बुधवार, 28 अगस्त 2013

मंदिरों में अलग अलग तरह से मनाई जाती है जन्माष्टमी

श्रीधाम वृंदावन आने का सौभाग्य प्राप्त होने पर भी यदि वृंदावन में बाँकेबिहारी के दर्शन न किये जाये तो तीर्थ करना अधूरा ही रह जाता है। 
बाँकेबिहारी के मंदिर का निर्माण लगभग संवत् 1921 में हुआ इस मंदिर का निर्माण स्वामी हरिदास जी के वंशजों के सामुहिक प्रयासों से हुआ। आरंभ में किसी धनी मानी व्यक्ति का धन इस मंदिर में नहीं लगाया गया। 
श्रीस्वामी हरिदास जी बाल्यकाल से ही संसार से विरक्त थे। वह एक मात्र श्यामाश्याम का ही गुणगान किया करते थे। यमुना के निकट निर्जन स्थान पर युगल छवि में ध्यान मग्न रहा करते थे। उन्होंने 25 वर्षों की अवस्था में विरक्तवेश ले लिया था।
आप ने जहां जिस स्थान पर निधिवन में युगल छवि का ध्यान किया था। वहीं पर श्रीविग्रह भूमि से बाहर निकाले जाने का स्वप्नादेशानुसार श्रीस्वामी जी की आज्ञा पाकर श्री विठल विपुल आदि शिष्यों ने बाँके बिहारी को भूमि से प्राप्त किया था। आज बाँके बिहारी अपनी रूप माधुरी से विश्व के तमाम लोगों को रिझाते हैं। यहां वर्ष में एक ही दिन हरियाली तीज को ठाकुर स्वर्ण हिंडोले में विराजते हैं जिसके दर्शनों को लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। चैत्र मास की एकादशी से श्रावण मास की हरियाली अमावस्या प्रतिदिन ठाकुर जी का फूल बंगला सजाया जाता है। 
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन बाँके बिहारी के मंदिर में कोई विशेष आयोजन तो नहीं होते है लेकिन यहां जन्माष्टमी का अभिषेक रात्री 2ः30 के करीब होता है। प्रातः 5 बजे से मंगला आरती के दर्शन होते हैं। यहां की एक विशेषता और है कि बाँके बिहारी जी की निकुंज सेवा होने के कारण आरती में कोई शंख घण्टा घडि़याल नहीं बजते शान्तभाव में आरती होती है।

गोविन्द देव जी का मंदिर
श्रीगोविंद देव जी का मंदिर वृंदावन में प्रसिद्ध व प्राचीन मंदिर है। उत्तर भारतीय स्थापत्य शैली का लाल पत्थर का बना प्राचीनतम मंदिर है वर्तमान स्वरूप में जो मंदिर दिखाई देता है यह भवन औरंगजेब के अत्याचारों एवं क्रूरता का साक्षी है। इसके ऊपर के हिस्से को तोड़ दिया गया था। आकाशचुम्बी इस मंदिर का निर्माण गौड़ीय गोस्वामी श्री रूप सनातन गोस्वामी के शिष्य जयपुर नरेश श्री मानसिंह ने सवंत् 1647 में कराया था। आताताइयों के आक्रमण करने से पूर्व ही राजा मानसिंह के जयपुर स्थित महल में यहां के श्री विग्रह को स्थानांतरित कर दिया गया था। आज भी जयपुर में गोविंददेव जी राजा के महल में विराजमान है तत्पश्चात संवत 1877 में पुनः बंगाल के भक्त श्री नंदकुमार वसु ने श्री गोविंददेव के नये मंदिर का निर्माण कराया यहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन विधिविधान से पूजा अर्चना अभिषेक का कार्यक्रम होता है। 

श्रीरंगजी मंदिर
श्री वृंदावन का यह भव्य विशाल मंदिर के सामने वाली मुख्य सड़क पर बना हुआ है। दक्षिण भारतीय शैली का अद्भुत मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण सेठ श्री राधाकृष्ण, उनके बड़े भाई सेठ लक्ष्मीचंद तथा छोटे भाई सेठ गोविंद दास जी ने कराया। श्रीरामानुज सम्प्रदाय का अति विशाल मंदिर स्थापत्थ कला की दृष्टि से भारत में एक अलग स्थान रखता है। यह मंदिर आकार में बहुत बड़े भूभाग को संजोये हुए है। इसमें पांच परिक्रमाएं हैं। जो ऊँचे-ऊँचे पत्थरों के परकोटों से विभक्त है। भीतरी परिक्रमा में श्री हनुमान जी, श्री गोपाल जी, श्रीनृसिंह जी के श्री विग्रह हैं। यहां एक पुष्करणी भी है जहां वर्ष में एक बार भाद्र पद मास में गजग्राह लीला का प्रदर्शन होता है। चैथे व प्रधानद्वार बैकुण्ठद्वार और नैवेद्य द्वार से तीन विशाल द्वार बने हुए है। इसी में 60 फुट ऊँचा स्वर्णमय विशाल गरूड़ स्तम्भ (सोने का खम्भा जिसे सोने के खम्भे का मंदिर भी कहा जाता है।) चैत्र मास में विशाल रथ यात्रा भी निकाली जाती है।

श्रीकृष्ण बलराम मंदिर (इस्कॉन मंदिर)
इसका निर्माण श्री एसी भक्तिवेदान्त स्वामी द्वारा स्थापित श्रीकृष्ण भावनात्मक संघ के तत्वावधान में सन् 1975 में हुआ था। प्रभुपाद के अनेक विदेशी कृष्ण भक्तों की देख-रेख में सेवा पूजा आदि समस्त व्यवस्थाएं सम्पन्न होती हैं यह मन्दिर अंग्रेज मन्दिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। तीन सुंदर कक्षों में बायी ओर निताई गौरांग महाप्रभु मध्य में श्रीकृष्ण बलराम के अति मनोहारी छवि विराजमान है तो दायीं ओर श्रीराधाश्यामसुंदर युगल किशोर सुशोभित हैं। सभी श्री विग्रह अद्भुद वस्त्र आभूषण पुष्प मालाओं तथा मणिमय अलंकारों से श्रृंगारित होकर दर्शकों के मन को आकर्षित करते है। यहांँ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन भजन कीर्तन तथा प्रसाद वितरण होता है। रात्रि में अभिषेक का कार्यक्रम होता है, लाखों तीर्थ यात्री मंदिर में आते हैं।

मथुरा में द्वारकाधीश मन्दिर
मथुरा में असकुण्डा बाजार में स्थित यह मन्दिर सांस्कृतिक वैभवकला और सौंदर्य के लिये अनुपम है। इस मन्दिर का निर्माण सन् 1814-15 में ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने कराया था। इनकी मृत्यु के उपरांत इनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचंद ने मंदिर के निर्माण को पूर्ण कराया था। 1930 में इस मंदिर की सेवा पूजा पुष्टिमार्गीय वैष्णव आचार्य गोस्वामी गिरधर लाल जी कांकरौली को भेंट स्वरूप दे दिया था। यहाँ सेवा पूजा अर्चना पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय के अनुसार ही होती है। श्रावण मास में प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु यहां सोने व चाँदी से निर्मित हिंडोले को देखने आते है। यहां जन्माष्टमी के दिन 108 सालिगराम का पंचामृत अभिषेक होता है तथा यहां अष्टभुजा द्वारकानाथ के श्रीविग्रह का भी पंचामृत अभिषेक किया जाता है। 

