मंगलवार, 7 जुलाई 2020

वृन्दावन बॉकेबिहारी के फूल बंगले भी कोरोना काल में नहीं सजे


देहरी छूकर ही अपने दिन की शुरूआत करते हैं लोग
देहरी पूजन से शुरू हो रही हैं शादियां

वृन्दावन, मथुरा। (सुनील शर्मा) कोरोना महामारी के चलते जहां भगवान के भक्त दुखी हैं वहीं भगवान भी अब मजबूर हैं भगवान का दर्शन न देना भी मजबूरी बन गया है। ज्यादातर लोगों ने अपने घरों को ही भव्य मंदिर बना लिया है और भगवान को अपने घर पर बैठकर स्मरण कर रहे हैं, ध्यान लगा रहे हैं। कोरोना वायरस की वजह से मथुरा और वृंदावन के हजारों मंदिर अभी भी बंद हैं। मथुरा में अभी सिर्फ दो ही मंदिर खुले हैं।
वृंदावन में सैकड़ों ऐसे भक्त हैं जो मंदिर की देहरी छूकर अपने दिन की शुरुआत करते हैं। 8 जून के बाद से देश में कई मंदिर खुल गए, मथुरा में भी दो ही मंदिर खुले हैं। श्रीकृष्ण जन्मस्थान मंदिर और श्री द्वारिकाधीश मंदिर।
पांच हजार से अधिक मंदिरों वाले वृंदावन के श्रीबांके बिहारी जी का मंदिर, गोविंददेव जी का मंदिर, कृष्ण-बलराम का मंदिर (इस्कॉन मंदिर), पागल बाबा मंदिर, प्रेम मंदिर, निधिवन मंदिर समेत गोकुल, बरसाना श्रीलाडली जी का मंदिर और गोवर्धन में मुकुट मुखारबिंद, रमन रेती आश्रम-महावन, बलदेव मंदिर समेत बृज के छोटे-बड़े सभी मंदिर अभी भी आम लोगों के लिए बंद हैं।
वृंदावन के बिहारी पुरा में रहने वाले मंदिर के सेवायत प्रहलाद गोस्वामी जी बताते हैं कि जो लोग अभी तक हर दिन सुबह स्नान के बाद बांकेबिहारी मंदिर दर्शन के लिए जाते थे। यह लोगों की दिनचर्या का हिस्सा है और कुछ लोग दर्शन के बाद ही पानी पीते हैं। कोरोना के चलते मंदिर बंद हो गये तो वे हर दिन देहरी को ही छूकर ही लौट जाते हैं।
बॉके बिहारी मंदिर के सेवायत गोस्वामी शेलेन्द्र गोस्वामी का कहना है कि इस दौरान जिनको भी अपने परिवार में शादी करानी है, लड़का व लड़की को पक्का करना है तो वह बिहारी जी के मुख्य द्वार की चौखट को ही बिहारी जी का आर्शीवाद मान कर रिंग सेरेमनी तथा शादी के वाद भी बहू को घर में लाने से पहले बिहारी जी की देहरी की पूजा अर्चना करते हैं।
नियमित दर्शनाथियों का कहना है कि ऐसा कभी नही हुआ कि प्रभु बॉके बिहारी के दर्शन न मिले हों। इस संकट काल में बिहारी जी मंदिर की देहरी ही मिल जाए यही सौभाग्य की बात है।
वृंदावन में सैकड़ों भक्त हैं जो मंदिरों की देहरी छूकर ही अपने दिन की शुरुआत कर रहे हैं। इस वार ब्रज का प्रमुख मेला मुडिया पूनो (गुरू पूर्णिमा) जो उत्तर प्रदेश सरकार का एक राजकीय मेला घोषित है यह मेला भी कोरोना की भेंट चढ़ गया। इस मेले में गोवर्धन में एक करोड़ से ज्यादा लोग आते थे। संकरी गलियों वाले बृज क्षेत्र में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन मुश्किल हो पाता जिसे देखते हुए जिला प्रशासन ने इस मेले को ही कैंसिल कर दिया।
ब्रज क्षेत्र के मंदिरों के बंद रहने और इक्का-दुक्का ट्रेनें व बसों के न चलने के कारण धार्मिक पर्यटन पर टिकी मथुरा-वृन्दावन की अर्थव्यवस्था जिसमें तमाम ऐसे लोग हैं जो यात्रियों परदेशियों के भरोसे ही चलते हों उनको अधिक परेशानी हो रही है। होटल खाली पड़े हैं, पोशाक बेचने वाले, प्रसाद वाले, मिठाई वाले, टैक्सी-ट्रैवल्स सबके कारोबार प्रभावित हो रहे हैं। करीब चार हजार तीर्थ पुरोहित भी बिना जिजमानों के खाली ही बैठे हैं।
लॉकडाउन के पहले यहां हर दिन 20 हजार श्रद्धालु आते थे, अभी बड़ी मुश्किल से एक हजार ही आ पा रहे हैं। 95 फीसदी सेवाएं कैंसिल हो रही हैं बृज क्षेत्र में सर्वाधिक भीड़ वाले मंदिर में से श्री बांकेबिहारी जी मंदिर मंदिर के सेवायत शैलेन्द्र गोस्वामी बताते हैं कि मंदिर में सिर्फ पांच सेवायत, छह भंडारी ही जा सकते हैं। बांकेबिहारी जी का दिन में आठ बार भोग लगता है उसके साथ ही दीपक, पुष्प बैठक आदि की सेवा हो रही है। आम तौर पर भक्त पहले से ही सेवा बुक करवा लिया करते थे, लेकिन अभी 95 फीसदी सेवाएं कैंसिल हो रही हैं। इसी के कारण मंदिर में प्रतिवर्ष सजने वाले फूल बंगले भी कैंसिल हुए है। फूल बंगलों पर भी कोरोना काल का असर साफ देखने को मिल रहा है।
