्ते में एक वन क्षेत्र से गुजर रहा था। उस क्षेत्र के पहाड़ पर शिवजी ध्यानमग्न बैठे हुए थे। शिव के गण नंदी ने रावण को रोकते हुए कहा कि इधर से गुजरना सभी के लिए निषिद्ध कर दिया गया है, क्योंकि भगवान तप में मग्न हैं। रावण को यह सुनकर क्रोध उत्पन्न हो गया। उसने अपना विमान नीचे उतारकर नंदी और वहां उपस्थित गणों का अपमान किया और फिर जिस पर्वत पर शिव जी विराजमान थे, उसे उठाने लगा, यह देख शिव जी ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया जिस कारण रावण का हाथ उस पर्वत के नीचे दब गया। जिसके कारण रावण को असहनीय कष्ट होने लगा जिससे वह रोने लगा और शिव से प्रार्थना करने लगा कि मुझे इस कष्ट से मुक्त कर दें। इस घटना के बाद रावण शिव का परम भक्त बन गया। यह भी कहा जाता है कि एक बार नारदजी के उकसावे पर रावण अपने प्रभु महादेव को कैलाश पर्वत सहित उठाकर लंका में लाने की सोचने लगा। वह अपने विमान से कैलाश पर्वत गया और वहां जाकर वह पर्वत को उठाने लगा। पर्वत हिलने लगा तो माता पार्वती ने पूछा कि यह पर्वत क्यों हिल रहा है प्रभु। तब शिवजी ने कहा कि मेरा भक्त रावण मुझे पर्वत सहित लंका ले जाना चाहता है। तब भगवान शंकर ने अपना भार बड़ा करके अपने अंगूठे से तनिक-सा दबाया तो कैलाश पर्वत फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया। इससे रावण का हाथ दब गया और वह क्षमा मांगते हुए कहने लगा- ’शंकर शंकर’- अर्थात क्षमा करिए, क्षमा करिए और स्तुति करने लग गया। यह क्षमा याचना और स्तुति ही कालांतर में ’शिव तांडव स्तोत्र’ की रचना हुई। इसी घटना को दर्षाती एक दुर्लभ मूर्ति राजकीय संग्रहालय मथुरा की वीथिका में पर्दषित है। यह प्राप्त मूर्ति से इस कथानक का पता चलता है कि यह मूर्ति मध्यकाल की मूर्ति है। जिसे रावणानुग्रह - के रूप में प्रर्दषित किया गया है। Ravana Lifting Uma Maheshvara With Kailash Mound gupta Period यह मूर्ति गुप्तकाल की है और यह मूर्ति (34.2577) में रावण द्वारा कैलाष पर्वत उठाने का प्रयास किया जा रहा है, जिस पर पार्वती और शिव एक साथ बैठे हुए हैं, उस प्रसंग को यहां दर्शाया गया है। कहानी के अनुसार जब रावण कैलाष से गुजर रहा था, तो उनके रथ को शिव के एक सेवक नंदिकेश्वर ने रोका था। पूछताछ करने पर रावण को बताया गया कि यह क्षेत्र निषिद्ध है, क्योंकि शिव और पार्वती एकांतवास में थे। लंकाधिपति को क्रोध आ गया। क्रोधित राक्षस राजा ने उस पर्वत को उठाना शुरू कर दिया। डावांडोल होते कैलाष पर्वत के कारण शिव का ध्यान भंग हुआ और कैलाष पर अशांति का कारण जानकर शिव ने पर्वत को अपने पैर से दबा दिया। उसका भार रावण को असहनीय हो गया और शक्तिशाली राक्षस रोने लगा। उसके रोने के कारण उसे रावण कहा जाने लगा। कई बार प्रार्थनाओं के बाद जब शिव प्रसन्न हुए तो रावण को भारी बोझ से राहत मिली। वर्तमान मूर्तिकला में रावण की शक्ति को उसके मजबूत शरीर, भारी भरकम सिर और भयानक रूप के माध्यम से दिखाया गया है। साथ ही उभरे हुए चेहरे से उनकी चिंता साफ झलक रही है। पार्वती अपने पति से लिपटी हुई हैं जो ऊर्ध्वलिंग रूप (अंग सीधा) में दिखाई दे रहा हैं और अपने दाहिने पैर से रावण को दबा भी रखा हैं।