गुरुवार, 22 अगस्त 2019

मथुरा-वृन्दावन की सडकों पर अब नही दौडती घोडागाडी


घोडों के टाप की टक टक टक टक की आवाज अब मथुरा-वृन्दावन की सडकों पर सुनाई नही देती है अब यह वीते जमाने की वात बन कर रह गई है बच्चे भी कितावों में ही टमटम घोडा गाडी देखेंगे। एक जमाना था जब मथुरा शहर के चौक बाजार के गुडहाई बाजार से घोडा गाडी वृन्दावन और स्टेशन के लिये जाया करते थे। व्यस्त सडकों के बीच से होकर यह घोडा गाडी चला करती थी। बाहर से आने वाले तीर्थ यात्री, पर्यटक, इन घोडा गाडी में बेठ कर सेर करने निकल जाते थे वृन्दावन के रास्ते में ठन्डी ठन्डी हबा का आनन्द भी और वृन्दावन-मथुरा के बीच हरियाली का आनन्द भी लेते थे। यही व्यवस्था वृन्दावन के तांगा अडडा पत्थर पुरा में और रंगजी मंदिर के सामने से तांगे चला करते थे। यह तांगे की सबारी कर लोग मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, महावन दाउजी, गोवर्धन, बरसाना, नन्दगांव तक जाया करते थे। एक समय था जब मथुरा के अंग्रेज कलेक्टर भी घोडा गाडी में ही चला करते थे। कई जगह इसका वर्णन भी मिलता है। मुगलकाल में भी घोडा गाडी का चलन था शासक घोडा गाडी में ही शहर का भ्रमण करते थे। घोडा गाडी का चलन मथुरा में बग्घी के रूप में भी हुआ पहले शहर के रहीशों के यहां घोडा गाडी यानी बग्घी के रूप में थी। जिसमें बेठकर नगर के गण्मान्य सेठ लोग अपने मील कारखाने या किसी आयोजन में जाया आया करते थे। कुछ घराने ऐसे भी थे जिनके बच्चे भी स्कूल बग्घी में बैठ कर जाते थे उस समय की शान शौकत का हिस्सा थी बग्घी लोगों की हैसियत भी घोडा बग्घी से ही होती थी। समय के साथ मोटर कार ने यह जगह ले ली।



 फिर यह बग्घी तो शादी बिवाह में चलने लगी दुल्हा को लाने के काम में आने लगी अब बग्घी भी दर्शनीय हो गयी है। मगर घोडा गाडी आम आदमी के आवागमन का साधन बन गयी पहले शान से घोडा-गाडी में बैठा करते थे। लेकिन साबन भादों के महिने में मथुरा-वृन्दावन में गांव से भी घोडा गाडियों के आ जाने के कारण यहां चारों तरुफ घोडा गाडी दिखाई देती थी। शहर में घोडा गाडी चलाने वालों को बडा ही हेय दृष्टि से देखा जाता था भींड वाले इलाके में जाते समय गालियां खानी पडती थी कभी कभी तो टकराने की स्थिति में पिटाई भी कर देते थे। महंगाई की मार ने अब घोडा गाडी को भी आम आदमी के व्यवहार से दूर कर दिया है यदा कदा कोई घोडा गाडी दिखाई दे जाती है लेकिन अब इनकी सबारी कोई करता नहीं है। लेकिन मथुरा-वृन्दावन में घोडा गाडी की कभी यात्रा कर चुके यात्री आज भी मथुरा वृन्दावन आकर घोडा गाडी को ढूंडते हैं और मिलने पर उसकी सबारी भी मजे से अपने परिवार के साथ करते हैं।
घोडा गाडी रखने वालों का कहना हैं कि अब हर चीज के इतने दाम हो गये हैं कि इन्हें रखना और इनका रख रखाव काफी महंगा हो गया है उपर से पशु क्रूरता अधिनियम का डर, घोडे को खिलाना उसकी देख रेख करना जगह का अभाव हारी बीमारी अलग से है। इस लिये इस धन्धे को छोड कर किसी और काम में लग गये हैं। अब केबल शगुन के लिये वारात चढाने के लिये केबल घोडा ही रखते हैं। दुल्हे की वारात की चढाई के लिये काम में आ रहे हैं घोडे गाडियों का अब पता नही। एक समय ऐसा भी था जब आगरा से मथुरा नरी सेमरी तक घोडा गाडियों की दौड. हुआ करती थी। जिसमें बडी रकम का सटटा तक होता था। प्रशासन ने घोडा गाडी दौड. को बन्द करा दिया। पुलिस भी मेले आदि में घोडे से निगरानी रखती थी अब यह व्यवस्था भी धीरे धीरे समाप्ति के कगार पर है। एतिहासिकता को बनाये रखने के लिये घोडा गाडी को हेरीटेज प्लान में शामिल किया जाना चाहिये।
सुनील शर्मा, मथुरा

