शनिवार, 16 अगस्त 2025

सर्घर्षों के बीच कृष्ण के जीवन की कथा

भगवान श्रीकृष्ण का जीवन हमेशा रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाओं से जुड़ा रहा है। उनके जीवन की प्रत्येक घटना हमें बताती है कि मानवीय जीवन में कितने उतार-चढ़ाव आते है।

कृष्ण को अपने जन्म के कुछ समय बाद ही कंस द्वारा भेजी गई राक्षसी पूतना का वध करना पड़ा। उसके बाद शकटासुर, तृणावर्त आदि कई राक्षसों का वध उन्होंने किया। कुछ समय बाद श्रीकृष्ण को गोकुल छोड़कर नंदगांव आकर वहीं पर बसना पड़ा जहां उन्होंने कई लीलाएं की जिनमें गोचारण लीला, गोवर्धन लीला व रास लीला आदि मुख्य हैं।

श्री कृष्ण के जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब उनको जरासंध से तंग आकर मथुरा को ही छोड़ना पड़ा और द्वारिका में एक नया नगर बसा कर वहीं रहना पड़ा। अनेक द्वारों का शहर होने के कारण इस नगर का नाम द्वारिका पड़ा। 


श्री कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का पूरा बचपन श्रीकृष्ण के साहस और वीरता की कहानियां सुनते हुए बीता था। ऐसा कहा जाता है श्रीकृष्ण की रानियों की संख्या सोलह हजार से अधिक थीं। इनमें से ज्यादातर उनके द्वारा किसी न किसी कष्ट से मुक्त कराई गईं रानियां या राजकुमारियां थीं।

अक्रूर जी के आग्रह पर कृष्ण व बलराम मथुरा आए थे, जहां कंस ने कृष्ण के प्राणांत के लिए योजनाएं बना रखी थी। श्रीकृष्ण ने इसी दौरान अपने मामा कंस का वध किया और मथुरा वासियों को उसके आतंक से मुक्त कराया। तत्पश्चात, श्रीकृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया और जेल में बंद अपने माता-पिता को रिहा कराया। कंस वध के बाद उनके पिता वसुदेव ने दोनों भाइयों कृष्ण और बलराम को शिक्षा-दीक्षा के लिए उज्जैन स्थित सांदीपनि मुनि के आश्रम में भेज दिया। आश्रम में ही कृष्ण भगवान की मुलाकात सुदामा से हुई। कृष्ण और सुदामा की दोस्ती के किस्से काफी सुने जाते हैं।

इससे पहले, महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष में थे। इस युद्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने। 18 दिन तक चले युद्ध में जीत अंततः पांडवों की हुई।

भगवान कृष्ण महाभारत युद्ध में सारथी की भूमिका में थे। युद्ध के दौरान कृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद भगवद् गीता नामक एक ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया गया। महाभारत युद्ध के बाद जब हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया कि जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है, ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा। 

कहा जाता है कि एक बार श्री कृष्ण के बेटे साम्ब ने चंचलता के प्रभाव में ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया। ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए और उन्होंने यदु वंश को नष्ट करने के लिए सांब को शाप दिया। 

द्वारिका में भी लोग शक्तिशाली होने के साथ-साथ पाप और अपराध भी व्याप्त हो गए थे। अपनी प्रसन्न द्वारिका में ऐसा वातावरण देखकर श्रीकृष्ण बहुत दुखी हुए। उन्होंने अपनी प्रजा को प्रभास नदी के तट पर जाने और अपने पापों से छुटकारा पाने की सलाह दी। उसके बाद सभी लोग प्रभास नदी के तट पर चले गए लेकिन ऋषि दुर्वासा के शाप के कारण सभी लोग वहां नशे में धुत हो गए और आपस में बहस करने लगे। विवाद शुरू हुआ उनके विवाद ने एक गृहयुद्ध का रूप ले लिया, आपसी युद्ध के कारण पूरा यदुवंश नष्ट हो गया।