श्रीकृष्ण जन्मस्थान
यह मथुरा का एक मात्र पवित्र धार्मिक स्थल है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म इसी स्थान पर स्थित कंस के कारागार में हुआ था। वर्तमान समय में इस स्थान पर भव्य मंदिर स्थापित है जिसे देखने वर्ष भर लाखों तीर्थ यात्री श्रद्धालु पर्यटक आते हैं।
देश-विदेश से लाखों यात्री प्रतिवर्ष तो आते ही है लेकिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन यहां जन्माष्टमी पर्व बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ के विशाल मंच पर रासलीला नाटक, कथा प्रवचन आदि उत्सव नित्य प्रति होते रहते हैं।
जन्माष्टमी के दिन रात्रि के 12 बजे भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय श्रीविग्रह का पंचामृत अभिषेक होता है। इसके बाद श्रद्धालु नाचते, गाते, कीर्तन करते हुए भाव विभोर हो जाते हैं। 
इस मंदिर का निर्माण महामना मदन मोहन मालवीय जी की सद्प्रेरणा से जुगल किशोर विड़ला व जय दयाल डालमियो ने कराया था विशाल भागवत भवन का निर्माण भी उन्हीं के द्वारा कराया गया था।

केशवदेव में जन्माष्टमी एक दिन पूर्व मनाई गई
मथुरा। प्राचीन केशव मंदिर में एक दिन पूर्व मनाई गई जन्माष्टमी पंचामृत अभिषेक के पश्चात आकर्षक झांकियों में हुए दर्शन हजारों की संख्या में दर्शनार्थियों ने देर रात को भगवान केशव देव के अभिषेक के दर्शन किए। 
जन्म के दर्शन से पूर्व भजन-कीर्तन चलते रहे। महिला-पुरुष नाचते-गाते रहे। पुराने केशवदेव की प्रतिमा को जगमोहन से बाहर लाया गया। रात्रि ठीक 12 बजे गोस्वामियों ने अभिषेक कराया। दही, मधु, शक्कर, दूध, जल से अभिषेक कराने के बाद भव्य दर्शन हुए। बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित थे। दर्शन के लिए मंदिर के पट खुलते ही सभी दोनों हाथ उठाकर जय कन्हैया लाल की, कह उठे। शंख, घंटा, घडि़याल बज उठे चारों ओर रोशनी की गई थी मंदिर में विद्युत सजावट से जगमगा रहा था। 
---------
श्रीकृष्णा जन्माष्टमी पर समूचा ब्रज जय कन्हैया लाल की के उद्घोषों से गूंजा
चैतरफा रही भण्डारों की धूम
तीर्थ विकास परिषद द्वारा यमुना पैलेस व कृष्णानगर में बेरीवाल कॉम्पलैक्स पर रही तीर्थयात्रियों की भीड़
मथुरा। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पर्व पर सुबह से ही लोग बंदरवार, फूलमाला, केला के पत्ते आदि सामान खरीदते नजर आये। वहीं बाहर से आए श्रद्धालु श्रीकृष्ण जन्मस्थान और द्वारकाधीश मंदिर की ओर बढ़ते नजर आए टोल के टोल राधे-राधे का कीर्तन करते बोल कृष्ण कन्हैया लाल की जयकारा लगा कर मंदिरों की ओर जा रहे थे। 
नगर के चारों तरफ के रास्तों को जिला प्रशासन ने सुरक्षा के लिहाज से वाहनों को बेरीकेटिंग करके बंद करा दिया था। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को मीलों पैदल चलकर मंदिरों तक पहुंचना पड़ा। जगह-जगह भण्डारा पूड़ी, हलवा, खीचड़ी तथा व्रत का प्रसाद वितरण किया जा रहा था। 
श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर मनोहारी विद्युत लाइटों से सजावट किया गया। नगर में हर तरफ सजावट मंदिरों में जन्माष्टमी की धूम दिखाई दे रही थी। विदेशी पर्यटक भी बड़ी संख्या में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर जन्माष्टमी देखने पहुंचे। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व को लेकर आज समूचे बृजमण्डल में आपार श्रद्धा और भक्ति का वातावरण बना हुआ है। शहर के बाजार और घर-घर पर लगे वंदनवार और सजाबट देखते ही बनती है। समूचे बृज में कान्हा के जन्मोत्सव की धूम मची हुई है। मंदिर द्वारिकाधीश, श्रीकृष्णजन्मस्थान को जाने वाले सभी मार्ग सुबह से ही श्रद्धालुओं की भारी भीड़ से भरे पड़े थे। सुदूर प्रांतों से कान्हा के जन्मोत्सव में शामिल होने आये भक्तों के स्वागत सत्कार में बृजवासियों ने भी कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। मुख्य बाजारों में स्थान-स्थान पर पूड़ी सब्जी और व्रत से जुड़े आहार के वितरण में समाजसेवी और व्यवसायिक संस्थान अग्रणी भूमिका निभा रहे थे। तीर्थ यात्रियों की सुख सुविधा के लिए स्थान-स्थान पर लगाये गये भण्डारे और ठण्डे पानी के प्याऊ के अलावा चाय का वितरण भी जगह जगह किया जा रहा था। जन्माष्टमी एवं नन्दोत्सव के मौके पर फलाहारी प्रसाद तीर्थयात्रियों एवं भक्तों में वितरित किया गया। शहर के कैन्ट रेलवे स्टेशन के निकट टैम्पू स्टैण्ड, क्वालिटी तिराहे, पुराने बस स्टैण्ड, जवाहर हाट, पुराने डाक खाने के निकट आगरा रोड व्यवसायी समिति द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के छप्पनभोगों के दर्शनों के साथ भण्डारे का आयोजन किया गया। कृष्णा नगर स्थित गोवर्धन चैराहे के निकट समाजसेवी अशोक बेरीवाल द्वारा विशाल भण्डारे का आयोजन किया गया। इसके अलावा अप्सरा सिनेमा के सामने जीएमसी सर्राफा मार्केट गुरूद्वारे के निकट मुकुंद कॉम्पलेक्स, होलीगेट चैराहे, कोतवाली रोड, भरतपुर गेट, दरेसीरोड, डीगगेट, आर्य समाज रोड, छत्ताबाजार, विश्राम बाजार, स्वामी घाट, डोरीबाजार, चैकबाजार, वृंदावन दरबाजा, घीयामण्डी क्षेत्रों में भण्डारों के आयोजन किये गये। भण्डारों के आयोजनों के कारण आज बृजभूमि में अधिकांश खान-पान की दुकाने या तो बंद रही अथवा उन पर सन्नाटा छाया रहा। इस बार  अन्ना हजारे के समर्थकों ने भी अन्ना हजारे के पोस्टर वेनर लगा कर भण्डारे का आयोजन किया और श्रद्धालुओं को प्रसाद का वितरण किया तथा जगह जगह प्याऊ भी लगाई। 

मथुरा के स्कूलों में भी मनाई गई जन्माष्टमी
मथुरा। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की पूर्व वेला में स्थानीय लोग ब्रजवासियों ने लाला कन्हैया का जन्म-गीत, नृत्य, कृष्ण-झांकी और आरती के साथ हर्षोल्लास पूर्वक मनाया। घर घर  में वंदनवार बांधी गई थीं, हल्दी के मंगलसूचक थापे लगाए गये थे और कृष्णजन्म के लोकगीत गूंजते रहे। यहां स्कूल काॅलेजों में भी बाल-कलाकारों ने सामूहिक रूप से गायन किया-मथुरा में जमंन भयौ कन्हैया जू कौ हरे-हरे, कन्हैया जू कौ जनंम भयौ। ‘‘दुस्ट कंस के कारागृह में कटे देवकी फंद, कारे कजरारे मेघों में उदित भयौ एक चंद’’, अमृत रस बरस उठा। जगह जगह श्रीकृष्ण जन्म की कथाओं का वर्णन किया जा रहा था जगह जगह लोग नाच गा रहे थे। विभिन्न लीलाओं को रास के माध्यम से लोगों का मनोरंजन किया जा रहा था। 

घर घर जन्मे कृष्ण कन्हाई!