जन्माष्टमीः ठाकुर जी की पोषाक मुस्लिम सिलते हैं, बधाई गीत भी मुसलमान गाते हैं



जन्माष्टमीः ठाकुर जी की पोषाक मुस्लिम सिलते हैं, बधाई गीत भी मुसलमान गाते हैं
मथुरा। कान्हा की पोशाकों को तैयार करने मे दिन रात मुस्लिम कारीगर लगे हुए हैं, ये पीढ़ी दर पीढ़ी इनका कारोबार चला आ रहा है ,इस तरह मुस्लिम समाज के ये लोग सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश समाज में दे रहे हैं। मथुरा में भगवान श्री कृष्ण के जन्म उत्सव को लेकर सभी तैयारियों में लगे हुए हैं, वहीं प्रशासन भी पूरी तरह भगवान श्रीकृष्ण के जन्म उत्सव को अबकी बार दिव्य और भव्य बनाने के लिए कमर कसे हुए हैं। गोकुल में सुबह जब कान्हा के जन्म की खुशियां मनाई जायेंगी तो बधाई गीत भी मुसलमान गाते हैं और शहनाई भी मुसलमान ही बजाते हैं।
मुस्लिम कारीगर भगवान श्रीकृष्ण और राधाजी की सुंदर और आकर्षक पोशाक तैयार करने में लगे हैं। कन्हैया के जन्म उत्सव की तैयारियों में मुस्लिम लोग सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश दे रहे हैं। अल्लाह के बंदे श्रद्धा के साथ कृष्ण के जन्मोत्सव के दिन ठाकुरजी के श्रंगार में पहनाई जाने वाली पोशाकों के निर्माण में जुटे हुए हैं। , इन पोशाक की भारत के विभिन्न शहरों में ही नहीं विदेशों में भी मांग है। मुस्लिम समाज के यह लोग भगवान श्रीकृष्ण की पोशाक बनाने का काम अब से नहीं कर रहे। इनके पूर्वज भी इसी तरह भगवान श्रीकृष्ण के आभूषण बनाकर समाज मे सौहार्द का संदेश देते रहे हैं।
मुस्लिम कारीगरों ने बताया कि 40 साल हो गये काम करते, विदेशों में भी जाती हैं हमारी पौषाक, फक्र महसूस करता हूं, हमारी किस्मत है कि ठाकुर जी ने हमें अपने कपडों को सिलने पर लगा रखा है। यह संदेश पूरा भारत में जाना चाहिए, भाईचारा सीखना है तो हमारे वृंदावन से सीखें जो हमें लडाते हैं वह गलत आदमी है।
बांकेबिहारी जी मंदिर भी जाते हैं वृंदावन में, पांच फुट के ठाकुर जी होंगे तो पौषाक सिलने में पूरा एक महीना लगता है। एक पोषाक में करीब पांच आदमी लगते हैं। हमें अच्छा लगता है, दिल को सुकून मिलता है, ठाकुर जी की पोषाक बनाने में, भरत और भारत के बाहर के मंदिरों में हमारी पोषाक पहनाई जाती है।
100 से अधिक कारखाने हैं पौषाक तैयार करने के
मथुरा में पोशाक और मुकुट श्रृंगार का व्यवसाय फैला हुआ है। 100 से अधिक कारखानों में अधिकांश कारीगर मुस्लिम समाज के हैं, जो दिन-रात भगवान श्रीकृष्ण के पोशाक और श्रृंगार का सामान तैयार करने में जुटे हुए हैं, वह इन लोगों की रोजी-रोटी का भी एक साधन है।
कान्हा के जन्मोत्सव का इंतजार इन्हें बेसब्री से रहता है।
विदेशों में भी भारी मांग है।
जन्माष्टमी से महीनों पहले से ही ये भगवान श्रीकृष्ण की पोशाकों को तैयार करने में लग जाते हैं। भगवान के मुकुट, गले का हार, पायजेब, बगल बंदी, चूड़ियां, कान के कुंडल जैसे आभूषणों को तैयार किया जाता है। तैयार होने के बाद इन्हें विदेशों में भी भेजा जाता है। इन लोगों पर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड कनाडा, नेपाल और अफ्रीका से भी ऑर्डर आते हैं।