ब्रज की धूलि की क्या महिमा है ?
सम्पूर्ण कामनाओं और श्रीकृष्ण भक्ति को प्राप्त करने के लिए “ब्रज“ रज की प्राप्ति ही मात्र साधन
ब्रज के वन-उपवन, कुन्ज-निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। साहित्य और कलाओं के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है। संगीत, नृत्य एवं अभिनय ब्रज संस्कृति के प्राण बने हैं। ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मन्दिरों, महंतों, महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है। यहाँ सभी सम्प्रदायों की आराधना स्थली है। ब्रज की रज का माहात्मय भक्तों के लिए सर्वोपरि है। सन्त गोस्वामी नरायणभट्ट कहते हैं-‘‘जैसे शास्त्रों में श्रेष्ठ श्रीमद्भागवत श्रीकृष्ण का विग्रह है वैसे ही पृथ्वी लोक में बनों सहित व्रजमण्डल भी श्रीकृष्ण का स्वरुप है।’’ श्रीराधामाधव एवं उनके सखा एवं गोपियों की नित्य लीलाओं को जहां आधार प्राप्त हुआ है उस धाम को रसिकों भक्तों ने ब्रजधाम कहा है। ब्रज की महिमा के बारे में कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है-
ब्रज रज की महिमा अमर, ब्रज रस की है खान,
ब्रज रज माथे पर चढ़े, ब्रज है स्वर्ग समान।
भोली-भाली राधिका, भोले कृष्ण कुमार,
कुंज गलिन खेलत फिरें, ब्रज रज चरण पखार।
ब्रज की रज चंदन बनी, माटी बनी अबीर,
कृष्ण प्रेम रंग घोल के, लिपटे सब ब्रज वीर।
ब्रज की रज भक्ति बनी, ब्रज है कान्हा रूप,
कण-कण में माधव बसे, कृष्ण समान स्वरूप।
राधा ऐसी बावरी, कृष्ण चरण की आस,
छलिया मन ही ले गयो, अब किस पर विश्वास।
ब्रज की रज मखमल बनी, कृष्ण भक्ति का राग,
गिरिराज की परिक्रमा, कृष्ण चरण अनुराग।
वंशीवट यमुना बहे, राधा संग ब्रजधाम,
कृष्ण नाम की लहरियां, निकले आठों याम।
गोकुल की गलियां भलीं, कृष्ण चरणों की थाप,
अपने माथे पर लगा, धन्य भाग भईं आप।
ब्रज की रज माथे लगा, रटे कन्हाई नाम,
जब शरीर प्राणन तजे मिले, कृष्ण का धाम।
वृंदावन भक्ति क्षेत्र है और वृंदावन की रज भी पवित्र है। ब्रज रज को अति आराध्य कहा गया है। इस रज में कीट-पतंग भी प्रवेश करें तो भगवान स्वरूप है। फिर मानव की तो महिमा को क्या कहें। लेकिन तीर्थ का सेवन संयम नियम से करना है। शास्त्र आज्ञा है। अन्य क्षेत्र में किया पाप तीर्थ में समाप्त होता है। लेकिन तीर्थ में किया गया पाप लोहे के कवज जैसा होता है। जो कहीं साफ नहीं होता।
फ़ोटो - गुड्डू गोतमब्रज की धूलि की क्या महिमा है ?
