बुधवार, 29 जनवरी 2020

ब्रजभूमि में मसजिदों के लिए हिन्दुओं का योगदान

हिन्दुओं की उदारता या घोर उदासीनता
मथुरा की एक मसजिद पहचान भी और विवाद से परे शान भी
सुनील शर्मा, मथुरा
मथुरा, ।  ब्रज क्षेत्र में यों तो अब सैकड़ों मसजिदें और कई गिरजाघर होंगे किन्तु एतिहासिकता की दृष्टि से इन मसजिदों का भी एक इतिहास है जो हिन्दुओं की उदारता या यों कहें कि घोर उदासीनता को भी प्रकट करता है। मथुरा में एतिहासिक दृष्टि से दो ही प्राचीन मसजिदें हैं। जो कि प्राचीन भी हैं तथा विशाल भी हैं। एक तो केशवदेव जी के मंदिर को तोड़कर औरंगजेब द्वारा बनवायी गयी और दूसरी मसजिद चौक बाजार में अब्दुलनवी खाँ ने बनवायी।

यह मसजिद सन् 1662 ईस्वीं में बनी बतलायी जाती है। इस मसजिद के वारे में बताया जाता है कि जहां यह मसजिद है वहाँ पहले बस्ती हुआ करती थी, कुछ कसाइयों की झौपड़िया भी यहाँ थीं। अब्दुलनवी खाँ ने जो कि एक नवमुस्लिम फकीर थे, उन्होंने मुसलमानों को समझा दिया कि देखो, मथुरा में तुम्हारी एक मसजिद बन जायेगी और हिन्दुओं को यह कह कर समझाकर राजी कर लिया कि देखो, यह मसजिद बनने से यहाँ से कसाई हट जायँगे और यह रहेगी भी मथुरा के बाहर। इस पर हिन्दु और वहां रह रहे मुसलमान मान गये और इस प्रकार इस मसजिद को नवी खाँ ने बनवा दिया और फिर इसमें चार ब्राह्मणों को घण्टा बजाने के लिये नियुक्त कर दिया। इन घण्टा बजाने वाले ब्राह्मणों में से एक ब्राह्मण का वंश अब तक मथुरा में विद्यमान रहा है और वह घण्टापाँडे़ के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। मसजिद के पास दुकानें बनवायी जिसमें आठ दुकानों का किराया उन चार ब्राह्मणों को आजीविका चलाने की व्यवस्था नवी खाँ ने कर दी। कुछ ब्राह्मण वहाँ दुर्गापाठ, विष्णुसहस्त्रनाम तथा गोपालसहस्त्रनाम का पाठ किया करते थे, उन्हें भी एक दुकान सौंप दी गयी। इस प्रकार से मसजिद बनकर भी इस पर अधिकार हिन्दुओं का ही रहा। एक मुल्ला भी वहाँ रहता था, पर उसे भी हिन्दू ही नियुक्त किया करते थे। पर इधर कुछ समय पश्चात हिन्दुओं ने मूर्खतावश अपना अधिकार इस पर से छोड़ दिया। अपनी दुकानें मुसलमानों को बेच दीं, और तब से मसजिद सच्ची मसजिद का रूप ले सकी।
कुछ समय के पश्चात मथुरा में एक बार पेशवा की सवारी आयी थी। उन्हें यहाँ मसजिद देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया उन्होंने तुरन्त इसे तोड़ देने का हुक्म दे दिया, पर हिन्दुओं ने ही पेशव से खुशामद करके इसे टूटने से बचा लिया था, जो आज भी मथुरा के अब के पुराने शहर के बीचों बीच में स्थित है।

इस मसजिद के पास से होकर एक रास्ता स्टेशन की ओर जाता है एक रास्ता यमुना किनारे तथा प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर की ओर जाता है बाकी दो रास्तों में से एक शाही ईदगाह व श्रीकृष्ण जन्मस्थान की तरफ जाता है तो दूसरा रास्ता वृन्दावन के लिए जाता है। आज भी इस मसजिद के सामने एक सब्जी बाजार लगता है तथा मसजिद के नीचे दो तरफ सर्राफा बाजार व कपड़े आदि की दुकाने हैं। बडे़ आश्चर्य की बात है कि मसजिद के नीचे की तमाम सभी दुकाने हिन्दुओं की हैं और सब्जी की दुकाने मसजिद के सामने मुसलमानों की हैं दोनों समुदायों का मेलजोल भाईचारा देखने लायक है यह एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं तथा हर त्योहार में ईद हो या होली आपस में गले मिल कर बधाई दे कर मनाते हैं और आपस में मिलजुल कर रहते हैं। यह मसजिद मथुरा की एक पहचान भी है और विवाद से परे एक शान भी है।

सुनील शर्मा, मथुरा