कहा जाता है कि चार प्रमुख व्यक्तियों ने इसमें भाग नहीं लिया, जिससे वे बच गए। ये चारों कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और वभ्रु थे। बलराम दुःखी होकर समुद्र की ओर चले गए और वहां से फिर उनका पता नहीं चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारिका से दूर जंगल की ओर चले गए और दारुक को अर्जुन के पास भेजा और उसे निर्देश दिया गया कि वह यहां से स्त्री बच्चों को हस्तिनापुर ले जाए। उस समय कुछ स्त्रियों ने जलकर प्राण दे दिए। अर्जुन आए और शेष स्त्री- बच्चों को अपने साथ ले गए।

कहा जाता है कि मार्ग में पश्चिम के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुकाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया। शेष को अर्जुन ने शाल्व देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में पहले ही चले गए थे। ऐसे ही एक दिन ’जरा’ नामक एक बहेलिये ने हिरण के भ्रम में तीर मारा। वह बाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया और नारायण के रूप में बैकुंट धाम में विराजमान हो गए।

देह त्यागने के साथ ही भगवान कृष्ण द्वारा निर्मित द्वारका नगरी भी समुद्र में विलीन हो गई और यादव कुल नष्ट हो गया। कृष्ण की मृत्यु के बाद अर्जुन ने उनका अंतिम संस्कार किया। शरीर छोड़ने समय भगवान कृष्ण 125 वर्ष के थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर युग का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ। 

कृष्ण, कन्हैया, वासुदेव, मुरारी और लीलाधर के नाम से पुकारे जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण का 5252 वाँ जन्मोत्सव पूरे देशभर में हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। जन्माष्टमी पर मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण के सभी मंदिर रात भर खुले रहते हैं। इस दौरान मंदिरों में कई आयोजन किए जाते है। भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है। शास्त्रों अनुसार भगवान श्रीकृष्ण को  16 कलाओं में निपुण माना गया है। कृष्ण एक निस्वार्थ कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, एक बुद्धिमान व्यक्ति और दिव्य संसाधनों से संपन्न एक महान व्यक्ति थे ।


सोमवार, 11 अगस्त 2025

वृन्दावन बाँके बिहारी जी मंदिर के निकट प्राचीन मंदिरों के सेवायत भी हैं परेशान

वृन्दावन के जंगलकट्टी क्षेत्र में यमुना किनारे से करीब दो सौ मीटर अन्दर राधाबल्लभ मंदिर मार्ग पर एक और प्राचीन मंदिर है, जिसे श्री राधा गोपाल मंदिर के नाम से जाना जाता है, यह मंदिर भी गुजराती धर्मशाला के सामने गली में बांयीं तरफ पड़ता है, यह भी राधा मोहन घेरा में एक अति प्राचीन मंदिर है, मंदिर के अन्दर की बनावट को देख कर लगता है कि यह एक प्राचीन मंदिर है।


जैसा कि इस स्थान के नाम से ही जाना जा सकता है कि जंगलकट्टी क्षेत्र जो कभी घने जंगलों से घिरा रहा रहा होगा और इस स्थान के जंगलों की कटाई उस समय में की गई होगी। इस लिये इस स्थान का नाम 1930 में नगर पालिका परिषद् के गठन के वाद से यह स्थान जंगलकट्टी के नाम से प्रसिद्ध हुआ और राधामोहन घेरा का नाम आधिकारिक रिकॉर्ड से गायब हो गया। इस मंदिर में स्थित बंगला भाषा में लिखा एक षिला लेख से ज्ञात होता है कि यह पश्चिम बंगाल के जिला बर्धमान के किसी दत्त परिवार के लोगों ने इस मंदिर को बनवाया होगा और यहां सेवायतों को सेवापूजा करने के लिए सेवायतों को ही दे दिया। षिलालेख के अनुसार सन् 1299 साल लिखा हुआ है।


1870 के दशक में ब्रिटिश शासन में मथुरा के कलेक्टर रहे एफ. एस. ग्राउस ने भी अपनी पुस्तक ‘‘मथुरा-ए-डिस्ट्रिक मेमॉयर’’ में ठाकुर श्री राधागोपाल मंदिर का उल्लेख नहीं किया है। उन्होंने इन बस्तियों के बीच में स्थित राधामोहन घेरे का उल्लेख भी नहीं किया है।