भागवत जी में कहा गया है कि महान आत्मा के चरणों की धूल में नहाए बिना, कोई भी अन्य माध्यम से भगवान को जानने की उम्मीद नहीं कर सकता है। वृंदावन की विशेषता यह है कि यहां न केवल राधा और कृष्ण के चरणों की धूल आज भी मौजूद है। साथ ही प्रति वर्ष यहां लाखों तीर्थ यात्री आते हैं सभी भक्तों के नंगे पैरों के स्पर्श से यहां की जमीन भी पवित्र बन जाती हैं, क्योंकि वे यहां के सभी मंदिरों में जाते हैं और पवित्र भूमि की परिक्रमा भी करते हैं। यह ऐसा है मानो उनकी पूरी आध्यात्मिक ऊर्जा उनके पैरों के माध्यम से धूल के रूप में चली गई हो। भक्ति जितनी अधिक होती है, उतनी ही अधिक ऊर्जा उस जमीन में प्रवाहित होती है।
’वृंदावन के ’धूलोट’ उत्सव का महत्व क्या है’
महोत्सव यानी ब्रज की पवित्र धूल ’ब्रज रज’ में लोटने का पर्व। ब्रज रज की वंदना वृंदावन के दिव्य युगल की भक्ति और उनकी कृपा पाने की शुरुआत करना है। आपको ब्रज रज की महिमा को जानने के लिए पहले श्री राधा कृष्ण को जानना होगा।
फ़ोटो - गुड्डू गोतमब्रज रज का इतिहास और उसकी महत्ता
ब्रज की माँटी को ब्रज रज कहा जाता है। यूं तो माँटी को मिट्टी, बालू, इत्यादि भी कहा जाता है परन्तु ब्रज की माँटी को विशेषकर धार्मिक आस्था और परंपरा के अनुसार ब्रज रज कहते हैं। ब्रज रज से लोग तिलक लगाते हैं तथा हवन आदि में भी ब्रज रज का उपयोग किया जाता हैं। जिसे भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी की लीला भूमि की माँटी भी कहा जाता है। धार्मिक आस्थावान लोग इसे बहुत ही पवित्र मान कर इसे माथे पर लगाते है।इतिहासकारों के अनुसार ब्रज के तीन अर्थ बतलाये गये हैं - (गायों का खिरक), मार्ग और वृंद (झुंड) - सामान्यतः व्रज का अर्थ गोष्ठ किया है। गोष्ठ के दो प्रकार हैं - खिरक वह स्थान जहाँ गायें, बैल, बछड़े आदि को बाँधा जाता है। गोचर भूमि- जहाँ गायें चरती हैं। इन सब से भी गायों के स्थान का ही बोध होता है।
इस कारण इस भूमण्डल को ब्रज मण्डल कहा गया है। यमुना को विरजा भी कहते हैं। विरजा का क्षेत्र होने से मथुरा मंडल विरजा या व्रज कहा जाने लगा। महाभारत के युद्धोपरांत जब द्वारका नष्ट हो गई, तब श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्र (वज्रनाभ) मथुरा के राजा हुए थे। उनके नाम पर मथुरा मंडल भी वज्र प्रदेश या व्रज प्रदेश कहा जाने लगा।
कुल मिलाकर वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध गायों से रहा है। चाहे वह गायों के बाँधने का बाड़ा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर- भूमि हो और चाहे गोप- बस्ती हो। भागवत वक्ताओं की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और ब्रज समानार्थक शब्द हैं। भागवत के आधार पर सूरदास आदि कवियों की रचनाओं में भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्रागैतिहासिक काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चरागाहों, सुंदर गोष्ठों ओर दुधारू गायों के लिए प्रसिद्ध रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म यद्यपि मथुरा में हुआ था, उनका शैशव एवं बाल्यकाल गोपराज नंद और उनकी पत्नी यशोदा के लालन-पालन में बीता था। उनका सान्निध्य गोपों, गोपियों एवं गो-धन के साथ रहा था। वस्तुतः वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध अधिकतर गायों से रहा है। चाहे वह गायों के चरने की गोचर भूमि हो चाहे उन्हें बाँधने का खिरक (बाड़ा) हो, चाहे गोशाला हो, और चाहे गोप-बस्ती हो।
दक्षिण भारत से एक समय एक कृष्ण भक्त वैष्णव साधु वृंदावन की यात्रा के लिए आए थे। एक बार वे गोवर्धन (गिरिराज) की परिक्रमा के लिए गए। हाथ में करमाला लेकर जप करते हुए परिक्रमा मार्ग पर मंद गति से चल रहे थे। दोपहर हो गई। बाबा की भिक्षा शेष थी, परंतु परिक्रमा मार्ग पर भिक्षा मिलना संभव नहीं है, यह मानकर वे चलते रहे।’
थोड़ी देर तक इस प्रकार चलने के बाद सामने से आती हुई एक किसान स्त्री दिखाई दी। वह अपने घर से खेत में जा रही थी। उसके सिर पर टोकरी में भोजन था। दोपहर का समय है, और बाबा भूखे होंगे, यह सोचकर उसने बाबा से पूछा कि बाबा भोजन पाओगे (करेंगे) ? दोपहर का समय था, बाबा को भूख भी लगी थी और यह भोजन तो अनायास ही सामने आया जानकर बाबा ने भोजन के निमंत्रण को स्वीकार किया।
उस स्त्री ने खाद्य सामग्री से भरा टोकरा सिर से उतार कर नीचे रखा। गेहूं की रोटी, सब्जी और दाल इत्यादि से टोकरा पूरा भरा हुआ था। सारी सामग्री एक कपड़े से ढकी हुई थी। उस कपड़े पर उस स्त्री ने अपनी चप्पले रखी हुंई थी। यह गांव की औरतों की आदत होती है कि कई बार वे अपनी चप्पले सिर पर रखे टोकरे में रख देती है, और खुद नंगे पैर चलती है। इस स्त्री ने भी अपनी चप्पले भोजन के टोकरे पर ही रखी हुईं थीं।
बाबा जी की स्वीकृति पाकर चप्पले नीचे रखकर उसने भोजन पर ढका हुआ कपड़े का टुकड़ा हटाया और भोजन परोसने की तैयारी करने लगी। यह देखकर वैष्णव संस्कार में पले बढ़े साधु महाराज चौंक उठे, उन्होंने लगभग गर्जना करते हुए कहा कि ‘‘अरे तुमने अपनी धूल से सनी जूतियां भोजन पर रखी हैं’’। और ऐसा अशुद्ध भोजन मुझे दे रही हो? क्या ऐसा धूल वाला भोजन हम ग्रहण करें ? तुममें तो बिलकुल भी अक्ल नही है। तुम्हारी ऐसी धूल वाली गंदी जूतियों ने भोजन अशुद्ध कर दिया है। रखो अपना भोजन अपने पास। अप्रसन्न साधु भोजन का त्याग करके चल दिए, परंतु वह बृजवासी स्त्री तनिक भी विचलित नहीं हुई और मुस्कुराने लगी।
बृज नारी देवी ने बाबा को मर्म वेदी उत्तर दिया कि ‘‘अरे ! तेरे को बाबा किसने बनाया? तू सच्चा बाबा नहीं है। अरे यह धूल नहीं है, यह तो ब्रजरज है। यह ब्रजरज तो राधा- कृष्ण की चरणरज है। ब्रजरज को कौन धूल कहता है? तू बाबा बना है और तुझे इतना भी मालूम नहीं है ? साधु बाबा को ब्रज का मर्म मानो बिंद गया हो। एक भोली भाली अनपढ़ किसान स्त्री के द्वारा कहे गये सही शब्द साधु बाबा के दिल पर उतर गए।
इस सीधी-सादी ब्रजनारी के ऐसे प्रेमयुक्त कथन सुनकर साधु बाबा की आंखों में से सावन भादां की बरसात होने लगी। चेहरा कृष्ण प्रेम से भाव विभोर हो गया। शरीर कांपने लगा। साधु महाराज हाथ जोड़कर अपने अपराध के लिए क्षमा मांगने लगे। कहने लगे कि मईया मुझसे गलती हो गई, मैया मुझे क्षमा कर दे। सच बताया, कि यह धूल नहीं है। यह तो ब्रजरज है, राधा कृष्ण की चरणरज है। तुमने मेरी आंखें खोल दी। मैया, मुझे क्षमा कर दो। बाबा ने बार-बार उस बृजवासी महिला को साष्टांग प्रणाम किया, और फूट-फूट कर रोते हुए व्रज की रज को बार बार अपने शरीर पर मलने लगे।
बाबा की यह दशा देखकर उन्हें आश्वासन देते हुए उसने कहा कि ‘‘अरे कोई बात नहीं बाबा। हमारी राधारानी बहुत बड़े दिलवाली हैं। वह सबको माफ करती रहती है। इतना शोक मत करो। यह कहकर उसने साधु बाबा को भोजन परोस दिया। बाबा ‘‘राधे कृष्ण ‘‘राधे कृष्ण” बोलते हुए भोजन को पा लिया और गोवर्धन की वह गोपी अपने खेत की ओर चली गयी।
“ब्रज रज” : ब्रज की मिट्टी को रज क्यों बोला गया है ??
