सोमवार, 1 अगस्त 2011

ताज महल सात लाख रुपयों में नीलाम हुआ था मथुरा के सेठ ने खरीदा था

मथुरा (सुनील शर्मा) विश्व प्रसिद्ध व शाहजांह व मुमताज के प्रेम की निशानी ताज महल की नीलामी सात लाख रुपयों में की गई थी। मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन ने इसे खरीदा था। तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने अपने शासन काल में आगरा के अनेक ऐतिहासिक स्मारकों को बेचा था। मुगल सम्राट शाहजांह ने अपनी बेगम की याद में जिस नायाब इमारत को ताजमहल के रूप में बनवाया था। वह मुगल सलतनत के कमजोर पड़ते ही अंग्रेज हुकुमत के हाथों नीलाम भी हुआ।
मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन ने खरीदा था
इतिहास गवाह है कि सन् 1803 से ईस्ट इण्डिया कंपनी ने आगरा पर अपना अधिकार जमा लिया था। पूरे देश में अंग्रेज कंपनी का शासन जम चुका था। अनेक राज घराने सेठ साहूकार अंग्रेजों के कृपा पात्र बन चुके थे। उसी समय मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन जो बड़े प्रतापी, प्रभावशाली, उदार, धार्मिक और व्यवसाय में निपुण थे। उस समय अनेक छोटे बड़े अंग्रेज अफसर सेठ जी का सम्मान करते थे। मथुरा नगर और आस-पास में सेठ लक्ष्मी चंद जैन का एक छत्र शासन था। इसके कारण अंग्रेज सरकार सेठ जी पर विश्वास करती थी। अंग्रेज सरकार ने इनके परिवार को अनेक उपाधियों से विभूषित किया था। स्वयं वायस राय लार्ड कर्जन ने एक बार मथुरा पधारकर इनका आतिथ्य स्वीकार किया था। सन् 1815 में गर्वनर जनरल लार्ड एलगिन आगरा आए, उनके दरबार में पधारने वाले राजाओं के अलावा मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन भी मौजूद थे।
अंग्रेजों ने अनेक स्मारक किये थे नीलाम
अंग्रेज सरकार ने अपने शासन काल में आगरा के अनेक ऐतिहासिक स्मारकों को बेचना शुरू कर दिया था। उस समय सिकंदरा रोड़ के उत्तर में खंदारी बाग के पीछे एक स्मारक था। वह भारतीय रंग में रंगे फारसी कवि अबुलफजल फैजी अकबर के काल को चित्रित करने वाले इतिहासकार और शिक्षा शास्त्री के पिता शेख मुबारक का स्मारक था। उसको मथुरा के सेठ लक्ष्मी चंद जैन को बेचा गया। इसी प्रकार मिर्जा गालिब की हवेली जो काला महल के रूप में जानी जाती थी। जहां मिर्जा गालिब का जन्म हुआ था। पीपल मण्डी में स्थित वह हवेली भी अंग्रेजों ने सेठ लक्ष्मीचंद जैन को बेच दी थी। अंग्रेजों ने यमुना नदी के किनारे बनी दारा की हवेली तथा औरंगजेब की हवेली समेत तमाम स्मारकों को उस समय नीलाम किया था। आगरा किले के निकट मच्छी भवन के आस-पास के संगमरमर के पत्थर भारी मात्रा में नीलाम करके बेचे गये थे। उन दिनों ज्योति प्रसाद जी ने भी आगरा की कई इमारतों को अंग्रेजों से खरीदा था। इसी दौरान ताज महल की नीलामी भी की गई। ताज महल की नीलामी के लिये उस समय अंग्रेज शासन की राजधानी रही कलकत्ता से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक जानबुल में 26 जुलाई 1831 के अंक में ताजमहल को बेचने की एक विज्ञप्ति प्रकाशित की गई थी। ताज महल की नीलामी के लिये बोली लगाई गई थी। उस नीलामी को सात लाख रुपयों में मथुरा के सेठ लक्ष्मीचंद जैन ने खरीद लिया था। जिसके बाद ताजमहल का स्वामित्व सेठ लक्ष्मीचद जैन का हो गया था। लेकिन कुछ समय बाद एक अंग्रेज अफसर ने उस नीलामी को निरस्त कर दिया था। इस प्रकार ताज महल के पुराने मान चित्र तथा नक्काशीदार पत्थरों को लार्ड विलियम बैन्टिंग ने नीलाम करके बेच दिये थे। कुछ पत्थरों को लार्ड हैस्टिंग ने इंग्लैण्ड भी भेजा था।
लक्ष्मीचन्द जैन के वंसज मथुरा में रहते हैं