गीता के नायक, लीला पुरूषोत्तम, योगीराज श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्णा अष्टमी को हुआ था। देश के प्रायः सभी प्रान्तों में श्रीकृष्णजन्माष्टमी का पर्व असीम श्रद्धा,भक्ति और उल्लास के साथ मनाया जाता है। जन्माष्टमी का यह पर्व विदेशों में भी धूम धाम से मनाया जाता है।
श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर ब्रज के कण कण में अपूर्व हर्षोल्लास छा जाता है। आज भी घर आगंन को गोवर से लीपा जाता है चैक पूरे जाते हैं द्वार पर बंदरवार बांधी जाती है, मंगल सूचक थापे लगाये जाते हैं और फूलों से पालने को सजाकर ब्रजकी बालाएं गाती हैं।
‘‘डोरी फूलन को पालनों, आजु नन्द लाला भए’’।
ब्रज के घर घर में भगवान को नये वस्त्र पहना कर उनका श्रंगार करके झांकियां सजाई जाती है। महिलाएं अपने यहां रखे सालिगराम की वटिया को एक खीरे में रख कर डोरे से बांध कर श्री कृष्ण के जन्म समय मध्य रात्रि को 12 बजे उसे खीरे में से निकाल कर पंचामृत स्नान कराती हैं। इस प्रकार से भगवान श्री कृष्ण का प्रतीक रूप में जन्म की भावनाएं संजोई जाती हैं। स्त्री पुरूष बच्चे भी श्री कृष्ण के जन्म के दर्शन के उपरान्त ही अपना व्रत खोलते हैं।
मथुरा स्थित कंस का कारागार स्थल भगवान केशवदेव और नगर के मध्य विराजमान ठाकुर द्वारकानाथ द्वारकाधीश मंदिर में इस दिन विशेष दर्शन होते हैं। इस अवसर पर अपार जनसमूह उमड़ पड़ता है।
ब्रज के प्रत्येक घर आंगन में शंख घन्टा घडि़याल की ध्वनि ऐसे गंज उठती है मानों वहां किसी बालक का जन्म हुआ हो इस प्रकार ब्रज के हर घर घर में कृष्ण जन्म लेते हैं लोग आपस में बधाईयां देते हैं भक्ति भावनाओं में विभोर होकर ब्रजवासी नांचने गाने लगते हैं ‘‘नन्द के आनन्द भए जय कन्हैया लाल की’’ गाते हुए हर तरफ टौलियां नजर आने लगती है।
भगवान श्री कृष्ण का जन्म अर्धरात्रि के समय कंस के कारागार में होने के वाद उनके पिता वसुदेव जी कंस के भय से बालक को रात्रि में ही यमुना नदी को पार कर नन्द बाबा के यहां गोकुल छोड़ आये थे। इसी लिए कृष्ण जन्म के दूसरे दिन गोकुल में नन्दोत्सव मनाया जाता है। भाद्र पद नवमी के दिन समस्त ब्रजमंड़ल में नन्दोत्सव की धूम रहती है। यह उत्सव दधिकांदों के रूप मनाया जाता है दधिकांदो का अर्थ है दही की कीच। हल्दी मिश्रत दही फेंकने की परम्परा आज भी निभाई जाती है। मंदिर के पुजारी नन्दबाबा और जशोदा के वेष में भगवान कृष्ण के पालने को झुलाते हैं। मिठाई, फल व मेवा मिश्री लुटायी जाती है। श्रद्धालु इस प्रसाद को पाकर अपने आपको धन्य मानते हैं। 
वृंदावन में उत्तर भारत के विशाल श्री रंगनाथ मंदिर में ब्रज नायक भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव के दूसरे दिन नन्दोत्सव की धूम रहती है। नन्दोत्सव के दौरान सुप्रसिद्ध लठ्ठे के मेले का आयोजन किया जाता है। धर्मनगरी वृंदावन में श्री कृष्ण जन्माष्टमी जगह-जगह मनाई जाती है किन्तु उत्तर भारत के सबसे विशाल मंदिर में नन्दोत्सव की निराली छटा देखने को मिलती है। दक्षिण भारतीय शैली के प्रसिद्ध श्री रंगनाथ मंदिर में नन्दोत्सव के दिन श्रद्धालु लठ्ठा के मेला की एक झलक पाने को टकटकी लगाकर खड़े होकर देखते रहते हैं। जब भगवान रंगनाथ रथ पर विराजमान होकर मंदिर के पश्चिमी द्वार पर आते हैं तो लठ्ठे पर चढ़ने वाले पहलवान भगवान रंगनाथ को दण्डवत कर विजयश्री का आर्शीवाद लेकर लठ्ठे पर चढ़ना प्रारम्भ करते हैं। 35 फुट ऊंचे लठ्ठे पर जब पहलवान चढ़ना शुरू करते हैं उसी समय मचान के ऊपर से कई मन तेल और पानी की धार अन्य ग्वाल-वालों द्वारा लठ्ठे के सहारे गिराई जाती है। जिससे पहलवान फिसलकर नीचे जमीन पर आ गिरते हैं। जिसे देखकर श्रद्धालुओं में रोमांच की अनुभूति होती है। पुनः भगवान का आर्शीवाद लेकर ग्वाल-वाल पहलवान एक दूसरे को सहारा देकर लठ्ठे पर चढ़ने का प्रयास करते है। तो तेज पानी की धार और तेल की धार के बीच पूरे जतन के साथ ऊपर की ओर चढ़ने लगते हैं। कई घंटे की मशक्कत के बाद आखिर ग्वाल-वालों को भगवान के आर्शीवाद से लठ्ठे पर चढ़कर जीत हासिल करने का मौका मिलता है। इस रोमांचक मेले को देखकर देश-विदेश के श्रद्धालु अभिभूत हो जाते हैं। ग्वाल-वाल खम्भे पर चढ़कर नारियल, लोटा, अमरूद, केला, फल मेवा व पैसे लूटने लगते हैं। 
इसी प्रकार वृंदावन में ही क्या जगह-जगह भगवान श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर नन्दोत्सव मनाया जाता है। ब्रहमकुण्ड स्थित हनुमान गढ़ी में नन्दोत्सव के दौरान मटकी फोड़ लीला का आयोजन किया जाता है। 15 फुट ऊंची मटकी को ग्वाल-वाल पिरामिड बनाकर मशक्कत के साथ मटकी को फोड़ते हैं। एवं दधिकांधा उत्सव का आयोजन भी होता है।

झारखण्ड़ के रांची से 16 जून से लापता यूको बैंक के सीनियर मैनेजर भटटाचार्य का आज तक पता नही चला।