सम्पूर्ण कामनाओं और श्रीकृष्ण भक्ति को प्राप्त करने के लिए “ब्रज” रज ही है।
भगवान ने बाल्यकाल में यहाँ अनेकां लीलाएं की हैं ! उन सभी लीलाओं का प्रत्यक्ष द्रष्टा है श्री गोवर्धन पर्वत, श्री यमुना जी और यहाँ की “रज”। यहाँ की मिट्टी को रज बोला गया है इसके पीछे जो कारण है वह यह कि भगवान ने इसको खाया और माता यशोदा के डाँटने पर इस मिट्टी को उगल भी दिया था। इसके पीछे बहुत कारण हैं जिनमें सबसे मुख्य इसको अपना प्रसादी बना देना था क्योंकि ऐसा कोई प्रसाद नहीं जो जन्म जन्मांतर यथावत बना रहे इसीलिए भगवान ने ब्रजवासियों को ऐसा प्रसाद दिया जो न तो कभी दूषित होगा और न ही इसका कभी अंत होगा।
भगवान श्री कृष्ण ने अपने “ब्रज“ यानि अपने निज गोलोक धाम में समस्त तीर्थों को स्थापित कर दिया चूँकि जहाँ परिपूर्णतम ब्रह्म स्वयं वास करें वहां समस्त तीर्थ स्वतः ही आने की इच्छा रखते हों, लेकिन बृजवासियों को किसी प्रकार का भ्रम न हो इसके लिए भगवान ने उनके सामने ही समस्त तीर्थ स्थानो को सूक्ष्म रूप में यहाँ स्थापित किया था।
श्रीकृष्ण का मानना था कि केवल ब्रजवासियों को ही ये उत्तम रस प्राप्त है क्योंकि इनके रूप में मैं स्वयं विद्यमान हूँ ये मेरी अपनी निजी प्रकृति से ही प्रगट हैं, अन्य जीव मात्र में मैं आत्मा रूप में विराजित हूँ लेकिन ब्रजजनों का और मेरा स्वरुप तो एक ही है, इनका हर एक कर्म मेरी ही लीला है, इसमें कोई संशय नहीं समझना चाहिए।
माता यशोदा को तीर्थाटन की जब इच्छा हुई तो भगवान ने चारों धाम यहाँ संकल्प मात्र से ही प्रगट कर दिए थे। यहाँ रहकर जीव की जन्म और मृत्यु मात्र लीला है मेरा पार्षद मेरे ही निज धाम को प्राप्त होता है इसलिए संस्कार का भी यहाँ कोई महत्त्व नहीं ऐसी प्रभु वाणी में है !
यहाँ जन्म और मृत्यु दोनों मेरी कृपा के द्वारा ही जीव को प्राप्त होते है एवं प्रत्येक जीव मात्र जो यहाँ निवास करता है वह नित्य मुक्त है। उसकी मुक्ति के उपाय के लिए किये गए कर्मो का महत्त्व कुछ नहीं है। मेरे इस परम धाम को प्राप्त करने के लिए समस्त ब्रह्मांड में अनेकों ऋषि, मुनि, गन्धर्व, यक्ष, प्रजापति, देवतागण, नागलोक के समस्त प्राणी निरंतर मुझे भजते हैं लेकिन फिर भी उनको इसकी प्राप्ति इतनी सहज नहीं है।
मेरी चरण रज ही इस ब्रज (गोलोक धाम) की रज है जिसमें मेरी लीलाओं का दर्शन है।
राधाकुण्ड के भजनानन्द साधु अनाथ बन्धुदास ने इस सम्बन्ध में बताया कि जेष्ठ माह में कृष्ण पक्ष की एकादशी को माँ जह्नवा जब ब्रज में अपने शिष्यों के साथ आगमन हुआ था और उन्होंने यहां जीव गोस्वामी पाद से मिल कर वह कामा काम्यवन में भी गयीं थी वहां वह गोपीनाथ जी के मंदिर के श्रीविग्रह को माला पहनाने गयीं थीं, उस समय मंदिर के पट बन्द हो गये थे बाद में देखा गया कि राधारानी को दायें तरफ करके वह स्वयं वायें तरफ में खड़ी हैं यह चमत्कार लोगों ने उस समय देखा था। माँ जहनवा के गोपीनाथ से यह परम्परा चली आ रही है एकादशी को भक्त लोग कुण्ड की परिक्रमा करके कीर्तन, आरती के पश्चात धूलोट उत्सव शुरू करते हैं।
महाप्रभु जी का उस समय का एक पद है
नाचिते न जानी तबहु नाचिया गौरांग बोली।
गाइते न जानी तबहु गायी, सुखे थाकी,
दुःखेते थाकी हा गौरांग, ऐई भाव ही निरन्तर चाही।
ऐई तो ब्रजेर धूला रे भाई ऐई तो ब्रजेर धूला।
ऐई धूला मेखे छीलो नन्देर बेटा कानू,
गाय तो माखो रे भाई ऐई ब्रजेर धूला।।
उन्होंने कहा कि यह कोई सामान्य धूल नही है यह ब्रज की गोपियों और राधारानी का स्थान है यह राधा की पद रेनु है। धूला उत्सव एक परम्परा है कृष्ण जब बाल्य काल में इस रज में लोट पोट हुए, यहां पर राधारानी के चरणों की धूल भी है।
इस धूलोट उत्सव में हम लोग भी अपने जीवन को धन्य करने के लिए इस ब्रज रज में लोट लगाते हैं। सबसे पहले गुरूजनों को यह रज लगाकर फिर हम सभी इसमें लोटते हैं कीर्तन करते हैं यह परम्परा सदियों से इसी प्रकार से चली आ रही है जिसे हम धूलोट उत्सव के रूप में मनाते हैं।
इसी प्रकार वृन्दावन भागवत निवास के महन्त श्री युगल चरण दास ने धूलोट उत्सव के विषय में बताते हुए कहा कि धूल्ट उत्सव माँ जह्नवा के आगमन के साथ शुरू हो गया था नित्यानन्द प्रभु जब ब्रज में पधारे थे तब उन्होंने कामा स्थित गोपीनाथ मंदिर की स्थापना के वाद में उन्होंने ब्रज में वास किया था इसी उपलक्ष्य में धूलोट उत्सव को मनाया जाता है यह करीब 9 वीं या 10 वीं सदी की वात है, जब माँ जह्नवा का आगमन ब्रज में हुआ था उस समय को उत्सव के रूप में मनाया जाता है। जिसमें संकीर्तन, भण्डारा आदि का आयोजन भी किया जाता है।
धूलोट उत्सव क्यों मनाया जाता है
ब्रज की धूल कोई साधारण धूल नही है इसे ब्रहमा आदि ने भी अपने शरीर पर धारण किया था। भगवान श्रीकृष्ण ने जब उद्धव जी को ब्रज में भेजा था तब उन्होंने भी यही कामना की थी कि मेरा भी इसी भूमि में, और इसी धूली में जन्म हो, ऐसी कृपा प्रभु मुझ पर करें। षिव जी भी इस धूल को अपने माथे पर लगाते हैं और आज भी वृन्दावन में गोपेश्वर महादेव के रूप में विराजमान हैं। इन्हीं परम्पराओं के साथ आचार्यों की परम्पराओं और भागवत परम्पराओं को लेकर ही हम लोग धूलोट