वृन्दावन के प्रसिद्ध मंदिरों में फूल बंगलों का यह क्रम चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी से श्रावण कृष्ण पक्ष अमावस्था (हरियाली अमावस्था) तक चलता है। इन दिनों फूल बंगलों की बड़ी जबर्दस्त बहार रहती थी, जो इस वार देखने को नहीं मिली। फूलों के यह बंगले मुख्यतः यहां के ठाकुर श्री बांके बिहारी मंदिर, राधावल्लभ मंदिर, राधारमण मंदिर एवं राधा दामोदर मंदिर आदि में श्रद्धालु, भक्तगणों द्वारा मंदिरों के गोस्वामियों के सहयोग से नित नए रूप से बनवाए जाते हैं, जिनमें कि प्रतिदिन सांयकाल ठाकुर जी मंदिर के गर्भ गृह से बाहर निकल कर जगमोहन में विराजते हैं। साथ ही वे मंदिर प्रांगण में उपस्थित हजारों श्रद्धालु भक्तों को अपने दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं।
इसके पीछे का भाव है कि भीषण गर्मी की झुलसाने वाली तपिश में अपने आराध्य ठाकुर जी को गर्मी के प्रकोप से बचाने एवं उन्हें पुष्प सेवा से आह्लादित कर रिझाने के लिये वृंदावन के प्रायः सभी प्रमुख मंदिरों में फूल बंगले बनते हैं परंतु फूल बंगले बनाने का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप यहां के विश्व प्रसिद्ध ठाकुर श्री बांके बिहारी मंदिर में देखने को मिलता है। बताया जाता है कि प्राचीन काल में ठाकुर बांके-बिहारी महाराज की सेवा करने हेतु उनके प्राकट्यकर्ता स्वामी हरिदास व उनके शिष्य जंगलों से तरह-तरह के फूल बीन कर लाते थे, जिन्हें बिहारी जी के सम्मुख रख दिया जाता था। साथ ही हरिदास जी, बिहारी जी को रायबेल व चमेली के फूलों की माला भी पहना दिया करते थे। बाद में वे फूलों से छोटी मोटी सजावट करने लगे। इस प्रकार वृंदावन में सर्वप्रथम फूल बंगला रसिकेश्वर स्वामी हरिदास ने ठाकुर बल्लभाचार्य महाराज, विट्ठलनाथ गोस्वामी, अलबेली लाल गोस्वामी, लक्ष्मीनारायण गोस्वामी, ब्रजवल्लभ गोस्वामी, छबीले बल्लभ गोस्वामी आदि के द्वारा संबर्धन हुआ।
इन सभी से यह कला बिहारी जी के अन्य गोस्वामियों ने भी सीखी। गोस्वामियों के द्वारा बिहारी जी के मंदिर में फूल बंगलों को बनाए जाने के मूल में यह भावना निहित थी कि इससे उनके ठाकुर जी को गर्मियों में फूलों से कुछ ठंडक मिलेगी। अतएवं वह प्रतिवर्ष गर्मियों में उनके मंदिर में अपने निजी खर्चे पर फूलों के बंगले बनाते थे। बाद में इन फूल बंगलों को बाहर के भक्तों के द्वारा बनाए जाने का खर्चा उठाया जाने लगा किंतु इनको बनाने का कार्य आज भी बिहारी जी के गोस्वामियों के द्वारा ही किया जाता है। क्योंक यह कला इनको अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुई हैं, इसलिए वह फूल बंगलों को बनाए जाने का कार्य बगैर किसी पारिश्रमिक के अत्यंत श्रद्धाभाव के साथ करते हैं। बिहारी जी के लगभग डेढ़ सौ गोस्वामी परिवारों में आज कोई भी परिवार ऐसा नहीं है, जिसमें कि कोई न कोई व्यक्ति फूल बंगलों को बनाने का काम न जानता हो और सब अपनी सुविधानुसार फूल बंगले बनाते हैं।
एक दिन के छोटे से छोटे फूल बंगले में पचास क्विंटल तक फूल लग जाते हैं। इतनी बड़ी तादात में फूल वृन्दावन में उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, इसके लिये अन्य जनपदों से भी फूल मगांने पड़ते हैं अब कुछ भक्त विदेशों से भी विदेशी फूल मंगवाने लगे हैं। दूरवर्ती स्थानों से फूलों को बर्फ की सिल्लियों पर रखकर वायुयान से दिल्ली, आगरा तक मंगाया जाता है। तत्पश्चात् उन्हें सड़क मार्ग से वृंदावन लाया जाता है। फूल बंगलों में फूलों के अलावा तुलसी दल, केले के पत्तों, सब्जियों, फलों, मेवों, मिठाइयों और रुपयों का भी इस्तेमाल होता है।
इस वार इतनी भव्यता के साथ फूल बंगले नही सजाये गये। हवाई जहाजों के आवागमन पर रोक और रेल गाड़ियों के व सड़क मार्ग सभी बंद होने के चलते फूलों के यहां तक न पहुंच पाने के कारण भव्यता के साथ फूल बंगले नहीं सजाये जा सके।
प्रति वर्ष इन दिनों फूल बंगला बनाने में पाँच लाख रुपयों से लेकर बीस-पच्चीस लाख रुपये तक का खर्च श्रद्धालु भक्त किया करते थे। इस सम्बन्ध में ठाकुर बांके बिहारी के अनन्य सेवक व स्वामी हरिदास जी के वंशज सेवायत शेलेन्द्र गोस्वामी ने बताया कि ठाकुर बांके बिहारी मंदिर में दूर दराज से आए उनके तमाम श्रद्धालु प्रायः मनौतियां पूर्ण होने पर फूल बंगला ठाकुर जी की सेवा में अर्पित करते हैं। मनौतियों के पूरे होने पर श्रद्धालु भक्त यहां अपने खर्चे पर मंदिर के गोस्वामियों के सहयोग से फूल बंगले बनवाते हैं। इस कार्य में सभी जाति संप्रदाय के लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते है।
बाँके बिहारी मंदिर के व्यवस्थापक मनीष कुमार शर्मा ने बताया कि यहां प्रतिवर्ष गर्मियों में फूल बंगलों के बनाए जाने के जो लगभग चार महीने होते हैं, उनमें किस दिन किस व्यक्ति के खर्चे पर फूल बंगला बनेगा, इसकी बुकिंग लगभग एक वर्ष पूर्व ही हो जाती है। फिर भी फूल बंगला बनवाने के इच्छुक तमाम लोगों को निराश होना पड़ता है। ठाकुर बांके बिहारी मंदिर पर चैत्र शुक्ल एकादशी से श्रावण कृष्ण हरियाली अमावस्या तक बिना नागा नित्य-प्रति फूलों के बंगले बनते हैं। इस वर्ष यह फूल बंगले 03 अप्रैल से 20 जुलाई तक 108 दिन फूल बंगले बनाये गये और 20 जुलाई तक बनाये जायेंगे। उन्होंने बताया कि इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण भक्तों का आना नही हो पाया जिसके चलते अधिकांश फूल बंगले भक्तों के द्वारा नहीं बनवाये गये मगर कुछ भक्त श्रीबॉके बिहारी को आस्था के चलते फूल बंगले अर्पित किये। उसी के अनुसार इस वर्ष उतने भव्य बंगले नहीं बन पाये केवल ठाकुर जी को फूल बंगलों में सजाया गया। यही फूल बंगले अन्य वर्षों में अधिक मांग होने के कारण दोनों टाइम सजाये जाते और लगभग 216 फूलबंगले सजाये जाते।
बाँके बिहारी जी मंदिर प्रबन्ध कमेटी के पूर्व सदस्य व अनन्य भक्त विकास वार्ष्णेय ने इस सम्बन्ध में बताया कि वृंदावन के ठाकुर श्री बांके बिहारी मंदिर में फूल बंगलों को बनाने का कार्य प्रतिवर्ष बड़े जोर-शोर से होता है। यहां के गोस्वामी कलाकारों का उत्साह व तल्लीनता देखते ही बनती है। मगर उन्होंने बड़े ही निराशा का भाव लिये बताया कि इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण यह व्यवस्था का पालन ठीक से नहीं हो सका।मंदिर के उप प्रबन्धक उमेश सारस्वत ने बताया कि एक बंगले को बनाए जाने में जो फूल प्रयोग में आता है, उसे दूसरा फूल बंगला बनाने हेतु किसी भी हाल में प्रयेग में नहीं लाया जाता है। एक बार प्रयोग में आ चुका फूल बतौर प्रसाद भक्तगणों में वितरित किया जाता है अथवा यमुना में विसर्जित कर दिया जाता है। फूल बंगले बनाने हेतु प्रतिदिन ताजे फूल ही इस्तेमाल होते है। इन बंगलों की लागत चार-पांच लाख से लेकर बीस व पच्चीस लाख रुपयों तक जा पहुंचती है। इन बंगलों में सिक्कों का भी प्रयोग होता है। आजकल गुब्बारों से फल-फूल सब्जियों व अन्य सामग्री से भी बंगले बनने लगे हैं। देश के कौने कौने से श्रद्धालु अपनी मनोकामंना के पूर्ण होने पर भगवान बाँके बिहारी जी को फूल बंगला अर्पित करते हैं। इन फूल बंगलों को देखने के लिए दूर-दराज से अंसख्य दर्शक वृंदावन प्रतिदिन पहुंचते हैं किन्तु इस वर्ष चारों तरफ लॉकडाउन के चलते और रेल गाड़ियों के व सड़क मार्ग पर यातायात उपलब्ध न हो पाने और लोगों का घरों से निकलना ही बंद होने के कारण फूल बंगलों में भी कमी आई है।

बांकेबिहारी मंदिर में जहां हर महीने 15 से 20 लाख लोग दर्शन के लिए आते थे, अभी सिर्फ पुजारी ही मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं। इस अकेले मंदिर में हर महीने दर्शन के लिए दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, उडीसा के अलावा विदेशों से भी यहां आते थे। गोस्वामी कहते हैं कि हमारे पिताजी बताते हैं कि वृन्दावन की गलियां कभी ऐसी सूनी नहीं देखी हैं। मंदिर के सेवायतों का मानना है कि मंदिर में सोशल डिस्टेंसिंग, सैनिटाइजेशन की व्यवस्था की जा सकती हैं लेकिन गली और वृंदावन की जिम्मेदारी प्रशासन ले तब ही मंदिर खोले जा सकते हैं।
मथुरा से सुनील शर्मा, 9319225654

रविवार, 5 जुलाई 2020

58 साल पहले मुड़िया पूर्णिमा के दिन रेल हादसा अब एक कहानी बन कर रह गई है।


मथुरा। (सुनील शर्मा) स्वाधीनता के बाद देश में एक ऐसी घटना घटी जिसे आज तक भुलाया नहीं जा सका है, हांलाकि इस घटना के चश्मदीद गवाह अब गिने चुने ही बचे हैं फिर भी अधिकांश लोगों को उनके पूर्वजों व अपनों से, बड़ों से कहानी के रूप में सुनने को मिली घटना आज भी लोगों को सिरहन पैदा कर देती है। इतना बड़ा रेल हादसा वो भी यमुना के बीचों बीच रेलवे के पुल पर घटी थी वह भी मुडिया पूर्णिमा मेला के दिन आज से लगभग 58 साल पहले की घटना सन् 1962 की 17 जुलाई मंगलवार का दिन था और गुरूपूर्णिमा का पर्व था।

मथुरा में यमुना नदी को पार करने के लिए मात्र एक ही साधन था
देश में आवागमन की व्यवस्थाएं भी नहीं थी। मथुरा में यमुना नदी को पार करने के लिए मात्र एक ही साधन था रेलवे का पुल उस पर से पैदल चलने की व्यवस्था थी और ट्रेन का आवागमन भी होता था और सड़क भी थी। रेलवे के पुल के उपर रेलगाड़ी के निकलने भर को जगह थी। रेल के निकलने के समय में सड़क को बंद कर दिया जाता था। रेलगाड़ी के उपर यदि कोई चढ़ जाता तो उसका घायल होना निश्चित ही था।
भींड़ अधिक होने के कारण लोग रेल गाड़ी की छत्तों पर चढ़ कर यात्रा कर रहे थे
17 जुलाई मंगलवार 1962 का दिन मथुरा के इतिहास में और स्वतन्त्र भारत के इतिहास में रेलवे की यह पहली घटना थी। जब मुडिया पूनों यानी मुड़िया पूर्णिमा के दिन परिक्रमार्थी गिर्राज गोवर्धन की परिक्रमा करने को बड़ी संख्या में आते हैं उस दिन भी आये, भींड़ अधिक होने के कारण लोग रेल गाड़ी की छत्तों पर चढ़ कर यात्रा कर रहे थे। उस समय यह रेल मार्ग नोर्दन ईस्टन रेलवे का भाग था और इस मीटर गेज (छोटी लाइन) रेल मार्ग पर नोर्थ बंगाल न्यू जलपाईगुडी, असम तक की यात्राएं इस मार्ग से लोग किया करते थे।
स्थानीय स्तर पर बरेली, इज्जतनगर तक के यात्री भी यातायात किया करते थे। मुड़िया पूर्णिमा मेला में रेल यातायात से पूर्व भी लोग पैदल ही तीर्थयात्रा करने के लिए आते थे रेल मार्ग शुरू होने के वाद से लोग रेल का उपयोग करने लगे। आज यह रेल मार्ग ब्राडगेज (बड़ी लाइन) होने के वाद इसका इलैक्ट्रीफिकेशन भी हो चुका है।
किस प्रकार से हजारों लोग एक साथ काल के गाल में समा गए थे
रेल हादसे को लगभग 58 साल बीत चुके है। उस समय के आज भी मौजूद लोगों की जुबान आज भी यह बताते-बताते लडखड़ा जाती है, मुड़िया पूर्णिमा के दिन 17 जुलाई मंगलवार की सुबह करीब चार बजे का समय था। यमुना नदी पर बने रेल के पुल पर तेजी के साथ एक सवारी गाड़ी गुजरी और देखते ही देखते सैकड़ों लोग जो रेलगाड़ी की छत पर बैठे थे, दुर्घटना का शिकार हो गये, कोई कुछ समझ पाता कि किसी की गर्दन कट गयी, कोई धड़ से अलग हो गया, किसी का हाथ कटा, किसी की टांग कटी चारों ओर चीख पुकार और बदहवास होकर इधर-उधर दौड़ते लोग देखे जा सकते थे। जो लोग दुर्घटना का शिकार हुए और गर्दन कटने के वाद भी कुछ समय के लिए वह नदी और आस पास इधर-उधर चलते देखे गये। ऐसा भयानक हादसा का जिक्र करते हुए सुशील शर्मा जो वर्तमान में लन्दन में निवास करते है उन्होंने बताया कि उस समय उनकी उम्र करीब 12-13 वर्ष की थी। घटना की जानकारी मिलते ही यमुना किनारे जाकर देखा था कि किस प्रकार से हजारों लोग एक साथ काल के गाल में समा गए थे तथा सैकड़ों लोग जीवन भर के लिए अपाहिज हो गए थे।
रेलवे कर्मचारियों ने छतों पर यात्रा करने से मना भी किया था
इस घटना के सम्बन्ध में लम्बे समय से पत्रकारिता के क्षेत्र से जुडे रहे मोहन स्वरूप भाटिया ने बताया कि गोवर्धन की परिक्रमा करने के लिए हजारों लोग रेलगाड़ी के डिब्बों की छतों पर बैठकर परिक्रमा के लिए आ रहे थे। पिछले स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो रेलवे कर्मचारियों ने छतों पर यात्रा करने से मना भी किया था। लेकिन किसी ने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया। हर मुड़िया पूनों पर सभी रेलगाड़ियों की छतों पर बैठकर यात्री गोवर्धन परिक्रमा के लिए आते थे। हमेशा पुल से पहले ड्राइवर गाड़ी रोक देता था तथा यात्री उतर कर गोवर्धन जाने के लिए बस या अन्य साधनों से जाते थे।
ड्राइवर जो एक मुसलमान था, वह काफी गुस्से में रेलगाड़ी को रेलवे पुल से तेजी से ले गया
एक अन्य पत्रकार ब्रजगरिमा के सम्पादक विनोद चूडामणि ने बताया कि मैं उस समय पढ़ाई कर रहा था मगर मुझे इस घटना की यादें आज भी मेरे मन मस्तिष्क में स्टष्ट छवि के साथ है कि यात्रियों के न उतरने से रेलगाड़ी का ड्राइवर जो एक मुसलमान था, वह काफी गुस्से में रेलगाड़ी को रेलवे पुल से तेजी से ले गया और राया स्टेशन पार करते ही उसने रेलगाड़ी की रफ्तार एकदम तेज कर दी तथा बहुत तेज गति से पुल के अंदर गाड़ी को घुसा दी जिससे इतना बड़ा हादसा हुआ था।

गाड़ी के डिब्बों की छतें यहां तक कि खिड़की-दरवाजे खून से लाल हो गये
सुबह के सन्नाटे में इस भयंकर दुर्घटना में चीख पुकार की आवाज दूर दूर तक सुनी गयी चारों ओर हा हाकार मच गया। सैकड़ों लोग इस दुर्घटना का शिकार हुए चारों ओर खून ही खून बिखर गया। पूरी गाड़ी के डिब्बों की छतें यहां तक कि खिड़की-दरवाजे खून से लाल हो गये। जो लोग खिड़की के सहारे बैठे थे या दरवाजे पर खड़े थे वह भी खून से सन गये थे। पुल की सड़क भी खून से लाल हो गई। चारों तरफ शरीरों के चिथड़ौं व खून से सड़क पट गई और यमुना का पानी भी कुछ समय के लिये लाल हो गया। उल्लेखनीय है कि पहले इस पुल पर सड़क भी थी रेल और सड़क एक साथ होने के चलते सड़क के ऊपर बस, कार, ट्रक, तांगा आदि सभी वाहन गुजरते थे। कोई अन्य पुल उस समय यमुना पर नहीं था। रेल के गुजरते बक्त सड़क को बंद कर दिया जाता था।
एक रेल हादसा जो अब एक कहानी बन कर रह गई है।
इस भयानक हादसे के बाद न सिर्फ मथुरा के इस पुल की कैंचियों को हटाया गया, बल्कि पूरे देश में जहां-जहां भी पुलों के उपर कैंचियां थी सभी को हटा दिया गया। इस दुखद घटना की याद करके आज भी 70 या 80 वर्षीय लोग जो यमुना किनारे रहते हैं एक कहानी की तरह से सुनाते हैं।
मथुरा से सुनील शर्मा


पहली बार मुड़िया मेला निरस्त होने के बाद भी गुरू शिष्य परम्परा का निर्वहन किया गया।

(सुनील शर्मा)
मथुरा, गोवर्धन। कोरोना महामारी के चलते आस्था और मान्यताएं पूरी नहीं हो सकती, पूरे ब्रज के करीव-करीव सभी मंदिर कोविड-19 के प्रकोप के चलते बंद हैं। जिसमें कि राजकीय मेला पहली बार निरस्त होने के बाद आज रविवार को पुरानी परंपराओं के तहत दो मुड़िया शोभायात्रा निकाली जायेंगी। शोभायात्रा से पूर्व अनुयायियों ने परंपरा का निर्बहन करते हुए सिर का मुंडन कराया और अपने गुरू के प्रति अपनी आस्था और भक्ति का परिचय दिया।

पहली बार इस लक्खी मेला के निरस्त होने के बाद आश्रमों में रोनक कुछ कम देखने को मिली। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के मंदिर के सामने पूज्य सनातन गोस्वामी जी की समाधि स्थल पर अधिवास संकीर्तन का शुभारम्भ किया गया। इसी के साथ शोभायात्रा की शुरूआत हो गयी इस अवसर पर महन्त गोपाल दास ने बताया कि आश्रम के साधु-संतों ने झांझ, मंजीरे, हारमोनियम व ढोलक की लय ताल पर अधिवास कीर्तन शुरू किया। रघुनाथ दास गोस्वामी की गद्दी राधाकुंड के महन्त केशव दास महाराज ने बताया हक पूज्य सनातन गोस्वामी के निकुंज लीला में प्रवेश करने के बाद गुरू भक्ति की याद में मुड़िया पर्व को मनाया जाता है। इसमें राधाकुंड-श्यामकुंड से सनातन गोस्वामी के चिन्हों को लेकर साधु-संत इस शोभायात्रा में नाचते कूदते शामिल होते हैं। और मानसी गंगा और गिरि गोवर्धन की परिक्रमा भी करते हैं।

पौराणिक वर्णनों के अनुसार समूचे ब्रजक्षेत्र में दो वस्तुओं का अस्तित्व आज भी विद्यमान है, इनमें से एक है यमुना नदी और दूसरा है गिरिराज गोवर्धन पर्वत। भगवान श्रीकृष्ण ने कालिया नाग का वध करके यमुना को प्रदूषण से मुक्त कराया था। और गिरिराज गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी अंगुली में छाता की तरह उठाकर इंद्रदेव की अतिवृष्टि से डूबते ब्रजवासियों को बचाया था। भगवान श्रीकृष्ण के समय से आज तक यमुना और गिरिराज पर्वत गोवर्धन करोड़ों भारतीयों की श्रद्धा और आस्था का केंद्र बना हुआ है। संपूर्ण ब्रजभूमि का वैभव यमुना और गोवर्धन पर्वत के कारण ही है। इसी लिये संपूर्ण भारत ही नही पूरे विश्व से आज मथुरा, गोवर्धन, वृन्दावन, बरसाना आदि स्थलों को देखने व भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थली का दर्शन करने प्रतिवर्ष लाखों तीर्थ यात्री यहां आते है। यमुना के जल के आचमन मात्र से मोक्ष प्राप्ति का अटूट विश्वास लोक मानस में है ओर गिरिराज गोवर्धन को साक्षात कृष्ण का ही रूप माना जाता है।

मथुरा से 22 कि.मी. दूर स्थित है प्राचीन तीर्थ स्थल गोवर्धन, गोवर्धन के चारों ओर लगभग 21 किलों मीटर क्षेत्र में गिरिराज गोवर्धन पर्वत श्रृंखला है। इस पर्वत श्रृखंला की तलहटी में बारहों महिने करोड़ों लोगों को परिक्रमा कर गिरिराज गोवर्धन के प्रति अपनी आस्था और भक्ति की अभिव्यक्ति करते देखा जा सकता है। गुरू पूर्णिमा के लोक पर्व मुड़िया पूनौ पर देश के विभिन्न अंचलों से बहुत बड़ी संख्या में यहां भक्त नर-नारी आते हैं। जिनके कारण मुड़िया पूनौ ब्रज का सबसे बड़ा लक्खी मेला माना जाता है।

पहली बार जिला प्रशासन ने लोगों से मथुरा, वृन्दावन व गोवर्धन न आने की अपील करनी पड़ी।

इस वर्ष यह पर्व 5 जुलाई को है मगर इस वर्ष इस मेले को शासन व जिला प्रशासन ने कोविड़ 19 की महामारी के प्रकोप के चलते इस पर रोक लगा दी। जहां प्रति वर्ष प्रशासन इस मेले के लिए मुड़िया पूणिमा मेला में आपका स्वागत है लिखकर स्वागत करता था, वहीं इस बार जिला प्रशासन को जगह-जगह होर्डिंग लगा कर लोगों को गोवर्धन, मथुरा, वृन्दावन न पधारने की गुहार लगानी पड़ रही है।  जिसके कारण लोगों का आना नहीं हो पाया और यह लक्खी मेला इस बार जिला प्रशासन के दिशानिर्देश पर प्रतिबन्धित रहा।

गुरू पूर्णिमा के इस लोक पर्व के रूप में मनाये जाने वाले मेले को मनाये जाने के पीछे भगवान वेदव्यास का जन्म दिवस व चैतन्य महाप्रभु सम्प्रदाय के शिष्य आचार्य सनातन गोस्वामी का आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को निर्वाण और गिरिराज गोवर्धन को साक्षात श्रीकृष्ण का प्रतिरूप माने जाने की अटूट आस्था है। इस आस्था का दर्शन भक्तों द्वारा गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा लगाते समय गाये जाने वाले लोग गीतों से होता है। ऐसे ही एक लोकगीत में गोवर्धन जाने के लिए मन की व्याकुलता गिर्राज जी की परिक्रमा और मानसी गंगा में स्नान की आकांक्षा इस प्रकार व्यक्त करते हैं।
 नांइ माने मेरौं मनुआं मै तो गोवर्धन कूं जाऊ मेरी वीर।
 सात कोस की दे परिक्रम्मा मानसी गंगा नहाऊ मेरी वीर।।

मुड़िया पूनौं के नाम करण के संबंध में कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय के उनके विद्वान शिष्य आचार्य सनातन गोस्वामी से है। जिनका निधन हो जाने पर उनके शिष्यों ने शोक में अपने सिर मुड़वा कर कीर्तन करते हुए मानसी गंगा की परिक्रमा की थी। मुडे हुए सिरों के कारण शिष्य साधुओं को मुड़िया कहा गया और पूनौं (पूर्णिमा) का दिन होने के कारण इस दिन को मुड़िया पूनौं कहा जाने लगा सनातन गोस्वामी और उनके भाई रूप गोस्वामी गौड़ देश प्राचीन बंगाल के शासन हुसैन शाह के दरवार में मंत्री थे। चैतन्य महाप्रभु के भक्ति-सिद्धांतों से प्रभावित होकर वे मंत्री पद छोड़कर वृन्दावन आ गये और यहां उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से दीक्षा प्राप्त की और उनके शिष्य हो गये। चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें यह आदेश दिया कि वे कृष्ण के समय के तीर्थ स्थलों की खोज करें और उनके प्राचीन स्वरूप को प्रदान करें साथ ही श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार-प्रसार करें। चैतन्य महाप्रभु के आदेशानुसार दोनों भाईयों ने ब्रज के वन-उपवन और कुंज निकुंजों में भ्रमण करके भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थलों की खोज करने लगें। वे घर-घर जाकर रोटी की भिक्षा ग्रहण करते और

‘‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।’’ 

महामंत्र का कीर्तन कर कृष्ण भक्ति का प्रचार प्रसार करने लगे। सनातन गोस्वामी भ्रमण करते हुए जब गोवर्धन आये तो उन्होंने मानसी गंगा के किनारे स्थित चकलेश्वर मंदिर के निकट अपनी कुटिया बना ली और वहीं रहने लगे वह नित्य प्रति गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा करते थे। वह नित्य प्रति मानसी गंगा में ही स्नान करते थे। अत्यंत वृद्ध और अशक्त हो जाने पर भी उन्हांने जब इस नियम को नहीं तोड़ा तो कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन देकर गिरिराज पर्वत की एक शिला पर अपने चरण चिन्ह अंकित किए और कहा-बाबा आप इसकी परिक्रमा कर लेंगे तो गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा हो जायेगी।
सनातन गोस्वामी का निधन अब से 466 वर्ष पूर्व संवत् 1611 में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को हुआ था। उनके निधन पर उनके अनुयायियों ने सिर मुड़वाकर चकलेश्वर मंदिर से शोभायात्रा के रूप में निकाली थी वहीं परम्परा आज भी उनके शिष्यों व अनुयासियों द्वारा प्रत्येक वर्ष निकाली जाती है।

ब्रज क्षेत्र में हर मंदिर और आश्रम में लोग अपने-अपने गुरू की पूजा अर्चना करते हैं 

मुडिया पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के रूप में भी जाना जाता है पूरे ब्रज क्षेत्र में हर मंदिर और आश्रम में लोग अपने-अपने गुरू की पूजा अर्चना करते हैं तथा गुरू स्थान की भी पूजा करते है और इस दिन जगह-जगह भंडारे लगे होते हैं जहां श्रृद्धालु प्रसाद ग्रहण करते हैं और पूर्ण भक्ति भाव से आस्था के साथ अपने-अपने गुरू से आर्शीवाद ग्रहण करते हैं। कुछ लोग इस दिन को पवित्र मान कर अपने जीवन को सफल व पूर्व जन्म को सुधारने व भगवत प्राप्ति का मार्ग पाने के लिए गुरू बनाते है और उनकी पूजा अर्चना करते हैं तथा गुरू को उपहार स्वरूप फल वस्त्र आदि भेंट करते हैं। गुरू द्वारा बताये मार्ग पर चलते हुए भजन पूजा शुरू करते हैं।
इस वर्ष यह सभी आयोजनों से भक्तों को कोरोना महामारी के चलते विरत रहना पड़ा। जिला प्रशासन की शक्ति भक्तों की भक्ति पर भारी पड़ी।
सुनील शर्मा, मथुरा