झारखण्ड़ के रांची से 16 जून से लापता यूको बैंक के सीनियर मैनेजर भटटाचार्य का आज तक पता नही चला। 
झारखण्ड़ में यूको बैंक की रांची की ध्रूवा शाखा के सीनियर मैनेजर मथुरा निवासी श्री सुधीरंजन भटटाचार्य 16 जून 2013 से लापता हैं। बैंक के सीनियर मैनेजर को एक षड़यत्र के तहत अगुवा किया गया हैं। परिजनों ने उसकी तलाश में डीजीपी से लेकर पुलिस के तमाम अधिकारियों के यहां दस्तक दी तथा बैंक अधिकारियों तक से सम्पर्क साधा लेकिन कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया और कहीं से अब तक कुछ पता नही चल सका है कि आखिर बैंक मैनेजर कहां गये। उनकी पत्नी के अनुसार बैंक के अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि वह रांची के दो बिल्डरों द्वारा यूको बैंक ध्रूवा व्रांच के साथ करीव तीन करोड़ रुपयों की धोखाधड़ी कर ओवर ड्राफ्ट के माध्यम से बैंक के करेन्ट एकाडन्ट से रकम निकालने के वाद उस रकम को बैंक में जमा नहीं करा रहे थे। जिसे लेकर बैंक के सीनियर मैनेजर सुधीरंजन भटटाचार्य 16 जून को सिद्धार्थ गुप्ता व मनीष मुन्डा के साथ व्यक्तिगत मुलाकात कर बैंक के बकाया के भुगतान को सेटेलमेन्ट कराने की गरज से घर से निकले थे। 
मथुरा स्थित कृष्णा नगर पुलिस चैकी क्षेत्र की मधुबन एंकलेव काॅलोनी निवासी सुधीरंजन भटटाचार्य आठ माह पूर्व ही झारखण्ड के रांची की ध्रूवा शाखा में स्थानांतरित हुए थे। श्री भटटाचार्य पूर्व में मथुरा की गोविन्द गंज शाखा के अलावा आस पास के तमाम जनपदों में कार्यरत थे। मृदुभाषी किन्तु अपने में ही सीमित रहने बाले श्री भटटाचार्य किसी भी व्रांच से किसी शिकायत के दोषी नहीं थे। 
श्री भटटाचार्य ने 16 जून को रात्रि 8 बजकर 43 मिनट पर अपने छोटे भाई सुरंजन भटटाचार्य से मथुरा बात की थी। जो कि श्री भटटाचार्य की अपने परिवार से यही अन्तिम वार फोन पर वार्ता हुई थी। तब तक श्री भटटाचार्य ने पूरी तरह से ठीक हालत में बात की तथा वह किसी तरह के तनाव या अवसाद की स्थिति में बातचीत नहीं कर रहे थे। 16 जून के वाद से श्री भटटचार्य ने न तो परिवार के किसी सदस्य से बात की और न ही कोई फोन उनका मिल पाया। इसके वाद परिवार में चिन्ता होने लगी तब परिवार के सदस्यों ने जब उनके मौबाइल फोन पर सम्पर्क किया तो उनके दोनों फोन बन्द मिल रहे थे। बेटे के गम में 85 वर्षीय माँ ने बिस्तर पकड़ लिया है बहन बहनोई और परिजन परेशान हैं। आखिर झारखण्ड के रांची में कहां जाकर खोजें।उनको चिनता सता रही है कि कहीं उनकी हत्या न कर दी गयी हो। 
इसके वाद उनकी पत्नी श्रीमती सुमिता भटटाचार्य किसी तरह अपने देवर और ननद के साथ रांची पहुँची जहां उन्होंने सम्बंधित यूको बैंक की ध्रुवा रांची ब्रांच में 24 जून को बैंक के अन्य कर्मचारी श्री विश्वनाथ और श्री सी.पी सिंह से मुलाकात की तो जानकारी मिली कि उनके पति श्री सुधीरंजन भटटाचार्य करीब 8 जून से 13 जून तक छुटटी पर थे। फिर 14 जून को भी वह बैंक में डयूटी पर नहीं पहुँचे साथही 15 जून को श्री भटटाचार्य ने श्री विश्वनाथ को मैसेज किया कि वह सोमवार को बैंक जोईन करेंगे तथा उन्होंने लिखा कि वह मनीष व सिद्धार्थ से ओवर ड्राफ्ट को एडजेस्ट कराने के लिए मुलाकात भी करेंगे। श्री भटटाचार्य ने श्री विश्वनाथ को 16 जून रात्रि 8 बजकर 45 मिनट पर फिर मैसेज दिया कि मैं मनीष से मुलाकात करने के लिए बिटसा चैक पर इन्तजार कर रहा हूँ।
इसके वाद से श्री सुधीरंजन भटटाचार्य का कोई पता नहीं चल पा रहा है कि आखिर 16 जून से लापता एक बैंक के सीनियर मैनेजर कहां गये। उनकी पत्नी ने बराबर फोन पर सम्पर्क करने का प्रयास किया लेकिन उनका कोई सम्पर्क उनसे नही हो पाया है। बताया जाता है कि सिद्धार्थ गुप्ता व मनीष मुन्ड़ा काफी प्रभावशाली व बाहुबलि बिल्डर्स हैं जिनके खिलाफ झारखण्ड़ में तथा रांची मे कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। 
श्री सुधीरंजन भटटचार्य ने अपने फ्लेट 404 जगन्नाथ एपार्टमेन्टस सिंह मोड़ लातमा रोड़, हेशंग हातिया, रांची में अपने कमरे में दो पत्र लिख कर छोडे़ हैं जोकि एक सिद्धार्थ गुप्ता व मनीष मुन्डा के नाम लिखे हैं जिसमें बैंक की ओर से ओवर ड्राफ्ट की रकम शीघ्र जमा कराने के लिए लिखा है तथा न जमा कराने की स्थिति में बैंक काननी कार्यवाही करने के लिए व बसूली करने की कार्यवाही कर सकती है। मनीष मुन्डा के पत्र में श्री भटटाचार्य ने धमकी दिये जाने व जान से मारने की धमकी का जिक्र भी किया है। साथ ही जल्द मुलाकात कर ओवर ड्राफ्ट की रकम के सम्बन्ध में वार्ता करने का जिक्र भी किया है। 
श्री भटटाचार्य की पत्नी श्रीमती सुमिता भटटाचार्य के अनुसार उन्होंने प्रदेश के डीजीपी से लेकर आईजी, एसएसपी समेत सम्बधित थाने में जाकर सम्पर्क किया था लेकिन किसी ने उनकी कोई मदद नही की। उन्होंने बताया कि यूको बैंक के जोनल मैनेजर श्री जी.पी भौमिक से भी मुलाकात की वह भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके। भटटाचार्य के एक टैªवेल एजेन्ट श्री अशोक से भी सम्पर्क किया था। वह भी चुप्पी साधे हुए थे लगता है कि उनको कुछ न कुछ तो मालुम है। 
श्रीमती भटटाचार्य ने थानाध्यक्ष जगरनाथपुर थाना रांची में एक लिखित शिकायत दर्ज कराई है। जिसमें शीघ्र पति को ढूंढ कर उनके बारे सूचना देने की गुहार लगाई है।  
बैंक का स्टाफ और पुलिस पूरी तरह से बाहुबलियों के इशारे पर काम कर रही है। श्रीमती भटटाचार्य का कहना है कि बैंक से लापता बैंक अधिकारी के विषय में बैंक ने पुलिस में रिर्पोट क्यों नहीं दर्ज कराई और बैंक द्वारा समाचार पत्रों में कोई सूचना प्रकाशित क्यों नही कराई गई तथा उनके परिवार से सम्पर्क क्यों नहीं किया गया आखिर क्या बजह थी कि श्री सुधीरंजन भटटाचार्य को बैंक ने आनन फानन में निलंबित कर दिया तथा इस आशय का नोटिस भी बैक में चसपा करा दिया। बताया जाता है  िकइस घटना के वाद जोनल मैनेजर से लेकर बैंक में कार्यरत अधिकारियों को भी ट्रांसफर कर दिया गया है। 
बैंक के अधिकारियों को मनीष और सिद्धार्थ के विषय में पूरी जानकारी है। मेरे पति को किसी न किसी षड़यत्र के तहत फंसाया जा रहा है और उनके साथ कुछ भी हो सकता है। दोनो पत्रों के मजमून से और सारा घटनाक्रम तो सिद्धार्थ और मनीष की ओर इशारा करते हैं और कहीं न कहीं पुलिस और बैंक के अधिकारियों की मिलीभगत से इन दोनों ने ही बैंक के सीनियर मैनेजर को ठिकाने न लगा दिया हो एसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है, घटना जो भी हो सामने आनी चाहिए।  
  

मंगलवार, 7 मई 2013

जन-गण-मन के सामने वन्दे मातरम की हार !

वन्दे मातरम व जन-गण-मन वन्दे मातरम की कहानी ये वन्दे मातरम नाम का जो गान है जिसे हम राष्ट्रगीत के रूप में जानते हैं उसे बंकिम चन्द्र चटर्जी ने 7 नवम्बर 1875 को लिखा था। बंकिम चन्द्र चटर्जी बहुत ही क्रन्तिकारी विचार व्यक्ति थे। देश के साथ- साथ पुरे बंगाल में उस समय अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त आन्दोलन चल रहा था और एक बार ऐसे ही विरोध आन्दोलन में भाग लेते समय इन्हें बहुत चोट लगी और बहुत से ... उनके दोस्तों की मृत्यु भी हो गयी। इस एक घटना ने उनके मन में ऐसा गहरा घाव किया कि उन्होंने आजीवन अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का संकल्प ले लिया उन्होंने बाद में एक उपन्यास लिखा जिसका नाम था ‘‘आनंदमठ’’ जिसमे उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बहुत कुछ लिखा, उन्होंने बताया कि अंग्रेज देश को कैसे लुट रहे हैं, ईस्ट इंडिया कंपनी भारत से कितना पैसा ले के जा रही है, भारत के लोगों को वो कैसे मुर्ख बना रहे हैं, ये सब बातें उन्होंने उस किताब में लिखी। वो उपन्यास उन्होंने जब लिखा तब अंग्रेजी सरकार ने उसे प्रतिबंधित कर दिया। जिस प्रेस में छपने के लिए वो गया वहां अंग्रेजों ने ताला लगवा दिया। तो बंकिम दा ने उस उपन्यास को कई टुकड़ों में बांटा और अलग-अलग जगह उसे छपवाया औए फिर सब को जोड़ के प्रकाशित करवाया। अंग्रेजों ने उन सभी प्रतियों को जलवा छपा और फिर जला दिया गया, ऐसे करते करते सात वर्ष के बाद 1882 में वो ठीक से छ्प के बाजार में आया और उसमे उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसने पुरे देश में एक लहर पैदा किया। शुरू में तो ये बंगला में लिखा गया था, उसके बाद ये हिंदी में अनुवादित हुआ और उसके बाद, मराठी, गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओँ में ये छपी और वो भारत की ऐसी पुस्तक बन गया जिसे रखना हर क्रन्तिकारी के लिए गौरव की बातहो गयी थी इसी पुस्तक में उन्होंने जगह जगह वन्दे मातरम का घोष किया है और येउनकी भावना थी कि लो भी ऐसा करेंगे। बंकिम बाबु की एक बेटी थी जो ये कहती थी कि आपने इसमें बहुत कठिन शब्द डाले है और ये लोगों को पसंद नहीं आयेगी तो बंकिम बाबु कहते थे कि अभी तुमको शायद समझ में नहीं आ रहा है लेकिन ये गान कुछ दिन में देश के हर जबान पर होगा, लोगों में जज्बा पैदा करेगा और ये एक दिन इस देश का राष्ट्रगान बनेगा। ये गान देश का राष्ट्रगान बना लेकिन ये देखने के लिए बंकिम बाबु जिन्दा नहीं थे लेकिन जो उनकी सोच थी वो बिलकुल सही साबित हुईद्य 1905 में ये वन्दे मातरम इस देश का राष्ट्रगान बन गया। 1905 में क्या हुआ था कि अंग्रेजों की सरकार ने बंगाल का बटवारा कर दिया था। अंग्रेजों का एक अधिकारी था कर्जन जिसने बंगाल को दो हिस्सों में बाट दिया था, एक पूर्वी बंगाल और एक पश्चिमी बंगाल। इस बटवारे का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये था कि ये धर्म के नाम पर हुआ था, पूर्वी बंगाल मुसलमानों के लिए था और पश्चिमी बंगाल हिन्दुओं के लिए, इसी को हमारे देश में बंग-भंग के नाम से जाना जाता है। इस बटवारे का दंश झेलना पड़ा बंग भाषियों को और आज तक झेलते आ रहे हैं। ये देश में धर्म के नाम पर पहला बटवारा था उसके पहले कभी भी इस देश में ऐसा नहीं हुआ था, मुसलमान शासकों के समय भी ऐसा नहीं हुआ था।
खैर ............... इस बंगाल बटवारे का पुरे देश में जम के विरोध हुआ था , उस समय देश के तीन बड़े क्रांतिकारियों लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल ने इसका जम के विरोध किया और इस विरोध के लिए उन्होंने वन्दे मातरम को आधार
बनाया। और 1905 से हर सभा में, हर कार्यक्रम में ये वन्देमातरम गाया जाने लगा। कार्यक्रम के शुरू में भी और अंत में भी। धीरे धीरे ये इतना प्रचलित हुआ कि अंग्रेज सरकार इस वन्दे मातरम से चिढने लगी। अंग्रेज जहाँ इस गीत को सुनते, बंद करा देते थे और और गाने वालों को जेल में डाल देते थे, इससे भारत के क्रांतिकारियों को और ज्यादा जोश आता था और वो इसे और जोश से गाते थे। एक क्रन्तिकारी थे इस देश में जिनका नाम था खुदीराम बोस, ये पहले क्रन्तिकारी थे जिन्हें सबसे कम उम्र में फाँसी की सजा दी गयी थी मात्र 14 साल की उम्र में उसे फाँसी के फंदे पर लटकाया गया था और हुआ ये कि जब खुदीराम बोस को फाँसी के फंदे पर लटकाया जा रहा था तो फाँसी के फंदे को अपने गले में वन्दे मातरम कहते हुए पहना था। इस एक घटना ने इस गीत को और लोकप्रिय कर दिया था और इस घटना के बाद जितने भी क्रन्तिकारी हुए उन सब ने जहाँ मौका मिला वहीं ये घोष करना शुरू किया चाहे वो भगत सिंह हों, राजगुरु हों, अशफाकुल्लाह हों, चंद्रशेखर हों सब के जबान पर मंत्र हुआ करता था। ये वन्दे मातरम इतना आगे बढ़ा कि आज इसे देश का बच्चा बच्चा जानता। जन-गण-मन की कहानी सन 1911 तक भारत की राजधानी बंगाल हुआ करता था।
सन 1905 में जब बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने के लिए के कलकत्ता से हटाकर राजधानी को दिल्ली ले गए और 1911 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाये।
इंग्लैंड का राजा जोर्ज पंचम 1911 में भारत में आया। रविंद्रनाथ टैगोर पर दबाव बनाया गया कि तुम्हे एक गीत जोर्ज पंचम के स्वागत में लिखना ही होगा। उस समय टैगोर का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे, उनके बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ता डिविजन के निदेशक (Director)  रहे। उनके परिवार का बहुत पैसा ईस्ट इंडिया कंपनी में लगा हुआ था। और खुद रविन्द्र नाथ टैगोर की बहुत सहानुभूति थी अंग्रेजों के लिए। रविंद्रनाथ टैगोर ने मन से या बेमन से जो गीत लिखा उसके बोल है ‘‘जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता’’ इस गीत के सारे के सारे शब्दों में अंग्रेजी राजा जोर्ज पंचम का गुणगान है, जिसका अर्थ समझने पर पता लगेगा कि ये तो हकीकत में ही अंग्रेजो की खुशामद में लिखा गया था। इस राष्ट्रगान का अर्थ कुछ इस तरह से होता है ‘‘भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है। हे अधिनायक (Superhero)  तुम्ही भारत के भाग्य विधाता हो। तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा मतलब महारा’ट्र, द्रविड़ मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदिया जैसे यमुना और गंगा ये सभी हर्षित है, खुश है, प्रसन्न है , तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते है और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते है। तुम्हारी ही हम गाथा गाते है। हे भारत के भाग्य विधाता (सुपर हीरो ) तुम्हारी जय हो जय हो जय हो।
‘‘जोर्ज पंचम भारत आया 1911 में और उसके स्वागत में ये गीत गाया गया। जब वो इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया। क्योंकि जब भारत में उसका इस गीत से स्वागत हुआ था तब उसके समझ में नहीं आया था कि ये गीत क्यों गाया गया और इसका अर्थ क्या है। जब अंग्रेजी अनुवाद उसने सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की। वह बहुत खुश हुआ। उसने आदेश दिया कि जिसने भी ये गीत उसके (जोर्ज पंचम के) लिए लिखा है उसे इंग्लैंड बुलाया जाये। रविन्द्र नाथ टैगोर इंग्लैंड गए। जोर्ज पंचम उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था। उसने रविन्द्र नाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया। टैगोर ने कहा की आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक गीतांजलि नामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये कि मुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो गीतांजलि नामक रचना के ऊपर दिया गया है। जोर्ज पंचम मान गया और रविन्द्र नाथ टैगोर को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना के ऊपर नोबल पुरस्कार दिया गया।
रविन्द्र नाथ टैगोर की अंग्रेजों के प्रति ये सहानुभूति खत्म हुई 1919 में जब जलियावाला कांड हुआ और गाँधी जी ने उनको पत्र लिखा और कहा कि अभी भी तुम्हारी अंग्रेजियत का पर्दा नहीं उतरेगा तुम अंग्रेजों के इतने चाटुकार कैसे हो गए, तुम इनके इतने समर्थक कैसे हो गए ? फिर गाँधी जी स्वयं रविन्द्र नाथ टैगोर से मिलने गए और कहा कि अभी तक तुम अंग्रेजो की अंध भक्ति में डूबे हुए हो ? तब जाकर रविंद्रनाथ टैगोर की नीद खुली। इस काण्ड का टैगोर ने विरोध किया और नोबल पुरस्कार अंग्रेजी हुकूमत को लौटा दिया। सन 1919 से पहले जितना कुछ भी रविन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा वो अंग्रेजी सरकार के पक्ष में था और 1919 के बाद उनके लेख कुछ कुछ अंग्रेजो के खिलाफ होने लगे थे। रविन्द्र नाथ टेगोर के बहनोई, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और (ICS) अॉफिसर थे। अपने बहनोई को उन्होंने एक पत्र लिखा था (ये 1919 के बाद की घटना है)। इसमें उन्होंने लिखा है कि ये गीत ‘‘जन गण मन’’ अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया है। इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है। इस गीत को नहीं गाया जाये तो अच्छा है। लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को न दिखायें क्योंकि मैं इसे सिर्फ आप तक सीमित रखना चाहता हूँ लेकिन जब कभी मेरी मृत्यु हो जाये तो सबको बता दे। 7 अगस्त 1941 को रबिन्द्र नाथ टैगोर की मृत्यु के बाद इस पत्र को सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ये पत्र सार्वजनिक किया, और सारे देश को ये कहा कि ये ‘‘जन गन मन’’ गीत न गाया जाये।
1941 तक कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी। लेकिन वह दो खेमो में बट गई। जिसमे एक खेमे में बाल गंगाधर तिलक के समर्थक थे और दुसरे खेमे में मोती लाल नेहरु के समर्थक थे। मतभेद था सरकार बनाने को लेकर। मोती लाल नेहरु वाला गुट चाहता था कि स्वतंत्र भारत की क्या जरूरत है, अंग्रेज तो कोई खराब काम कर नहीं रहे है, अगर बहुत जरूरी हुआ तो यहाँ के कुछ लोगों को साथ लेकर अंग्रेज साथ कोई संयोजक सरकार (Coalition Government)  बने। जबकि बाल गंगाधर तिलक गुट वाले कहते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के लोगों को धोखा देना है। इस मतभेद के कारण कोंग्रेस के दो हिस्से हो गए। एक नरम दल और दूसरा गरम दल। गरम दल के नेता हर जगह वन्दे मातरम गाया करते थे। (यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि गांधीजी उस समय तक कांग्रेस की आजीवन सदस्यता से इस्तीफा दे चुके थे, वो किसी तरफ नहीं थे, लेकिन गाँधी जी दोनों पक्ष के लिए आदरणीय थे क्योंकि गाँधी जी देश के लोगों के आदरणीय थे)। लेकिन नरम दल वाले ज्यादातर अंग्रेजो के साथ रहते थे, उनके साथ रहना, उनको सुनना, उनकी बैठकों में शामिल होना, हर समय अंग्रेजो से समझौते में रहते थे। वन्देमातरम से अंग्रेजो को बहुत चिढ होती थी। नरम दल वाले गरम दल को चिढाने के लिए 1911 में लिखा गया गीत ‘‘जन गण मन’’ गाया करते थे और गरम दल वाले ‘‘वन्दे मातरम’’।
नरम दल वाले अंग्रेजों के समर्थक थे और अंग्रेजों को ये गीत पसंद नहीं था तो अंग्रेजों के कहने पर नरम दल वालों ने उस समय एक हवा उड़ा दी कि मुसलमानों को  ‘‘मातरम’’ नहीं गाना चाहिए क्यों कि इसमें बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) है। उस समय मुस्लिम लीग भी बन गई थी जिसके प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना थे, उन्होंने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया। जब भारत सन 1947 में स्वतंत्र हो गया तो संविधान सभा की बहस चली। संविधान सभा के 319 में से 318 सांसद ऐसे थे जिन्होंने बंकिम बाबु द्वारा लिखित वन्देमातरम को राष्ट्र गान स्वीकार करने पर सहमति जताई। बस एक सांसद ने इस प्रस्ताव को नहीं माना। और उस एक सांसद का नाम था पंडित जवाहर लाल नेहरु। अब इस झगडे का फैसला कौन करे, तो वे पहुचे गाँधी जी के पास। गाँधी जी ने कहा कि ‘‘जन गन मन’’ के पक्ष में तो मैं भी नहीं हूँ और तुम (नेहरु ) वन्देमातरम के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत तैयार किया जाये। तो महात्मा गाँधी ने तीसरा विकल्प झंडा गान के रूप में दिया ‘‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊँचा हमारा’’। लेकिन नेहरु जी उस पर भी तैयार नहीं हुए। नेहरु जी का तर्क था कि झंडा गान ओर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता और ‘‘जन-गण-मन’’ ओर्केस्ट्रा पर बज सकता है। उस समय बात नहीं बनी तो नेहरु जी ने इस मुद्दे को गाँधी जी की मृत्यु तक टाले रखा और उनकी मृत्यु के बाद नेहरु जी ने ‘‘जन-गण-मन’’ को राष्ट्र गान घोषित कर दिया और जबरदस्ती भारतीयों पर इसे थोप दिया गया जबकि इसके जो बोल है उनका अर्थ कुछ और ही कहानी प्रस्तुत करते है, और दूसरा पक्ष नाराज न हो इसलिए वन्दे मातरम को राष्ट्रगीत बना दिया गया लेकिन कभी गाया नहीं गया। नेहरु जी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे जिससे कि अंग्रेजों के दिल को चोट पहुंचे। जन-गण-मन को इसलिए प्राथमिकता दी गयी क्यों कि यह उनके लिए गाया गया गीत था और वन्देमातरम इसलिए पीछे रह गया क्योंकि इस गीत से अंगेजों को दर्द होता था। तो ये इतिहास है वन्दे मातरम का और जन गण मन का।
अब ये आप को तय करना है कि आपको क्या गाना है ? इतने लम्बे पत्र को आपने धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए आपका धन्यवाद्। और अच्छा लगा हो तो इसे फॉरवर्ड कीजिये, आप अगर और भारतीय भाषाएँ जानते हों तो इसे उस भाषा में अनुवादित कीजिये (अंग्रेजी छोड़ कर), अपने अपने ब्लॉग पर डालिए, मेरा नाम हटाइए अपना नाम डालिए मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मतलब बस इतना ही है की ज्ञान का प्रवाह होते रहने दीजिये।