उत्सव मनाते हैं इस भूमि की इस धूलि में लोट पोट होना ब्रज की रज को अपने उपर लपेटना होता है क्यों कि हमारा जन्म भी रज से ही हुआ है इसी रज से सभी प्रकार के अन्न की उत्पत्ति होती है और उसी से वीर्य बनता है और उसी से जीव मात्र की उत्पत्ति होती है। और अन्त में हमें इसी रज में ही मिल जाना है तीन तरह की गति होती है जला दिया जाता है, जल में वहा दिया जाता है, या जमीन में समाधि दी जाती है तीनों ही स्थिति में रज में ही मिलना होता है चाहें यमुनाजी या गंगा जी में भी रज ही मिलेगी कुल मिला कर रज में ही मिल जाना है।
फ़ोटो - गुड्डू गोतमउन्होंने बताया कि यह धूलट उत्सव जेष्ठ माह में कृष्ण पक्ष की एकादशी को शुरू होता है और तीन दिनों तक चलता है यह आयोजन विशेष कर राधाकुण्ड में मनाया जाता है क्यों कि माँ जह्नवा का आगमन इसी समय हुआ था। माँ जह्नवा नित्यानन्द प्रभु की आदि शक्ति हैं शक्ति स्वरूपा हैं नित्यानन्द प्रभु के पारायण करने के उपरान्त वह ब्रज में अपने शिष्यों के साथ आयीं थीं। तब गोडीय सम्प्रदाय के षठ गोस्वामी पाद आचार्यों ने यह उत्सव को शुरू किया था।
फ़ोटो - गुड्डू गोतमयह उत्सव वृन्दावन स्थित भागवत निवास में भी मनाया जाता है रघुनाथ गोस्वामी पाद को चैतन्य महाप्रभु ने एक गिर्राज शिला जो कि उनकी सेवा में थी को जगन्नाथकुटी के गम्भीरा में उनको दी थी गोस्वामी पाद नियमित उसकी सेवा पूजा करते थे, भाव विभोर होकर सेवा करते समय वह अपने अंगूठे के उपर गिर्राज शिला को रख कर जल प्रदान करते थे। जिसके कारण गोस्वामी पाद का अंगूठा ही गिर्राज शिला में समा गया था आज भी वह दिव्य गिर्राज शिला भागवत निवास में पूजित है लगभग 500 वर्षों पूर्व के गिर्राज जी यहां सेवित हैं जिन्हें गिरेन्द्र बिहारी जी के नाम से जाना जाता है जिसकी अनवरत सेवा पूजा यहां चल रही है।
उन्होंने बताया कि नित्यानन्द प्रभु के ब्रज में आगमन के पश्चात माँ जह्नवा का जब ब्रज में आगमन हुआ था उस समय को धूलोट उत्सव के रूप में मनाया जाता है स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गोचारण लीला करने जाते थे उस समय कृष्ण बलराम के शरीर पर यह धूली यह रज गायों के खुरों के माध्यम से उड़ कर उनके शरीर को स्पर्श करती है यानी लिपट जाती है।
इसको लेकर एक सुन्दर भाव प्रकट करते हुए बताया कि राधारानी कह रही हैं कि वह सब समय कृष्ण से नहीं मिल पाती हैं क्यों कि माता पिता हैं, गुरूजन हैं, भाई बन्धु हैं, हर समय श्रीकृष्ण से मिल पाना सम्भव नही हो पाता है तो वह ललिता सखी से कहती हैं कि ‘‘है ललिते सखी मैं क्यों न भई ब्रज की धूल, होती यदि ब्रज की धूल तो, लिपटती श्याम सुन्दर के अंग सों, न रहती लोक लाज, न रहती कुल की मर्यादा’’ गौ खुरों से स्पर्श करके श्याम के अंग से लिपट जाती, मुख मण्डल से लिपट जाती, उनकी अलकावली में भी लिपट जाती, इसके पीछे गहरा भाव छिपा है।
हम सब इसी रज के जरिये मुक्ति को प्राप्त करते हैं यह भजन साधना राधारानी के ब्रज की रज को प्राप्ति का माध्यम है, प्रिया प्रियतम की कृपा हमें मिले भगवत प्राप्ति हमें मिले, राधारानी की कृपा प्राप्ति के लिए ब्रज रज की प्राप्ति हो, यही कामना के साथ धूलोट उत्सव मनाया जाता है।
जय जय ब्रज रज, जय जय श्री राधे
प्रस्तुति - सुनील शर्मा, मथुरा।
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