सोमवार, 1 अगस्त 2011

‘‘ब्रज और गोपिन के रखबारे गिरिराज हमारे’’

मथुरा से सुनील शर्मा

यह गोवर्धन पूजा किसने की ?
जिसने इन्द्र लोक को भयशून्य बनाया, सिसने उस पूतना का वध किया, तृणावर्त का मर्दन किया, जोड़वाँ अर्जुन के वक्षों को जड़ से उखाड़ दिया, धेनुकासुर का वध किया, कालियानाग का दमन किया, धेनुकासुर एवं प्रलम्बासुर का विनाश किया और दो बार दावागिं का पान किया उसी ने यह पूजा शुरू की है।

‘‘ब्रज और गोपिन के रखबारे गिरिराज हमारे’’
(सुनील शर्मा)
दीपावली के पाँच पर्व जिसमें धनतेरस, नरक चौदस,दीपावली, गोवर्धन पूजा और यम द्वितीया का पर्व तो घर घर में मनाये जाते हैं। लेकिन ब्रजभूमि में गोर्वधन पूजा पर्व का सर्वाधिक महत्व माना जाता है ब्रज में दीपावली से अधिक गोवर्धन पूजा के दिन साज सज्जा की जाती है। जगह-जगह सार्वजनिक स्थानों पर बडे़ बडे़ गोवर्धन बनाये जाते हैं। साथही यह परम्परा हर घर में भी निभाई जाती है। इस लिये दीपावली को जहां दुलहन के रूप में कल्पना की गई है वहीं गिरिराज गोवर्धन को वर के रूप में चित्रित किया गया है।
‘‘गिरिराज बन्यों दूल्है और दुल्हन दिवारी है’’।
गिरिराज गोवर्धन की महत्ता का कारण है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र का दर्प दमन कर गिरिराज गोवर्धन पर्वत को अपनी कन्नी अंगुली पर छत्र की तरह धारण किया था और गिरिराज गोवर्धन की पूजा प्रारम्भ की उसी परम्परा में आज भी दीपावली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा का पर्व श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार पहले ब्रज में इन्द्र की पूजा प्रचलित थी और समस्त ब्रजवासी उसकी पूजा किया करते थे। बाल गोपाल श्री कृष्ण के कहने पर ब्रजवासियों ने इन्द्र की पूजा छोड़कर गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी थी इससे इन्द्र कुपित हो गया और उसने समूचे ब्रजवासियों को अपनी पूजा करने को कहा अन्यथा नाश कर देने की बात कही इन्द्र की इस घोषणा से घबराये ब्रजवासियों से गोपाल ने कहा कि भय और आतंक की पूजा न करके प्रेम की पूजा करो, जिसकी वजह से हमारी फसलें हमारे पशुधन, हमारा सर्वस्व नष्ट हो जाएं तो उसकी पूजा क्यों की जाये।
गोपाल की यह बात ब्रजवासियों को समझ में आ गई और उन्होंने गोपाल के कहने पर गिरिराज गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे सारा ब्रज गिरिराज की गोद में समा गया हो।
इससे इन्द्र का कोप और बढ़ गया आकाश में नगाड़े बजने लगे, उसने गोवर्धन के उपासकों को नष्ट भ्रष्ट करने की ठान ली, प्रलयकारी वज्र कड़कने लगे ब्रज के ऊपर गरजने लगे। घनघोर घटाओं ने दिन को रात में बदल दिया। मेघों की गर्जना से ब्रज में आतंक की आंधी आ गई। बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी होने लगे। गऊएं रक्षा के लिए पुकारने लगीं। बाल-गोपाल, नर-नारी आंखे मंूद कर अपने अंतिम क्षणों की प्रतीक्षा करने लगे। उस समय सभी लोग ‘‘हे-गोपाल, हे गोपाल’’ जपने लगे। माता यशोदा का हृदय भी फटने जैसा होने लगा। सभी लोग उस समय गोपाल की ओर टकटकी लगाए निरीह भाव से देखने लगे।
पलभर में निहत्था गोपाल उठकर खड़ा हो गया। यकायक धरती कांपने लगी लोग गिरने, पड़ने लगे, पर्वत ऊपर उठने लगा। जैकारा लगा ‘‘गिरिराज धरण की जय’’। कान्हा की नन्हीं सी अंगुली पर गिरिराज पर्वत था। इस घड़ी की तो प्रतीक्षा सभी को थी। युग-युग का संकल्प पूरा हुआ। देवकी गर्म-संभूत यशोदा नंदन ने गिरिराज को छत्र की तरह धारण कर लिया और इन्द्र के कोप से ब्रज-वसुन्धरा को जल प्लावन से बचा लिया।
गोवर्धन पूजा के दिन ब्र्रज के प्रत्येक घर में अन्नकूट का आयोजन किया जाता है। बल्लभकुल सम्प्रदाय के मंदिरों में अन्नकूट को अत्यन्त वृहद और भव्य रूप में मनाने की परम्परा है। इसकी तैयारियां विजया दशमी के दिन से प्रारंभ हो जाती है। 21 दिनों तक लगातार अनेकों स्वादिष्ट व्यंजन बना कर तैयार कर लिये जाते हैं और इस दिन गिरिराज महाराज का छप्पनों व्यंजनों से भोग लगाया जाता है। बाद में इस प्रसाद को भक्तों में वितरित भी किया जाता है।
प्रत्येक पूर्णिमा और गुरूपूर्णिमा पर लाखों भक्त देश विदेश से यहां आकर अपना मनोरथ पुरा करते हैं। सात कोस के इस परिक्रमा मार्ग में कैसे दस पन्द्रह लाख लोग अटते खटते है यह गिरिराज ही जानें नंगे पाँव, दंडौती लगाकर अपनी अपनी सामर्थ के अनुसार परिक्रमा को पूरा करते हैं। हर जगह हर पगडन्ड़ी हर पुल पुलिया, सात कोस की परिक्रमा मार्ग में इंच इंच भूमि गिरिराज मयी हो जाती है। पैर सूज जाते हैं फफोले पड़ जाते हैं परन्तु तीव्र गति लिये लोग अपनी परिक्रमा को पूरा करते हैं। भूख प्यास का भी ख्याल तक नहीं रहता है परिक्रमा पूरी करने पर ही कुछ देखा जायेगा। ऐसा भाव, इतनी आस्था का भाव लिये बस अपनी अपनी परिक्रमा पूरी करने की इच्छा सबको रहती है।
‘‘सवै भूमि गोपाल की आमें अटक कहां
जाके मन में अटक है सोई अटक जाय’’
महाप्रभु बल्लभाचार्य ने गोवर्धन धारी श्रीनाथ जी के विग्रह को अपना आराध्य बनाया चैतन्य महाप्रभु और उनके पार्षद रूप जीव और सनातन गोस्वामियों ने बंगाल से यहां तक का फासला भाव विहवल होकर नाचते गाते पूरा किया था। चंड़ीदास और मैथिल कोकिल विम्वापति को भी इसी भाव ने मोहित किया। जयदेव की बासुरी भी इसी भाव में घुली मिली। इस ब्रज भाव ने रसखान जैसे विजातीय को भी श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त बना दिया। सूरदास सहित अष्ट छाप कवियों ने अपनी अष्टवीणा वादन से भगवान की स्तुति की उसके स्वर विदेशों तक में गूँजे। अहिन्दी भाषी विद्वान आज भी ब्रज साहित्य पर शोध करने के लिए यहां आते हैं। उर्दू
लेखक शायरों ने भी इसी भाव से लहरें ली हैं। अंग्रेज कलक्टर एफ.एस.ग्राउज ने भी समूचा ब्रज खंगाल ड़ाला था।

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