श्री राधागोपाल मंदिर को भी आज न के बरावर लोग जानते हैं, इस मंदिर में पष्चिम बंगाल के बर्धमान जिला से अधिकांष भक्त आज भी वृन्दावन में आते हैं। मंदिर में चारों तरफ की दीवारों पर बंगाल के भक्तों के नाम उनके पते वाले पत्थर लगे हुए हैं यह भक्त बंगाल से आकर सेवायतों को सेवा पूजा के लिए दान देते हैं और अपने नाम से एक पत्थर अपने पूर्वर्जों के साथ-साथ अपना भी लिखवा कर लगवा देते हैं, ऐसी मान्यता है कि वृन्दावन या ब्रज में आने वाले श्रद्धालु यहां मंदिर में आयेंगे और उनके चरण इन पत्थरों पर पडेंगे जिससे उनका उद्धार हो जायेगा। इसी भावना को लेकर यह पत्थर लगाये जाते रहे हैं। मंदिर में उपर नीचे दीवारों पर भी नाम लिखे पत्थर ही लगे हुए हैं। मंदिर में लगे सभी पत्थर बंगला भाषा में ही बनाये गये हैं।     


      

आज जब बॉंके बिहारी जी मंदिर के लिए कॉरिडोर की व्यवस्था सरकार द्वारा प्रस्तावित है, जिसको लेकर वृन्दावन में कॉरिडोर को लेकर समर्थन और विरोध में एक गतिरोध बना हुआ है। पॉंच एकड़ भूमि पर कॉरिडोर का निर्माण किया जाना है, जिसको लेकर आसपास के क्षेत्र की नाप तोल किये जाने पर मंदिर के सेवायत अच्छे खासे डरे हुए हैं। क्या होगा, क्या नहीं होगा यही चिन्ता इन्हें घेरे हुए है। जरजर दशा में पहुंच चुके इस मंदिर के पीछे का हिस्सा पूरी तरह से खण्डहर में बदल चुका है। पीढ़ियों के बदल जाने के कारण अब बंगाल से भी श्रद्धालुओं का आना कम हो गया है जिससे मंदिर व उसमें विराजमान विग्रहों की स्थिति भी दयनीय बनी हुई है।


श्री राधा गोपाल मंदिर के सेवायत विवेक गौतम ने मंदिर के सम्बन्ध में बताया कि यह मंदिर पश्चिम बंगाल के बर्धमान जिले के श्री षिव नाथ दत्त ने सन् 1299 साल में बनबाया था जोकि मंदिर में प्राप्त एक षिलालेख से ज्ञात होता है, इस मंदिर में इनके बाबा प्रेम लाल ब्रजवासी और पिता जी गोविन्द लाल गौतम और चाचा उमाकान्त गोतम आज इस मंदिर की देखरेख कर रहे हैं।



श्री राधागोपाल जी मंदिर के सेवायत विवेक गौतम ने बताया कि जब तक यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि क्या होगा और क्या नहीं होगा हम मंदिर का जीर्णाद्धार भी नहीं करा पा रहे हैं हमें डर है कि कहीं हमारा मंदिर भी कॉरिडोर की सीमा में न चला जाये। 

वृन्दावन बॉके बिहारी मंदिर में आने बाले श्रद्धालुओं की भींड़ को देखते हुए उ0प्र0 सरकार ने कॉरिडोर के निर्माण का प्रस्ताव माननीय उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया था, जिसके आधार पर मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंच गया। सुप्रीमकोर्ट के निर्देश पर बाँके बिहारी जी मंदिर में एक समिति का गठन किया गया है जो कि बाँके बिहारी जी मंदिर के आसपास के पुरातत्व की दृष्टि से प्राचीन व अतिप्राचीन मंदिरों को भी संरक्षित करने के लिए पुरातत्व विभाग के अधिकारी को भी समिति में रखा गया है।

प्रदेश सरकार ने इस दिशा में कार्य करना प्रारम्भ भी किया तो कॉरिडोर के विरोध करने वाले लोगों ने कॉरिडोर की सीमा में आ रहे श्री राधा मोहन मंदिर को तथा पास में ही मौजूद एक समाधि को भी बचाने की कबायद शुरू कर दी थी। 

पुरातत्व की दृष्टि से भवन इमारतों और प्राचीन मंदिरों समाधियों को संरक्षित करने की आवष्यकता है ताकि इनका प्राचीन स्वरूप बचा रह सकेगा।