जय हिंद

बुधवार, 27 मार्च 2013

चैतन्य महाप्रभु यदि वृन्दावन न आये होते तो शायद ही कोई पहचान पाता कान्हा की लीला स्थली को,

चैतन्य महाप्रभु यदि वृन्दावन न आये होते तो शायद ही कोई पहचान पाता कान्हा की लीला स्थली को,

क्यों कि उस समय वैष्णव आन्दोलन जन-जीवन के अति करीब था। यह केवल पंण्डितों तक सीमित नहीं था यह समस्त जीव मात्र के लिए था। सिद्धान्तों का मनन चिन्तन सबके लिए था। यह वैष्णव आन्दोलन एक नैतिक और सामाजिक आन्दोलन के रूप में सामने आया, जिसमें समाज में व्याप्त कुरितियों छुआछूत और जाति-पाँति का कोई विचार न था। ईश्वर भक्ति में सबका समान रूप से अधिकार था। ईश्वर भक्ति ही महत्वपूर्ण है भक्तिपरक सिद्धान्त एवं भक्ति सभी के लिए था। लेकिन इस आन्दोलन में साधारण लोग भी शामिल थे। मुगलों का शासन था समाज में उनका आतंक व्याप्त था। समाज रूढि़वादी और छूआछूत जैसी कठिन समस्याओं से अछूता न था। ऐसे में हिन्दुत्व की भावना को सुरक्षित रखने के लिए वैष्णव आन्दोलन का प्रचार प्रसार चल रहा था। वैष्णव धर्म तो पहले से था लेकिन उसे भारतवर्ष में लोकप्रिय बनाने का श्रेय श्रीचैतन्य को ही जाता है। 
 इसका ऋण चुकाने को बंगाल ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पंद्रहवीं शताब्दी में बंगक्षेत्र ने उस भक्तिवीर को जन्म दे दिया, जिसने कृष्ण के वृंदावन को पुनः जागृत कर कृष्ण भक्ति को जन जन में प्रचारित कर दिया। भक्ति आंदोलन की तारीखें गवाह हैं कि पश्चिमोत्तर के कान्हा श्याम की बांसुरी की तान को पुनर्जीवित करने का श्रेय पूरब के गौरांग को ही जाता है। यह थे चैतन्य, जिन्हें उनके भक्त आज भी महाप्रभु के नाम से बुलाते हैं। उनके भक्त तो आज भी चैतन्य महाप्रभु में दुर्गा या काली के बजाय कृष्ण और राधा के एक रूप को ही देखते हैं।
चैतन्य महाप्रभु का नाम वैष्णव सम्प्रदाय के भक्तियोग शाखा के शीर्श कवियों और संतों में होती है। वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की शुरुआत भी चैतन्य महाप्रभु ने की है। भजन गायकी की अनोखी शैली प्रचलित कर उन्होंने तब की राजनैतिक अस्थिरता से अशांत जनमानस को सूफियाना संदेश दिया था। लेकिन वे कभी भी कहीं टिक कर नहीं रहे, बल्कि लगातार देशाटन करते हुए हिंदू-मुस्लिम एकता के साथ ईश-प्रेम और भक्ति की वकालत करते रहे। जात-पांत, ऊंच-नीच की मानसिकता की उन्होंने भर्त्सना की, लेकिन जो सबसे बड़ा काम उन्होंने किया, वह था वृन्दावन को नये सिरे से भक्ति आकश में स्थापित करना। सच बात तो यह है कि तब लगभग विलुप्त हो चुके वृंदावन को चैतन्य महाप्रभु ने ही नये सिरे से बसाया। अगर गौरांग के चरण वहां न पड़े होते तो कृष्ण -कन्हाई की यह लीला भूमि, किल्लोल-भूमि केवल एक मिथक बन कर ही रह जाती।
पश्चिम बंगाल के नादिया जिला तब इसे नवदीप कहा जाता था। में 19 फरवरी सन् 1486 संवत् 1542 शनिवार को फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को जन्मकाल था संध्या में सिंह लग्न और चन्द्रग्रहण के उपलक्ष्य में लोग गंगा स्नान, हरिनाम संकीर्तन आदि कर रहे थे। नवद्वीप के मायापुर में पिता जगन्नाथ एवं माता शची देवी के घर श्री चैतन्य अवतीर्ण हुए। उस समय शची माता की नौ सन्तानों में से एकमात्र पुत्र श्री विश्वरूप ही विद्यमान थे। अतः श्री चैतन्य के जन्म से उन्हें अत्यधिक हर्ष हुआ। 
माता ने शिशु का नाम रखा निमाई और निमाई के विद्वान नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती ने विष्वम्भर नाम से उन्हें सुशोभित किया परन्तु स्वर्ण की भाँति उज्जवल पीत कान्ति होने के कारण समस्त नगरवासी इन्हें गौरसुन्दर, गौरांग, गौरहरि इत्यादि नामों से पुकारते थे। प्यार से निमाई भी बुलाया जाने लगा। कारण यह था कि इनका जन्म नीम के पेड़ के नीचे हुआ था। बचपन से ही निमाई की मुखाकृति सरल, सहज और आकर्शक थी। कैशोर्यावस्था तक निमाई न्याय और व्याकरण में पारंगत हो गये। 
श्री चेतन्य के अग्रज विश्वरूप कुछ ही समय में विद्वान हो गये थे। और इस असार संसार को नश्वर जान कर सोलह वर्ष की अवस्था में उन्होंने गृह त्याग कर दिया था। माता पिता के साथ घर पर चैतन्य ही अकेले रह गये थे। अधिक विद्वत्ता का परिणाम विश्वरूप का गृहत्याग माता-पिता देख चुके थे। अतः एक मात्र सहायक श्री चैतन्य का अध्ययन बन्द करा दिया। जिसके परिणाम स्वरूप चैतन्य अत्यधिक चंचल हो गये थे। इससे परेशान माता-पिता ने चैतन्य को पुनः अध्ययन आरम्भ करा दिया। कुछ समय पश्चात पिता का देहावसान हो गया और तब माता व घर की जिम्मेदारी इन्हीं पर आ पड़ी। अध्ययनरत श्री चैतनय का अल्पायु में ही श्री वल्लभ मिश्र की सुयोग्य कन्या लक्ष्मीप्रिया से विवाह सम्पन्न हुआ। चैतन्य ने कुछ दिन विद्यालय भी चलाया। इसके वाद पूर्वी बंगाल में श्री चैतन्य ने सर्वप्रथम हरिनाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार आरम्भ किया। इधर उनकी पत्नी लक्ष्मीप्रिया का सर्पदंश के कारण निधन हो गया। विधवा माता बेचारी अकेली ही एक के बाद एक कष्ट सहन कर रही थी। माता के आग्रह पर श्री चैतन्य का राजपंडि़त श्री सनातन की कन्या विष्णुप्रिया से पुनर्विवाह हुआ।
23 साल की उम्र में पिता का श्राद्ध करने जब निमाई गया पहुंचे तो ईश्वरपुरी नामक एक संत के सानिध्य में कृष्ण नाम का जाप करने लगे। नाम के साथ ही उन्होंने कृष्ण के भाव को भी जी लिया। केशव भारती से दीक्षा लेने के बाद मात्र 24 साल की उम्र में ही निमाई ने संन्यास ले लिया और चैतन्य देव हो गये। गौरांग के भक्तों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। इतना ही नहीं, तब के प्रसिद्ध संत नित्यानंद प्रभु और अद्वैताचार्य महाराज ने भी इनसे दीक्षा ले ली तो जैसे पूरा आर्यावर्त कृष्ण भक्ति में लीन हो गया। निमाई ने इनकी सहायता से अपने आंदोलन में ढोल, मृदंग, झाँझ और मजीरा आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।
संन्यास लेने के बाद जब गौरांग पहली बार जगन्नाथ मंदिर पहुंचे और भगवान की मूर्ति देखते ही भाव-विभोर होकर उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे। अचानक बेहोश हो गये। वहां मौजूद एक विद्वान सार्वभौम भट्टाचार्य ने चैतन्य को उठाया और अपने घर ले आये। शास्त्र-चर्चा छिड़ी तो गौरांग ने भक्ति का महत्त्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध कर सार्वभौम को षड़भुजरूप का दर्शन करा दिया। सार्वभौम सीधे गौरांग के चरणों में गिर पड़े। बाद में सार्वभौम ने गौरांग की शत-श्लोकी स्तुति की जिसे आज चैतन्य शतक के नाम से पहचाना जाता है। 
अपनी उपासना विधि में निमाई ने 18 शब्दों का एक तारक-ब्रह्म-महामंत्र शामिल किया। 

‘‘हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे । 
हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे’’।। 
उनका तर्क था कि कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार के लिए केवल यही एक मंत्र है। दरअसल, निमाई जब पूजा करते थे तो ऐसा लगता था कि वे साक्षात ईश्वर की आराधना कर रहे हों। इसके वाद चैतन्य चैतन्य महाप्रभु बन चुके थे।
चैतन्य महाप्रभु इसके बाद दक्षिण के श्रीरंग क्षेत्र व सेतु बंध होते हुए उत्तर की ओर बढ़े और विजयादशमी के दिन वृंदावन के लिए निकले। अपार जनसमुदाय उनके साथ था। कहते हैं कि इनके हरिनाम धुन से रास्ते में जंगली जानवर तक उन्मत्त हो कर नृत्य करने लगे। कार्तिक पूर्णिमा को वे वृंदावन पहुंचे, जहां आज भी इस दिन गौरांग का आगमनोत्सव मनाया जाता है। गौरांग ने हरिद्वार, प्रयाग होते हुए काशी, हरिद्वार, शृगेरी (कर्नाटक), कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), द्वारिका, मथुरा तक पहुंच कर कृष्ण  भक्ति का डंका बजा दिया। आखिरी दौर में वे पुरी पहुंचे और महज 47 बरस की आयु में श्रीकृष्ण  के परम धाम की ओर चले गये।
चैतन्य और उनके भक्त भजन-कीर्तन में ऐसे लीन और भाव-विभोर हो जाते थे कि उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती थी। प्रेम, आस्था और रूदन का यह अलौकिक दृश्य हर किसी को स्तब्ध कर देता था। कृष्ण में समर्पण की इस भावनात्मक सम्बन्ध ने चैतन्य महाप्रभु की प्रतिष्ठा को और भी बड़ा दिया । उड़ीसा के सूर्यवंशी सम्राट गजपति महाराज प्रताप रुद्रदेव तो चैतन्य को अवतार तक मानकर उनके चरणों में गिर गये जबकि बंगाल के एक शासक का मंत्री रूपगोस्वामी तो अपना पद त्यागकर उनके शरणागत हो गया था। गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के आदि-आचार्य माने जाने वाले चैतन्य महाप्रभु ने अनेक ग्रंथों की रचना की, लेकिन आज आठ श्लोक वाले शिक्षाष्टक के सिवा कुछ नहीं है। शिक्षाष्टक में वे कहते हैं कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौन्दर्य, प्रेमपरक हैं। उनकी तीन शक्तियाँ परम ब्रह्म, माया और विलास हैं। वे नारद की भक्ति से प्रभावित थे और उन्हीं की तरह कृष्ण-कृष्ण जपते थे। लेकिन गौरांग पर बहुत ग्रंथ लिखे गए, जिनमें प्रमुख है श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी का चैतन्य चरितामृत, श्रीवृंदावन दास ठाकुर का चैतन्य भागवत, लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल, चैतन्य चरितामृत, श्री चैतन्य भागवत, श्री चैतन्य मंगल, अमिय निमाई चरित और चैतन्य शतक आदि।
चैतन्य महाप्रभु ईश्वर को एक मानते है। उन्होंने नवद्वीप से अपने छह प्रमुख अनुयायियों को वृंदावन भेजकर वहां सप्त देवालयों की स्थापना करायी। उनके प्रमुख अनुयाइयों में गोपाल भट्ट गोस्वामी बहुत कम उम्र में ही उनसे जुड़ गये थे। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी आदि उनके करीबी भक्त थे। इन लोगों ने ही वृंदावन में सप्त देवालयों की स्थापना की। मौजूदा समय में इन्हें गोविंददेव मंदिर, गोपीनाथ मंदिर, मदन मोहन मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा दामोदर मंदिर,राधा श्यामसुंदर मंदिर और गोकुलानंद मंदिर आदि कहा जाता है। इन्हें सप्तदेवालय के नाम से ही पहचाना जाता है।
चैतन्य मत का मूल आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूल शक्ति है और वही आनन्द का कारण भी है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा की उपासना के साथ ही कृष्ण की प्राप्ति का मार्ग भी है।
सुनील शर्मा मथुरा। 09319225654