आज भी सेठ लक्ष्मीचंद जैन के वंसज मथुरा में रहते हैं। सेठ लक्ष्मी चंद जैन ने मथुरा में स्थित चौरासी में जम्बूस्वामी का जैन मंदिर का निर्माण कराया तथा चौरासी के जैन मंदिर में भगवान अजित नाथ की विशाल प्रतिमा को ग्वालियर से लाकर मंदिर में प्रतिष्ठा कराई थी। जैन होते हुए भी सेठ लक्ष्मी चंद जैन ने अनेक धर्मों के मंदिरों मस्जिदों व चर्चो को बनवाने में सहयोग किया था। द्वारकाधीश का सुप्रसिद्ध मंदिर एवं वृंदावन स्थित रंगजी के विशाल मंदिर का निर्माण भी उन्हीं के द्वारा कराया गया था। मथुरा में स्थित ईदगाह के निर्माण जीर्णोद्धार व मथुरा में ही स्थित एक चर्च के निर्माण में सहयोग के लिये सेठ लक्ष्मीचंद जैन को आज भी याद किया जाता है। आज उन्हीं के वंशज सेठ विजय कुमार जैन जम्बूस्वामी सिद्ध क्षेत्र चौरासी के अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। तथा मथुरा में रहकर समाज सेवा के कार्य में लगे है।
हिन्दू सेठ के कारण ताजमहल अपने स्थान पर शान से खड़ा है
बता दें कि ताज महल की नीलामी अंग्रेजों ने दो बार सन 1831 में की थी, इन नीलामियों की शर्त थी की ताजमहल के सुन्दर पत्थरों को निकाल कर अंग्रेजी सरकार के हवाले खरीदने वाले को करना होगा। उस दौरान सेठ लख्मीचंद, जो की मथुरा जिले से थे ने सबसे बड़ी बोली लगाई थी और ताजमहल को खरीद लिया था इसलिए ही ताजमहल अपने देश में आज भी शान से खड़ा है तो एक हिन्दू सेठ के कारण अन्यथा ताजमहल किस दुर्दशा में होता उसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं। बंगाल के तत्कालीन गवर्नर लार्ड बेंटिक की नजर में ताज महल को लेकर कई प्रकार के विचार लगतार चल रहें थे, अंततः उन्होंने सोचा की क्यों न ताज महल की नीलामी करा दी जाए और इसके सुंदर पत्थरो को निकलवा लिया जाए, बाद में इन पत्थरों को बेच कर रानी विक्टोरिया का खजाना भरा जाए। इस विचार को लेकर उस गवर्नर ने अपनी योजना बनाई और नीलामी की घोषणा कर दी।
सेठ लक्ष्मी चन्द को हिन्दू और मुसलमानों का विरोध झेलना पड़ा था
नीलामी में मथुरा के सेठ लख्मीचंद ने सबसे ज्यादा बोली लगा कर ताज महल को सशर्त 1.5 लाख रूपए में खरीद लिया था। परन्तु जब सेठ जी ताजमहल पर अपना कब्जा लेने के लिए पहुंचे तो जनता में उनके लिए विरोध शुरू हो गया, हिन्दू और मुस्लिम एक हो गए थे। इन लोगों का कहना था की ताजमहल को बनाने वाले लोगों के लिए शाहजहां ने कई कटरो का निर्माण किया था, हम लोग अपने ताजमहल के पत्थरों को अंग्रजो को नहीं देने देंगे। सेठ जी ने लोगों की इन बातो को ध्यान से सुना और इन सभी बातो पर विचार किया तथा अंत में लोगों की भावनाओं की कद्र करते हुए उन्होंने ताजमहल को खरीदने का विचार त्याग दिया था।
दो दिन चली नीलामी में पुःन लक्ष्मी चन्द ने खरीद लिया था
इस घटना से लार्ड विलियम बैन्टिक बहुत नाराज हो गया था उसने फिर कोलकाता के एक अंग्रेजी अखबार में 26 जुलाई 1931 को ताज महल को बेचे का विज्ञापन छपवाया। यह नीलामी लगातार दो दिन तक चली और इस नीलामी में राजस्थान के शाही परिवार और मथुरा के सेठ ने भी भाग लिया, इस नीलामी के दूसरे दिन अंग्रजों ने भी भाग लिया परंतु फिर भी यह नीलामी मथुरा के सेठ लख्मीचंद के नाम ही रही। उन्होंने इस बार ताजमहल को 7 लाख रूपए में खरीद लिया था। इसके बाद परेशानी फिर से वही सामने आई, ताजमहल के पत्थरो को जहाज में डालकर लंदन ले जाने में खर्च बहुत ज्यादा आ रहा था और लोगों का विरोध भी लगातार तेज होता जा रहा था। कहा जाता है की अंग्रजो की आर्मी के एक अफसर ने ब्रिटिश संसद के एक सदस्य को गुप्त रूप से लार्ड बेंटिक को सारी कहानी बता दी थी, जिसके बाद में ब्रिटिश संसद में यह मामला उठाया गया और ताजमहल को ख़त्म करने का विचार गवर्नर लार्ड विलियम बैन्टिक को छोड़ना पड़ा था।
मथुरा से सुनील शर्मा



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें